कुंडली के पहले भाव में मंगल के शुभ अशुभ फल जानिए इस लेख में. ......
शुभ फल : कुण्डली में प्रथम भाव में मंगल होने से जातक साहसी, महत्वाकांक्षी, उत्कर्ष के लिए अति इच्छुक होता है। जातक सिंह के समान पराक्रमी होता है। अपना काम निकालने में निपुण होता है। अपनी ही बात कहकर-दूसरे की बिना सुने-सभाजित् बना रहता है। शरीर दृढ़ होता है। रिश्वत लेनेवाले अफसरों के लिए भी यह योग अच्छा है-क्योंकि इनकी पकड़ नहीं हो सकेगी। परन्तु ऐसा फल तब होता है जब मंगल के साथ शनि का योग होता है। बड़ी नाभि-लाल हाथ, तेजस्वी, बली होता है।
लग्नस्थल मंगल मोटर, हवाई जहाज, रेलवे इंजिन ड्राइवरों के लिए विशेषतया अच्छा है। लोहार, बढ़ई, सुनार, मैकेनिकल इंजीनियर, टर्नर, तथा फिटर आदि लोगों के लिए भी यह योग बहुत अच्छा है। जमीन सर्वेयर का काम भी अच्छा रहता है। डाकटरों की कुंडली में लग्नस्थ मंगल होने से सर्जरी में विशेष सफलता मिलती है। मंगल उच्च का होने से या स्वगृही होने से नीरोग, निर्भय, पुष्टदेह, राज्य में सत्कार पानेवाला और यशस्वी होता है। तथा दीर्घायु होता है। मेष, सिंह, कर्क, वुश्चिक, धनु राशियों का लग्नस्थ मंगल पुलिस इन्सपैक्टरों के लिए अच्छा है।
अशुभफल : प्रथम भाव में मंगल होने से जातक विवेकहीन, चपल, विचार-रहित, और क्रूर होता है। अतिअभिमानी और क्रोधी होता है। उग्र हठवाला, दुराग्रही होता है। अत्यन्त मति-विभ्रम से दु:खी होता है। भ्रमात्मक बुद्धिवाला होता है। क्रोधी और कलहप्रिय होता है। शत्रुओं से और अपने धर्म के लोगों से भी खूब झगड़ता है। जातक निरंकुश, लोभी, वितंडावादी, मिथ्याभाषी, होता है। मानस संताप होता है। शरीर में चोट लगती है। चिन्हयुक्त देहवाला, देह में घाव और व्रण होते हैं। जातक को लाठी, लोहा (हथकड़ी) और अग्नि से भय होता है। लौहास्त्र का प्रहार होता है। लोहा, लोहे की वस्तुए और आग से दूर रहना चाहिए। अग्नि-बाण-लाठी से प्रहार का भय होता है। कामी, लोभी, लड़ाई-झगडे़ और बहस में प्रबल पड़ने के कारण दु:सह हुआ करता है।
वाल्यावस्था में उदर के तथा दॉतों के रोग, रक्तविकार होते हैं। गुप्तरोगी, एवं व्रणजन्य कष्ट से युक्त होता है। सिर और नेत्रपीड़ा होती है। शिरपीड़ा तथ नेत्रों में रोग होता है। जातक को गुदरोग, नाभि में खुजली या कोढ़, कमर में व्यंग होता है। मस्तक में वा गुह्यभाग में व्रण होता है। रक्तविकार के रोगों से पीडि़त, शरीर से दुर्बल होता है। जातक बन्धुहीन होता है। स्त्री को रोग होता है या स्त्री की मृत्यु होती है। स्त्री और संतान से कष्ट प्राप्त करता है। स्त्री-पुत्रों से अलग रहनेवाला होता है। परस्त्रीगामी होता है। फल विपाक में अर्थात् कार्यसिद्धि के समय सदा विघ्न पड़ जाते हैं-अर्थात् कार्यसिद्धि नहीं होती ।
यह जातक उद्यम तथा साहस में दूसरा सिंह ही क्यों न हो तो भी कष्ट ही पाता है अर्थात् असफल मनोरथ ही रहता है। रण में शरीर क्षत-विक्षत (छिन्न-भिन्न) होता है। भ्रमणशील होता है। इधर-उधर भटकता (घूमता-फिरता)घुमक्कड़ होता है - किसी स्थान में स्थायी न रहने से चित परेशान रहता है। थोड़ी सन्तान, वातशूलादि रोग और मुख देखने में खराब होता है। लग्नभाव में मंगल होने से जातक सभी व्यवसायों के प्रति आकृष्ट होता है - एक साथ ही सभी व्यवसाय करने की प्रवृत्ति होती है। 36 वें वर्ष के बाद किसी एक व्यवसाय में स्थिरता आती है। जातक को मिथ्या अभिमान होता है कि वह व्यवसाय में अत्यंत कुशल है और दूसरे निरेमूर्ख हैं। योग्यता के अभाव में भी दूसरों पर प्रभाव डालने का यत्न करता है।
लग्नस्थ मंगल वकीलों के लिए विशेष अच्छा नहीं है। फौजदारी मुकदमें मिलते हैं अवश्य, परन्तु धनप्राप्ति विशेष नहीं होती । अदालत में विशेष प्रभाव अवश्य पड़ता है। कर्क, वृश्चिक तथा मीन में नाविक, पियक्कड़, चैनी, व्यभिचारी होता है। लग्नस्थ मंगल कर्क, वुश्चिक, कुंभ तथा मीन में होने से जातक किसी से जल्दी मित्रता नहीं करता है-किन्तु मित्रता हो जाने पर कभी भूलता नहीं है। जातक पैसे का स्वार्थी होता है-अच्छे बुरे उपायों का विचार नहीं करता है।
एक विशेष बात ये भी है कि पहले भाव का मंगल व्यक्ति को प्रबल मांगलिक बनाता है। यदि पहले भाव पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो व्यक्ति अपनी जिद में अपनी ही जिंदगी ख़राब कर लेता है।