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Saturday, 5 April 2025

ज्योतिष विज्ञान का आधार ‘वेद‘ । vedo me jyotishiya tattva janiye is lekh

Posted by Dr.Nishant Pareek

ज्योतिष विज्ञान का आधार ‘वेद‘ 



            प्रज्ज्वलित बृह्माण्ड की दिव्य ज्योति ही जीवन है। इस ज्योति का पर्याय ही ज्योतिष है। वेद रूपी ज्योतिष ही ब्रह्म रूपी ज्योतिष है। जिसका दूसरा नाम संवत्सर, ब्रह्म अथवा महाकाल है। ब्रह्म सृष्टि के मूल बीजाक्षरों अथवा मूल अनन्त कलाओं का ज्ञान ही वैदिक दार्शनिक ज्योतिष है। इसका दूसरा स्वरूप लौकिक या व्यक्त ज्योतिष भी है। जिसे खगोलीय अथवा ब्रह्माण्डीय ज्योतिष भी कहते हैं। वेद के छः अंग माने गये है- (1) शिक्षा, (2) कल्प, (3) व्याकरण, (4) निरुक्त, (5) ज्योतिष, (6) छन्दः शास्त्र। 

ज्योतिष शास्त्र को वेद रूपी पुरुष का नेत्र माना गया है। ऋग्वेद आदि प्राचीन ग्रन्थों में ज्योतिष का बहुत उल्लेख प्राप्त होता है। सम्पूर्ण वेदों का सम्बन्ध यज्ञ से है। यज्ञ कर्मों का सम्पादन शुभ समय में ही होता है। इसके लिये शुभ-अशुभ समय का ज्ञान ज्योतिष शास्त्र द्वारा ही प्राप्त किया जाता है। इसलिये वेदांगों में ज्योतिष शास्त्र महत्त्वपूर्ण है। वेद रूपी पुरुष के छः मुख्य अंगों में व्याकरण वेद का मुख, ज्योतिष शास्त्र दोनों नेत्र, निरुक्त दोनों कान, कल्प- शास्त्र दोनों हाथ, शिक्षाशास्त्र वेद की नासिका, तथा छन्द वेद के दोनों पैर कहे गये है। किसी भी व्यक्ति के हाथ, पैर, कान नाक, होने के बाद भी यदि नेत्र नहीं हो तो वह असहाय होता है। इसलिये भी वेदांगों में ज्योतिष शास्त्र महत्त्वपूर्ण है। वेदों में ज्योतिष के निम्न वर्णन प्राप्त होते है-

सूर्य के आकर्षण के बल पर आकाश में नक्षत्रों की स्थित बनती है। सूर्य द्वारा ही दिन-रात होते हैं। सूर्य के आकर्षण द्वारा ही पृथ्वी अपने अक्ष पर स्थिर रहती हैं। भारतीय आचार्यों को आकर्षण का भली-भाँति ज्ञान था। चन्द्रमा स्वयं प्रकाशमान नहीं होता है। यह आकाश में नित्य रूप से गति करता है। चन्द्रमा को पञ्चदश भी कहा गया है, क्योंकि यह प्रत्येक पन्द्रह दिन में क्षीण तथा पन्द्रह दिन में पूर्ण हो जाता है। तैत्तरीय संहिता में ऋतुओं तथा मासों के नाम बताये गये हैं- बसंत के मधु-माधव, ग्रीष्म के शुक्र-शुचि, वर्षा के नभ-नभस्य, शरद् के ईष-ऊर्ज, हेमन्त के सह-सहस्य, तथा शिशिर के तपस-तपस्य बताये गये है। ऋग्वेद में समय के 94 अवयव बताये हैं- इनमें 1 संवत्सर. 2-अयन. 5-ऋतयें. 12 माह. 24 पक्ष.30 अहोरात्र.8 प्रहर तथा 12 आरा मानी गई है। ज्योतिष में वर्ष को दो भागों में बाँटा गया है - उत्तरायण तथा दक्षिणायन। उत्तरायण में सूर्य, उदय बिन्दु से उत्तर की ओर जाता है तथा दक्षिणायन में सूर्य उदय बिन्दु से दक्षिण की तरफ जाता है। तैतरीय संहिता के अनुसार सूर्य 6 मास दक्षिणायन तथा 6 मास उत्तरायण रहता है। 

वैदिक काल में सरलता से दिखाई देने वाले चमकते हुये पिण्डों को ही नक्षत्र कहा जाता है। समयानुसार ज्ञान वृद्धि होने से नक्षत्र तथा तारों में भिन्नता का ज्ञान हुआ। चन्द्रमा की गति तथा मार्ग का ज्ञान हुआ। चैत्र, वैशाख आदि महिनों के नाम वेद, संहिता तथा ब्राह्मण आदि किसी भी ग्रन्थ में प्राप्त नहीं होते। ये नाम 1200 ई. पू. में रचित ग्रन्थ वेदांग ज्योतिष में प्राप्त होते है। वैदिक काल में सप्ताह के स्थान पर पक्ष तथा उसके उप विभाग ही प्राप्त होते है। वैदिक काल में संवत् शब्द से वर्ष की गणना होती थी। (1) संवत्सर, (2) परिवत्सर, (3) इद्वावत्सर (4) अनुवत्सर (5) इद्वत्सर । इसी आधार पर सूर्य सिद्धान्त में काल के नौ विभाग वर्णित है- (1) ब्राह्मवर्ष, (2) दिव्य वर्ष, (3) पितृ वर्ष, (4) प्राजापत्य वर्ष, (5) गौरव वर्ष (6) सौर वर्ष, (7) सावन वर्ष, (8) चान्द्र वर्ष, (9) नाक्षत्र वर्ष। ऐतरेय ब्राह्मण में बताया गया है कि जहाँ चन्द्रमा उदित व अस्त होता है, वह तिथि कहलाती है। वैदिक काल में दिन को चार भागों में बाँटा गया था (1) पूर्वाह्न, (2) मध्याह्न, (3) अपराह्न, (4) सायाह्न। सम्पूर्ण दिन को पन्द्रह भागों में  बाँट कर उनमें से एक को मुहूर्त कहा जाता था। ऋषियों ने चन्द्रमा के एक सम्पूर्ण चक्कर को 27 अथवा 28 भागों में विभक्त करके उन्हें नक्षत्रों का नाम दिया। 

इस तरह उपरोक्त वर्णन प्राचीन वैदिक ग्रन्थों में प्राप्त होता है। परन्तु प्राचीन ज्योतिष तथा आधुनिक ज्योतिष में बहुत अन्तर आ गया है। 


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