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Thursday, 26 March 2020

Pahle bhav me guru ka shubh ashubh samanya fal/ पहले भाव में गुरु का शुभ अशुभ सामान्य फल

Posted by Dr.Nishant Pareek

पहले भाव में गुरु का शुभ अशुभ सामान्य फल



शुभ फल : बृहस्पति-लग्न में रहने पर उत्तम फल मिलता है। जातक का शरीर नीरोग, दृढ़-कोमल, वर्ण गोरा और मनोहर होता है। जातक देवताओं के समान सुंदर शरीर वाला, बली, दीर्घायु होता है। जातक तेजस्वी, स्पष्टवक्ता, स्वाभिमानी, विनीत, विनय-सम्पन्न, सुशील, कृतज्ञ एवं अत्यंत उदारचित होता है। जातक निर्मलचित, द्विज-देवता के प्रति श्रद्धा रखने वाला, दान, धर्म में रूचि रखने वाला, एवं धर्मात्मा होता है। जातक विद्याभ्यासी, विचार पूर्वक काम करनेवाला, सत्कर्म करने वाला, बुद्धिमान्, विद्वान्, पंडित, ज्ञानी तथा सज्जन होता है।

आध्यात्मिक रुचि, रहस्य विद्याओं का प्रेमी होता है। जातक मधुर प्रिय होता है तथा सर्वलोकहितकर, सत्य और मधुर वचन बोलता है। स्वभाव स्थिर होता है। स्वभाव से प्रौढ़ प्रतीत होता है तथा सर्वज्जन मान्य होता है। घूमने-फिरने का शौकीन होता है। जातक अपने भाव अपने मन में ही रखता है। जातक प्रतापी, प्रसिद्ध कुल में उत्पन्न होता है। लग्न में बृहस्पति होने से जातक शोभावान्, और रूपवान्, निर्भय, धैर्यवान्, और श्रेष्ठ होता है।

सामान्यत: लग्न में किसी भी राशि में गुरु होने से जातक उदार, स्वतंत्र, प्रामाणिक, सच बोलनेवाला, न्यायी, धार्मिक तथा कीर्तिप्राप्त करनेवाला और शुभ काम करनेवाला होता है। मस्तक बड़ा और तेजस्वी दिखता है। जातक का वेश (पोशाक) सुन्दर होता है। जातक सदा वस्त्र तथा आभूषणों से युक्त-सुवर्ण-रत्नआदि धन से पूर्ण होता है। राजमान्य-तथा राजकुल का प्रिय होता है। राजा से मान तथा धन मिलता है। अपने गुणसमूह से ही सर्वदा लोगों में गुरुता (श्रेष्ठता-बड़कप्पन) प्राप्त होती है। गुणों से समाज में मान्य होता है। स्त्री-पुत्र आदि के सुख से युक्त होता है। पुत्र दीर्घायु होता है। बचपन में सुख मिलता है। सभी प्रकार के सुख प्राप्त करता है। विविध प्रकार के भोगों में धन का खर्च करता है। जातक शत्रुओं के लिए विषवत् कष्टकर होता है। विघ्नों को गुरु तत्काल नाश करता है। जीवनयात्रा के अन्त में विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। शरीर छोड़ने पर जातक की उत्तमगति होती है अर्थात् स्वर्गगामी होता है। 

 गुरु अग्निराशि में होने से उदार, धैर्यशाली, स्नेहल-विजयी, मित्रों से युक्त अभिमानी होता है।  शास्त्रकारों के शुभफल मेष, सिंह, धनु, मिथुन और मीन राशियों के हैं। अशुभ फल इन राशियों से भिन्न दूसरी राशियों के हैं।      जन्म लग्न में गुरु अपने स्थान (धनु-मीन) में होने से व्याकरणशास्त्रज्ञ होता है। तीनों वेदों का ज्ञाता होता है।       धनु और मीन में गुरु होने से संकट नष्ट होते हैं।  मेष, सिंह तथा धनु लग्न में गुरु होने से शुभफलों का अनुभव आता है। जातक स्वभाव से उदार होता है। लोककल्याण बहुत प्रिय होता है। गुरु के प्रभाव में आए हुए जातक अपठित भी पठित ही प्रतीत होते हैं। जातक यदि प्राध्यापक वकील-वैरिस्टर-जज-गायक कवि आदि होते हैं तो इन्हें यशप्राप्ति होती है। गुरु लग्न में, त्रिकोण में या केन्द्र में धनु, मीन या कर्क राशि में होने से अरिष्ट नहीं होता है।
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 अशुभफल : अल्पवीर्य-अर्थात् अल्पबली-कमजोर होता है। शरीर में वात और श्लेष्मा के रोग होते हैं। झूठी अफवाहों से कष्ट होता है। धनाभाव बना ही रहता है। लग्नस्थ गुरु के फलस्वरूप माता-पिता दोनों में से एक की मृत्यु बचपन में सम्भव है।लग्न स्थान का गुरु द्विभार्या योग कर करता है। विवाहाभाव योग भी बन सकता है।

लग्नस्थ गुरु पुलिस, सेना-आबकारी विभागों में काम करने वालों के लिए नेष्ट है। अर्थात ये विभाग लाभकारी नहीं होंगे।  गुरु शत्रुग्रह की राशि में, नीच राशि में, पापग्रह की राशि में या पापग्रह के साथ होने से जातक नीचकर्मकर्ता तथा चंचल मन का होता है। मध्यायु होता है। पुत्रहीन होता है। अपने लोगों से पृथक हो जाता है। कृतघ्न, गर्वीला, बहुतों का बैरी, व्यभिचारी, भटकनेवाला अपने किए हुए पापों का फल भोगनेवाला होता है।

     मेष, मिथुन, कर्क, कन्या-मकर को छोड़ अन्य लग्नों में गुरु होने से जातक भव्य भाल का, विनोदी स्वभाव का, किसी विशेष हावभाव से बातें करने वाला होता है।  धनु लग्न में सन्तति नहीं होती। मिथुन, कन्या, धनु, मीन लग्न में गुरु होने से जातक वय में श्रेष्ठ कुलीन परस्त्री से सम्बन्ध जोड़ता है।  लग्नस्थ गुरु अशुभ सम्बन्ध का अच्छा फल नहीं देता है।

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