ज्योतिष शास्त्र का सम्पूर्ण परिचय
ज्योतिष शास्त्र
ब्रह्माण्ड की समष्टि और व्यष्टि से यह संसार और पिण्ड रूपी प्रत्येक मनुष्य का शरीर एकत्व सम्बन्ध युक्त है। इसलिये आर्यशास्त्र में लिखा है कि जो कुछ बाहर ब्रह्माण्ड में है, उन्हीं देवता, भूत समूह, तथा ग्रह नक्षत्र आदि का केन्द्र इस शरीर में स्थित है। शिव संहिता में लिखा है
देहेऽस्मिनूर्तते मेरुः सप्तद्वीप समन्वितः ।
सरितः सागराः शैलाः क्षेत्राणि क्षेत्रपालकाः।।
ऋषयः मुनयो सर्वे नक्षत्राणि ग्रहास्तथा।
पुण्यतीर्थानि पीठानि वर्तन्ते पीठ देवताः।।
इस प्रकार का सिद्धान्त पश्चिमी विद्वानों ने भी किया है। फलस्वरूप मनुष्य अनन्त आकाशव्यापी सौरजगत् की एक क्षुद्र रचना है। सौरजगत् के साथ इस प्रकार एकत्व सम्बन्ध रहने के कारण सौरजगत् के अनुसार उसमें परिवर्तन होना तर्कसंगत है। जिस तरह प्राकृतिक अन्तर्राज्य की मूल शक्ति चेतन और जडरूपी दो भागों में विभक्त है। उसी प्रकार प्रतिकृति की बहिः शक्ति भी सम और विषम रूप दो भागों में विभक्त है। इन्हीं दो प्रकार की सम और विषम शक्तियों द्वारा दो प्रकार के कार्य होते है। एक शक्ति द्वारा आकर्षण तथा दूसरी शक्ति द्वारा विकर्षण की क्रिया होती है। इसका रहस्य यह है कि जिस प्रकार अन्तः करण में इन दो शक्तियों, इनके आकर्षण-विकर्षण, इनकी सहायता से मानासिक प्रवृत्ति में परिवर्तन उत्पन्न होते हैं। तथा मनुष्यों की आन्तरिक वृत्तियों में भी परिवर्तन होते हैं। उसी नियम के अनुसार समष्टि ब्रह्माण्ड की शक्तियों के द्वारा भी इस बाहरी जगत् में सृष्टि स्थिति लयात्मक नाना प्रकार के परिवर्तन हुआ करते है। अपि च मनुष्य के अन्तः करण में जिस प्रकार से ये शक्तियाँ विद्यमान है, उसी प्रकार ग्रह, सूर्य तथा नक्षत्र आदि में विद्यमान है। उनकी इस प्रकार की शक्तियों का प्रभाव जैसे उनके ऊपर रहता है, उसी प्रकार जहाँ तक उनकी शक्ति पहुँच सकती है, वहाँ तक के अन्यान्य ग्रह नक्षत्र तथा ग्रह नक्षत्रवासी जीव समूह पर भी उसी प्रकार प्रभाव पड़ता है। इस वैज्ञानिक सिद्धान्त के अनुसार प्रत्यक्ष सिद्ध गणित ज्योतिष का तादात्म्य सम्बन्ध अप्रत्यक्ष फलित ज्योतिष के साथ रहना युक्ति संगत और विज्ञान सिद्ध है। ज्योतिष शास्त्र में कहा गया है-गणितं फलितश्चैव ज्योतिषं तु द्विधा मतम्।
ज्योतिष दो प्रकार का है- गणित और फलित। प्राचीन काल में इस अलौकिक विज्ञान की चरम उन्नति भारतवर्ष में ही हुई थी। अनेक विद्वान् ऋषि-मुनियों ने इसे अपने ज्ञान से पोषित किया। ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तक आचार्यों के नाम इस प्रकार बताये गये है
सूर्यः पितामह व्यासों वसिष्ठोत्रिपराशराः।
कश्यपो नारदो गर्गों मरीचिमनुरंगिरा।
लोमशः पौलिशश्चैव च्यवनो यवनोगुरुः।
शौनकोऽष्टादशश्चैते ज्योतिः शास्त्रप्रवर्तकाः॥
यह शास्त्र अन्य वेदाङ्गों से कहीं ज्यादा विस्तृत तथा बहुत आवश्यक भी है। पूज्य महर्षिगण भी कह गये है-ं
यथा शिखामयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्वद्वेदाङ्गशास्त्राणां ज्योतिषं मूर्धनि स्थितम् ।।
कहा है कि जैसे मयूरों की शिखा और सर्पो की मणि उनके सिर पर रहती है, उसी प्रकार वेदांग शास्त्रों में ज्योतिष सभी अंगों में मुख्य है।
वेदाहि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः।
तस्मादिदं कालविधानशास्त्रयो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञम्॥
वेद यज्ञों के लिये प्रवृत्त है और यज्ञ काल के भ्रमाणानुसार किये जाते है। ज्योतिष काल निर्णय करने वाला शास्त्र है। इसे जो जानता है, वही यज्ञों को जानकर सम्पादित कर सकता है।
ज्योतिष शास्त्र का सम्पूर्ण परिचय
यद्यपि सृष्टि के मूलकारण रूपी कारण ब्रह्म विश्वकर्ता सृष्टि से अतीत है, परन्तु कार्य ब्रह्म रूप यह प्राकृतिक ब्रह्माण्ड देशकाल से परिच्छिन्न है। कर्म के साथ काल की अधीनता प्राचीनकाल से ग्राह्य है। फलस्वरूप कालज्ञान के साथ जो कर्म किया जाता है, उसका ही पूर्ण रूप से सिद्ध होना सम्भव है। ज्योतिष काल के स्वरूप का प्रतिपादक है और उत्तरांग फलित ज्योतिष काल के अन्तर्गत विद्यमान रहस्यों का उद्घाटन करता है। इस कारण वेदों के कर्मकाण्ड का ज्योतिष शास्त्र के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है। क्योंकि कर्म जब काल के अधीन है तो कर्मकाण्ड भी ज्योतिष शास्त्र के अधीन रहकर सम्पादित करना उत्तम होता है।
आजकल इस ज्योतिष शास्त्र की घोर अवनति भी आर्यजाति के सदाचार और कर्मकाण्ड की हानि का मुख्य कारण है। गणित ज्योतिष द्वारा बाहरी जगत् से जुड़े ग्रह-नक्षत्र समूह के परिवर्तन और काल के विभाग का निर्णय करता है और फलित ज्योतिष द्वारा ग्रह नक्षत्रों की गति की सहायता से इस जगत् के एवं जगत् से जुड़ी - सृष्टि तथा मनुष्यों के आन्तरिक परिवर्तनों का निश्चय किया जाता है। ज्योतिषशास्त्र के दोनों ही अंग मानवगण के लिये बहुत लाभदायक है। ज्योतिष ग्रन्थों में इस शास्त्र की सर्वप्रथम आवश्यकता, सर्वजन हितकारी तथा सर्वशास्त्रों में प्रधानता वर्णित है।