Showing posts with label सुधाकर द्विवेदी. Show all posts
Showing posts with label सुधाकर द्विवेदी. Show all posts

Wednesday, 9 July 2025

Aadhunik jyotish ke vidvan Sudhakar Dwivedi/ सुधाकर द्विवेदी

Posted by Dr.Nishant Pareek

सुधाकर द्विवेदी 

 महामहोपाध्याय पण्डित सुधाकर द्विवेदी (अनुमानतः 26 मार्च 1855 -- 28 नवंबर, 1910 ई. (मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी सोमवार संवत् 1967) भारत के आधुनिक काल के महान गणितज्ञ एवं उद्भट ज्योतिर्विद थे। आप हिन्दी साहित्यकार एवं नागरी के प्रबल पक्षधर भी थे। 

जीवनचर्या 

 इनका जन्म वरुणा नदी के तट पर काशी के समीप खजुरी ग्राम में अनुमानतः 26 मार्च सन् 1855 (सोमवार संवत् 1912 विक्रमीय चैत्र शुक्ल चतुर्थी) को हुआ। इनके पिता का नाम कृपालुदत्त द्विवेदी और माता का नाम लाची था। 

आठ वर्ष की आयु में इनके यज्ञोपवीत के दो मास पूर्व, एक शुभ मुहूर्त (फाल्गुन शुक्ल पंचमी) में इनका अक्षरारंभ कराया गया। प्रारंभ से ही इनमें अद्वितीय प्रतिभा देखी गई। कुछ समय में (अर्थात् फाल्गुन शुक्ल दशमी तक) इन्हें हिन्दी मात्राओं का पूर्ण ज्ञान हो गया। जब इनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ तो वे भली-भाँति हिंदी लिखने-पढने लगे थे। संस्कृत का अध्ययन प्रारंभ करने पर वे ‘अमरकोश‘ के लगभग पचास से भी अधिक श्लोक एक दिन में याद कर लेते थे। इन्होंने वाराणसी संस्कृत कालेज के पं. दुर्गादत्त से व्याकरण और पं. देवकृष्ण से गणित एवं ज्योतिष का अध्ययन किया। गणित और ज्योतिष में इनकी अद्भुत प्रतिभा से महामहोपाध्याय बापूदेव शास्त्री बड़े प्रभावित हुए। कई अवसरों पर बापूदेव जी ने एक अवसर पर लिखा, श्री सुधाकर शास्त्री गणिते बृहस्पतिसमः।‘ 

सुधाकर जी ने गणित का गहन अध्ययन किया और भिन्न-भिन्न ग्रंथों पर अपना ‘शोध‘ प्रस्तुत किया। गणित के पाश्चात्य ग्रंथों का भी अध्ययन इन्होंने अंग्रेजी और फ्रेंच भाषाओं को पढ़कर किया। बापूदेव जी ने अपने सिद्धांत शिरोमणि‘ ग्रंथ की टिप्पणी में पाश्चात्य विद्वान डलहोस के सिद्धांत का अनुवाद किया था। द्विवेदी जी ने उक्त सिद्धान्त की अशुद्धि बतलाते हुए बापूदेव जी से उस पर पुनर्विचार के लिए अनुरोध किया। इस प्रकार बाईस वर्ष की ही आयु में सुधाकर जी प्रकांड विद्वान हो गए और उनके निवास स्थान खजुरी में भारत के कोने-कोने से विद्यार्थी पढने आने लगे। सन् 1883 में द्विवेदी जी सरस्वती भवन के पुस्तकालयाध्यक्ष हुए। विश्व के हस्तलिखित पुस्तकालयों में इसका विशिष्ट स्थान है। 16 फरवरी 1887 को महारानी विक्टोरिया की जुबली के अवसर पर इन्हें ‘महामहोपाध्याय‘ की उपाधि से विभूषित किया गया। सन् 1890 में पंडित बापू देव शास्त्री के सेवानिवृत्त होने के बाद वे उनके स्थान पर गणित एवं ज्योतिष के अध्यापक नियुक्त हुए। वे बनारस के क्वीन्स कॉलेज के गणित विभाग के अध्यक्ष थे जहाँ से वे 1905 में सेवानिवृत्त हुए। उनके बाद प्रसिद्ध गणितज्ञ गणेश प्रसाद विभागाध्यक्ष बने। 

 द्विवेदी जी ने ‘ग्रीनविच‘ में प्रकाशित होने वाले ‘नाटिकल ऑल्मैनक‘ में अशुद्धि निकाली। ‘नाटिकल ऑल्मैनक‘ के संपादकों एवं प्रकाशकों ने इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की और इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस घटना से इनका प्रभाव देश-विदेश में बहुत बढ.गया। तत्कालीन राजकीय संस्कृत कालेज (काशी) के प्रिंसिपल डॉ. वेनिस के विरोध करने पर भी गवर्नर ने इन्हें गणित और ज्योतिष विभाग का प्रधानाध्यापक नियुक्त किया। सुधाकर जी गणित के प्रश्नों और सिद्धान्तों पर बराबर मनन किया करते थे। बग्गी पर नगर में घूमते हुए भी वे कागज पेंसिल लेकर गणित के किसी जटिल प्रश्न को हल करने में लगे रहते। 

रचनाएँ 

द्विवेदी जी की गणित और ज्योतिष संबंधी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार है-

इन्होने संस्कृत में अनेक ग्रंथ लिखे हैं जिनमें से अधिकांश ज्योतिषीय विषयों पर हैं। प्रमुख संस्कृत ग्रन्थ हैं- 

दीर्घवृत्तलक्षण गोलीय रेखागणित  

गणकतरंगिणी - इसमें भारतीय ज्योतिषियों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। (1911) 

यूक्लिड के 6वें, 11वें एवं 12वें भागों का संस्कृत में श्लोकबद्ध अनुवाद लीलावती की सोपपत्ति (उपपत्ति सहित) टीका (1879) भास्करीय बीजगणित की सोपपत्ति टीका (1889) 

वाराहमिहिर की पंचसिद्धान्तिका की टीका - ‘पंचसिद्धान्तिका प्रकाश‘ नाम से --यह पुस्तक सन् 1890 में डॉ. थीबॉ का अंग्रेजी टीका एवं भूमिका सहित छपी थी। 

सूर्यसिद्धान्त की टीका - ‘सुधावर्षिणी‘ --इसका दूसरा संस्करण बंगाल की एशियाटिक सोसायटी से सन् 1925 में प्रकाशित हुआ। 

ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त टीका सहित (सन् 1902 में) द्वितीय आर्यभट का महासिद्धान्त टीका सहित (सन् 1910 में) 

संस्कृत में रचित गणित एवं ज्योतिष के ग्रंथ 

(1) वास्तव विचित्र प्रश्नानि, 

(2) वास्तव चंद्रशृंगोन्नतिः, 

(3) दीर्घवृत्तलक्षणम्,

(4) भ्रमरेखानिरूपणम्, 

(5) ग्रहणेछादक निर्णयः, 

(6) यंत्रराज, 

(7) प्रतिभाबोधकः, 

(8) धराभ्रमे प्राचीननवीनयोर्विचारः, 

(9) पिंडप्रभाकर, 

(10) सशल्यबाण निर्णयः, 

(11) वृत्तांतर्गत सप्तदश भुजरचना, 

(12) गणकतरंगिणी 

(13) दिग्मीमांसा, 

(14) धुचरचारः, 

(15) फ्रेंच भाषा से संस्कृत में बनाई चंद्रसारणी तथा भौमादि ग्रहों की सारणी (सात खंडों में),

(16) 1.100000 की लघुरिक्थ की सारणी तथा एक-एक कला की ज्या सारणी, 

(17) समीकरण मीमांसा दो भागों में, 

(18) गणित कौमुदी, 

(19) वराहमिहिरकृत पंचसिद्धांतिका, 

(20) कमलाकर भट्ट विरचित सिद्धांत तत्व विवेकः, 

(21) लल्लाचार्यकृत शिष्यधिवृद्धितंत्रम्, 

(22) करण कुतूहलः वासनाविभूषण सहित 

(23) भास्करीय लीलावती, टिप्पणीसंहिता, 

(24) भास्करीय बीजगणितं टिप्पणीसहितम्, 

(25) वृहत्संहिता भट्टोत्पल टीका संहिता, 

(26) ब्रह्मास्फुट सिद्धांतः स्वकृततिलका (भाष्य) सहित 

(27) ग्रहलाघवः स्वकृत टीकासहित 

(28) पायुष ज्योतिषं सीमाकर भाष्यसहितम्, 

(29) श्रीधराचार्यकृत स्वकृत टीका सहिंताच त्रिशतिका, 

(30) करणप्रकाशः सुधाकरकृत सुधावर्षिणी सहित 

(31) सूर्यसिद्धांतः सुधाकरकृत सुधावर्षिणी सहित 

(32) सूर्यसिद्धांतस्य एका बृहत्सारणी तिथिनक्षत्रयोगकरणानां घटिज्ञापिका आदि। 

हिन्दी में रचित गणित एवं ज्योतिष ग्रंथ 

(1) चलन कलन, 

(2) चलराशिकलन, 

(3) ग्रहण करण, 

(4) गणित का इतिहास, 

(5) पंचांगविचार, 

(6) पंचांगप्रपंच तथा काशी की समय-समय पर की अनेक शास्त्रीय व्यवस्था, 

(7) वर्गचक्र में अंक भरने की रीति, 

(8) गतिविद्या, 

(9) त्रिशतिका 

(10) श्रीपति भट्ट का पाटीगणित (संपादित) 

(11) समीकरण मीमांसा (थीअरी ऑफ इक्वेशन्स) आदि 

हिन्दी साहित्य रचना 

द्विवेदी जी उच्च कोटि के साहित्यिक एवं कवि भी थे। हिंदी और संस्कृत में उनकी साहित्य संबंधी कई रचनाएँ हैं। हिंदी की जितनी सेवा उन्होंने की उतनी किसी गणित, ज्योतिष और संस्कृत के विद्वान ने नहीं की। द्विवेदी जी और भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र में बड़ी मित्रता थी। दोनों हिंदी के अनन्य भक्त थे और हिंदी का उत्थान चाहते थे। द्विवेदी जी आशु रचना में भी पटु थे। काशी स्थित राजघाट के पुल का निर्माण देखने के पश्चात् ही उन्होंने भारतेंदु बाबू को यह दोहा सुनाया 

राजघाट पर बनत पुल, जहँ कुलीन को ढेर। आज गए कल देखिके, आजहि लौटे फेर।। 

भारतेंदु बाबू इस दोहे से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने द्विवेदी जी को जो दो बीड़ा पान घर खाने को दिया उसमें दो स्वर्ण मुद्राएँ रख दीं।। 

द्विवेदी जी ने मलिक मुहम्मद जायसी के महाकाव्य ‘पद्मावत‘ के पच्चीस खंडों की टीका ग्रियर्सन के साथ की। यह ग्रंथ उस समय तक दुरूह माना जाता था, किंतु इस टीका से उसकी सुंदरता में चार चाँद लग गए। ‘पद्मावत‘ की ‘सुधाकरचंद्रिका टीका‘ की भूमिका में द्विवेदी जी ने लिखा हैः 

लखि जननी की गोद बीच, मोद करत रघुराज।

होत मनोरथ सुफल सब, धनि रघुकुल सिरताज॥ 

जनकराज-तनया-सहित, रतन सिंहासन आज। 

राजत कोशलराज लखि, सुफल करहू सब काज।। 

का दुसाधु का साधु जन, का विमान सम्मान। 

लखहू सुधाकर चंद्रिका, करत प्रकाश समान। 

मलिक मुहम्मद मतिलता, कविता कनेक बितान। 

जोरि जोरि सुबरन बरन, धरत सुधाकर सान।। 

द्विवेदी जी राम के अनन्य भक्त थे और उनकी कविताएँ प्रायः रामभक्ति से ओतप्रोत होती थीं। अपनी सभी पुस्तकों के प्रारंभ में उन्होंने राम की स्तुति की है। 

द्विवेदी जी व्यंगात्मक कविताएँ भी यदाकदा लिखते थे। अंग्रेजियत से उन्हें बड़ी अरुचि थी और भारत की गिरी दशा पर बड़ा क्लेश था। राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की हिंदी के प्रति अनुदार नीति और अंग्रेजीपन का अंधानुकरण न तो द्विवेदी जी को पसंद था और न भारतेंदु बाबू को ही। 

नागरी लिपि के प्रबल समर्थक 

द्विवेदी जी के समय में भारत में उर्दू, फारसी एवं अरबी का बोलबाला था। हिंदी भाषा का न तो कोई निश्चित स्वरूप बन सका था और न उसे उचित स्थान प्राप्त था। हिंदी और नागरी लिपि को संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) के न्यायालयों में स्थान दिलाने के लिए नागरी प्रचारिणी सभा ने जो आंदोलन चलाया उसमें द्विवेदी जी का सक्रिय योगदान था। इस संबंध में संयुक्त प्रांत के तत्कालीन अस्थायी राज्यपाल सर जेम्स लाटूश से (1 जुलाई सन् 1898 को) काशी में द्विवेदी जी के साथ नागरीप्रचारिणी सभा के अन्य पाँच सदस्य मिले थे। द्विवेदी जी ने एक उर्दू लिपिक के साथ प्रतियोगिता में स्वयं भाग लेकर और निर्धारित समय से दो मिनट पूर्व ही लेख सुंदर और स्पष्ट नागरी लिपि में लिखकर यह सिद्ध कर दिया कि नागरी लिपि शीघ्रता से लिखी जा सकती है। इस प्रकार हिंदी और नागरी लिपि को भी न्यायालयों में स्थान मिला। 

 द्विवेदी जी का मत था कि हिन्दी को ऐसा रूप दिया जाए कि वह स्वतः व्यापक रूप में जनसाधारण के प्रयोग की भाषा बन जाए और कोई वर्ग यह न समझे कि हिंदी उस पर थोपी जा रही है। उन्होंने पंडिताऊ हिंदी का विरोध किया और उनके प्रभाव से मुहावरेदार सरल हिंदी का प्रयोग पंडितों के भी समाज में होने लगा। उन्होंने अपनी ‘राम कहानी‘ के द्वारा अपील की कि हिंदी उसी प्रकार लिखी जाए जैसे उसे लोग घरों में बोलते हैं। जो विदेशी शब्द हिंदी में अपना एक रूप लेकर प्रचलित हो गए थे, उन्हें बदलने के पक्ष में वे न थे। 

वे नागरीप्रचारिणी ग्रंथमाला के संपादक और बाद में सभा के उपसभापति और सभापति भी रहे। वे कुछ चुनिन्दा व्यक्तियों में से एक थे जिन्होंने वैज्ञानिक विषयों पर हिंदी में सोचने और लिखने का प्रशंसनीय कार्य पिछली शताब्दी में ही बड़ी सफलता से किया। 

भाषा एवं साहित्य सम्बन्धी रचनाएँः-

 भाषा एवं साहित्य संबंधी उनकी रचनाएँ ये हैं-

 (1) भाषाबोधक प्रथम भाग,

 (2) भाषाबोधक द्वितीय भाग, 

 (3) हिंदी भाषा का व्याकरण (पूर्वार्ध) 

(4) तुलसी सुधाकर (तुलसी सतसई पर कुंडलियाँ, 

(5) महाराजा माणधीश श्री रुद्रसिंहकृत रामायण का संपादन, 

(6) जायसी की ‘पद्मावत‘ की टीका (ग्रियर्सन के साथ), 

(7) माधन पंचक, 

(8) राधाकृष्ण रासलीला, 

(9) तुलसीदास की विनय पत्रिका संस्कृतानुवाद, 

(10) तुलसीकृत रामायण बालकांड संस्कृतानुवाद, 

(11) रानी केतकी की कहानी (संपादन), 

(12) रामचरितमानस पत्रिका संपादन, 

(13) रामकहानी, 

(14) भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र की जन्मपत्री, आदि। 

सामाजिक एवं धार्मिक विचारः- 

द्विवेदी जी आधुनिक विचारधारा के उदार व्यक्ति थे। काशी के पंडितों में उस समय जो संकीर्णता व्याप्त थी उसका लेश मात्र भी उनमें न था। उन्होंने सिद्ध किया कि विदेश यात्रा से कोई धर्महानि नहीं। 30 अगस्त 1910 को काशी की एक विराट् सभा का सभापतित्व करते हुए उन्होंने ओजस्वी स्वर में अपील की कि विलायत गमन के कारण जिन्हें जातिच्युत किया गया है उन्हें पुनः जाति में ले लेना चाहिए। अस्पृश्यता, नीच-ऊँच एवं जातिगत भेदभाव से इन्हें बड़ी अरुचि थी। इनका निधन एक साधारण बीमारी से 28 नवम्बर 1910 ई. मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी सोमवार सं. 1967 को हुआ। 

 

Read More
Powered by Blogger.