Saturday 23 March 2024

आर्यभट्ट प्रथम का परिचय

Posted by Dr.Nishant Pareek

 आर्यभट्ट प्रथम 

आर्यभट का जन्मः 476 ई. में तथा मृत्युः 550 ई. में हुई थी - ये प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने 23 वर्ष की आयु में ‘आर्यभटीय‘ ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है। वे गुप्त काल के प्रसिद्ध ज्योतिष विद्वान थे। नालन्दा विश्वविद्यालय में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी। उनके इस ग्रंथ को चारों ओर से स्वीकृति मिली थी, जिससे प्रभावित होकर राजा बुद्धगुप्त ने आर्यभट को नालन्दा विश्वविद्यालय का प्रमुख बना दिया। 


प्राचीन भारत के इस महान वैज्ञानिक का सही नाम आर्यभट है न कि आर्यभट्ट। ‘भट‘ शब्द का वास्तविक अर्थ है- योद्धा, सैनिक। और ‘भट्ट‘ का परंपरागत अर्थ है ‘भाट‘ या पंडित (ब्राह्मण)। आर्यभट ब्राह्मण भले ही रहे हों, भाट कभी नहीं थे। वे सही अर्थ में एक वैज्ञानिक योद्धा‘ थे। उन्होंने वेदों और धर्मग्रंथों की गलत मान्यताओं का डटकर विरोध किया। आर्यभट का केवल एक ही ग्रंथ आर्यभटीय वर्तमान में उपलब्ध है। उनका दूसरा ग्रंथ ‘आर्यभट सिद्धांत‘ अभी तक प्राप्त नहीं हुआ। आर्यभट ने अपने नाम और स्थान के बारे में स्वयं जानकारी दी है- आर्यभट इस कुसुमपुर नगर में अतिशय पूजित ज्ञान का वर्णन करता है। आर्यभट ने यहाँ और अन्यत्र कहीं पर भी, यह नहीं कहा कि उनका जन्म कुसुमपुर में हुआ। उन्होंने केवल इतना बताया है कि अपने ज्ञान का प्रतिपादन (ग्रंथ की रचना) कुसुमपुर में कर रहे हैं। 

यह भी निश्चित नहीं कि आर्यभट का कुसुमपुर प्राचीन पाटलिपुत्र (अब पटना) ही हो। प्राचीन भारत में कुसुमपुर नाम के और भी कई नगर थे। कान्यकुब्ज (कन्नौज) को भी कुसुमपुर कहते थे। आर्यभट के दक्षिणात्य होने की ज्यादा संभावना है। उनके प्रमुख भाष्यकार भास्कर-प्रथम (629 ई.) ने उन्हें ‘अश्मक‘, उनके ‘आर्यभटीय‘ ग्रंथ को ‘आश्मकतंत्र‘ व ‘आश्मकीय‘ और उनके अनुयायियों को ‘आश्मकीया‘ कहा है। एक अन्य भाष्यकार नीलकंठ (1300 ई.) ने आर्यभट को ‘अश्मकजनपदजात‘ कहा है। गोदावरी नदी के तट के आसपास का प्रदेश ‘अश्मक जनपद‘ कहलाता था। ज्यादा संभावना यही है कि आर्यभट दक्षिण भारत में पैदा हुए थे और ज्ञानार्जन के लिए उत्तर भारत में कुसुमपुर पहुंचे थे। भारतः इतिहास, संस्कृति और विज्ञान 7 लेखक- गुणाकर मुले 7 पृष्ठ संख्या- 426 । 

आर्यभट की विश्व को देन - भारतीय इतिहास में जिसे ‘गुप्तकाल‘ या ‘स्वर्णयुग‘ के नाम से जाना जाता है, उस काल में भारत ने साहित्य, कला और विज्ञान क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की। उस समय मगध राज्य में स्थित नालन्दा विश्वविद्यालय अध्ययन का प्रमुख और प्रसिद्ध केंद्र था। देश विदेश से विद्यार्थी यहाँ शिक्षा प्राप्ति के लिए आते थे। वहाँ खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। एक प्राचीन मान्यता के अनुसार आर्यभट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे। 

आर्यभट का भारत और विश्व के ज्योतिष सिद्धान्त पर बहुत प्रभाव रहा है। भारत में सबसे अधिक प्रभाव केरल प्रदेश की ज्योतिष परम्परा पर रहा। आर्यभट भारतीय गणितज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन्होंने 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने आर्यभटीय ग्रंथ में लिखा है। कुछ 108 छंद बताते है । इसमें बताया है कि पृथ्वी गोल है और अपनी धुरी पर घूमती है, जिसके कारण रात और दिन होते हैं, इस सिद्धांत को सभी जानते हैं, पर इस वास्तविकता से बहुत लोग परिचित होंगे कि ‘निकोलस कॉपरनिकस‘ के बहुत पहले ही आर्यभट ने यह खोज कर ली थी कि पृथ्वी गोल है और उसकी परिधि अनुमानतः 24835 मील है। कोपर्निकस (1473 से 1543 ई.) ने जो खोज की थी। उसकी खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले कर चुके थे। गोलपाद में आर्यभट ने लिखा है नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब बहाव के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि स्थिर पेड़, पहाड़ आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिरनक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं। इस प्रकार आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। इन्होंने सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को समान माना है। इनके अनुसार एक कल्प में 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 72 महायुग (चतुर्युग) तथा एक चतुर्युग में सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग को समान माना है। 

आर्यभट के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832: 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है। 

ग्रहण की भ्रान्ति का निवारण:- राहु नामक ग्रह सूर्य और चन्द्रमा को निगल जाता है, जिससे सूर्य और चन्द्र ग्रहण होते हैं, हिन्दू धर्म की इस मान्यता को आर्यभट ने गलत सिद्ध किया। चंद्र ग्रहण में चन्द्रमा और सूर्य के बीच पृथ्वी के आ जाने से और उसकी छाया चंद्रमा पर पड़ने से चंद्रग्रहण‘ होता है, यह कारण उन्होंने खोज निकाला। आर्यभट को यह भी पता था कि चन्द्रमा और दूसरे ग्रह स्वयं प्रकाशमान नहीं हैं, बल्कि सूर्य की किरणें उसमें प्रतिबिंबित होती हैं और यह भी कि पृथ्वी तथा अन्य ग्रह सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार घूमते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि ‘चंद्रमा‘ काला है और वह सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होता है। आर्यभट ने यह सिद्ध किया कि वर्ष में 366 दिन नहीं वरन् 365.2951 दिन होते हैं। आर्यभट के ‘बॉलिस सिद्धांत‘ (सूर्य चंद्रमा ग्रहण के सिद्धांत) रोमक सिद्धांत‘ और सूर्य सिद्धांत विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। आर्यभट द्वारा निश्चित किया गया वर्षमान‘ ‘टॉलमी‘ की तुलना में अधिक वैज्ञानिक है। 

गणित शास्त्र में प्रमुख उपलब्धि:- गणित के इतिहास में भी आर्यभट का नाम बहुत सम्मान से लिया जाता है। खगोलशास्त्री होने के साथ साथ गणित के क्षेत्र में भी उनका अपूर्व योगदान है। बीजगणित का सबसे पुराना ग्रंथ आर्यभट का है। उन्होंने सबसे पहले ‘पाई‘ की कीमत निश्चित की और उन्होंने ही सबसे पहले ‘साइन‘ के कोष्टक‘ दिए। गणित के जटिल प्रश्नों को सरलता से हल करने के लिए उन्होंने ही समीकरण बनाये, जो आज भी सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित है । एक के बाद ग्यारह, शून्य जैसी संख्याओं को बोलने के लिए उन्होंने नई पद्धति का आविष्कार किया। बीजगणित में उन्होंने कई संशोधन संवर्धन किए और गणित ज्योतिष का ‘आर्य सिद्धांत‘ प्रचलित किया। 

वृद्धावस्था में आर्यभट ने ‘आर्यभट सिद्धांत‘ नामक ग्रंथ की रचना की। उनके ‘दशगीति सूत्र‘ ग्रंथों को प्रो. कर्ने ने ‘आर्यभटीय‘ नाम से प्रकाशित किया। आर्यभटीय संपूर्ण ग्रंथ है। इस ग्रंथ में रेखागणित, वर्गमूल, घनमूल, जैसी गणित की कई बातों के अलावा खगोल शास्त्र की गणनाएँ और अंतरिक्ष से संबंधित बातों का भी समावेश है। आज भी ‘हिन्दू पंचांग‘ तैयार करने में इस ग्रंथ की मदद ली जाती है। आर्यभट के बाद इसी नाम का एक अन्य खगोलशास्त्री हुआ जिसका नाम लघु आर्यभट‘ था। खगोल और गणितशास्त्र, इन दोनों क्षेत्र में उनके महत्त्वपूर्ण योगदान की वजह से ही भारत के प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट रखा गया था। 

शून्य का आविष्कारः- शून्य (0) की खोज आर्यभट ने की जिससे इनका नाम इतिहास में अमर हो गया । जीरो के बिना गणित करना बहुत मुश्किल है। आर्यभट ने ही सबसे पहले स्थानीय मान पद्धति की व्याख्या की, उन्होंने ही सबसे पहले उदाहरण के साथ स्पष्ट किया कि हमारी पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुए सूरज की परिक्रमा करती है और चंद्रमा पृथ्वी का उपग्रह है जो पृथ्वी की परिक्रमा करता है। उनका मानना था कि सभी ग्रहों की कक्षा दीर्घ वृत्ताकार है। उन्होने बताया कि चंद्रमा का प्रकाश सूरज का ही परावर्तन है। 

स्थान- मूल्य अंक प्रणाली, जिसे सर्वप्रथम तीसरी सदी की बख्शाली पाण्डुलिपि में देखा गया, उनके कार्यों में स्पष्ट रूप से विद्यमान थी। उन्होंने निश्चित रूप से प्रतीक का उपयोग नहीं किया, परन्तु फ्रांसीसी गणितज्ञ जार्ज इफ्रह की दलील है कि रिक्त गुणांक के साथ, दस की घात के लिए एक स्थान धारक के रूप में शून्य का ज्ञान आर्यभट के स्थान-मूल्य अंक प्रणाली में निहित था। 

हालांकि आर्यभट ने ब्राह्मी अंकों का प्रयोग नहीं किया था। वैदिक काल से चली आ रही संस्कृत परंपरा को जारी रखते हुए उन्होंने संख्या को निरूपित करने के लिए वर्णमाला के अक्षरों का उपयोग किया, मात्राओं (जैसे ज्याओं की तालिका) को स्मारक के रूप में व्यक्त करना। 

अपरिमेय और पाई:- आर्यभट ने पाई के सन्निकट पर कार्य किया और शायद उन्हें इस बात का ज्ञान हो गया था कि पाई इर्रेशनल है। आर्यभटीयम (गणितपाद) के दूसरे भाग वह लिखते हैं: 

चतुराधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्त्राणाम्। 

अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्य आसन्नौ वृत्तपरिणाहः।। 

100 में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर 62000 जोड़ें। इस नियम से 20000 परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है। 

(100$़ 4) × 8़$ 62000/20000 = 3.1416 

इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात (4़ $ 100) × 8 $़ 62000) / 20000 = 3.1416 है, जो पाँच महत्वपूर्ण आंकडों तक बिलकुल सटीक है। 

आर्यभट ने आसन्न (निकट पहुंचना), पिछले शब्द के ठीक पहले आने वाला, शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह न केवल एक सन्निकटन है, वरन यह कि मूल्य अतुलनीय (या इर्रेशनल) है। यदि यह सही है, तो यह एक अत्यन्त परिष्कृत दृष्टिकोण है, क्योंकि यूरोप में पाई की तर्कहीनता का सिद्धांत लैम्बर्ट द्वारा केवल 1761 में ही सिद्ध हो पाया था।  

आर्यभटीय के अरबी में अनुवाद के पश्चात् (पूर्व.820 ई.) बीजगणित पर अल ख्वारिज्मी की पुस्तक में इस सन्निकटन का उल्लेख किया गया था। 

क्षेत्रमिति और त्रिकोणमिति:- गणितपाद 6 में, आर्यभट ने त्रिकोण के क्षेत्रफल को इस प्रकार बताया है 

त्रिभुजस्य फलशरीरं समदलकोटि भुजार्धसंवर्गः।

 इसका अनुवाद यह है: किसी त्रिभुज का क्षेत्रफल, लम्ब के साथ भुजा के आधे के (गुणनफल के) परिणाम के बराबर होता है। 

 आर्यभट ने अपने काम में द्विज्या (साइन) के विषय में चर्चा की है और उसको नाम दिया है अर्ध-ज्या। इसका शाब्दिक अर्थ है अर्ध-तंत्री। लोगों ने इसे ज्या कहना शुरू कर दिया। जब अरबी लेखकों द्वारा उनके काम का संस्कृत से अरबी में अनुवाद किया गया, तो उन्होंने इसको जिबा कहा (ध्वन्यात्मक समानता के कारणवश)। चूंकि अरबी लेखन में स्वरों का इस्तेमाल बहुत कम होता है, इसलिए इसका और संक्षिप्त नाम पड़ गया ज्ब। जब बाद के लेखकों को ये समझ में आया कि ज्ब जिबा का ही संक्षिप्त रूप है, तो उन्होंने वापिस जिबा का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। जिबा का अर्थ है खोह या खाई (अरबी भाषा में जिबा का एक तकनीकी शब्द के आलावा कोई अर्थ नहीं है)। बाद में बारहवीं सदी में जब क्रीमोना के घेरार्दो ने इन लेखनों का अरबी से लैटिन भाषा में अनुवाद किया, तब उन्होंने अरबी जिबा की जगह उसके लेटिन समकक्ष साइनस को डाल दिया, जिसका शाब्दिक अर्थ खोह या खाई ही है। और उसके बाद अंग्रेजी में, साइनस ही साइन बन गया। 

अनिश्चित समीकरण को स्पष्ट करना:- प्राचीन काल से भारतीय गणितज्ञों की एक समस्या रही है उन समीकरणों के पूर्णाक हल ज्ञात करना जो ंग ़ इ = बल स्वरूप में होती है, एक विषय जिसे वर्तमान समय में डायोफैंटाइन समीकरण के रूप में जाना जाता है। यहाँ आर्यभटीय पर भास्कर की व्याख्या से एक उदाहरण देते हैंः 

वह संख्या ज्ञात करो जिसे 8 से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में 5 बचता है, 9 से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में 4 बचता है, 7 से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में 1 बचता है। 

   लिए सबसे छोटा मान 85 निकलता है। सामान्य तौर पर, डायोफैंटाइन समीकरण कठिनता के लिए बदनाम थे। इस तरह के समीकरणों की व्यापक रूप से चर्चा प्राचीन वैदिक ग्रन्थ सुल्ब सूत्र में है, जिसके अधिक प्राचीन भाग 800 ई.पू. तक पुराने हो सकते हैं। ऐसी समस्याओं के हल के लिए आर्यभट की विधि को कुट्टक विधि कहा गया है।   कुट्टक का अर्थ है पीसना, अर्थात छोटे छोटे टुकड़ों में तोड़ना और इस विधि में छोटी संख्याओं के रूप में मूल खंडों को लिखने के लिए एक पुनरावर्ती कलनविधि का समावेश था। आज यह कलनविधि, 621 ईसवी पश्चात में भास्कर की व्याख्या के अनुसार, पहले क्रम के डायोफैंटाइन समीकरणों को हल करने के लिए मानक पद्धति है, और इसे अक्सर आर्यभट एल्गोरिद्म के रूप में जाना जाता है। डायोफैंटाइन समीकरणों का इस्तेमाल क्रिप्टोलौजी में होता है और आरएसए सम्मलेन, 2006 ने अपना ध्यान कुट्टक विधि और सुल्वसूत्र के पूर्व के कार्यों पर केन्द्रित किया। 

खगोल विज्ञान:- आर्यभट की खगोल विज्ञान प्रणाली औदायक प्रणाली कहलाती थी, (श्रीलंका, भूमध्य रेखा पर उदय, भोर होने से दिनों की शुरुआत होती थी।) खगोल विज्ञान पर उनके बाद के लेख, जो सतही तौर पर एक द्वितीय मॉडल (अर्ध-रात्रिका, मध्यरात्रि), प्रस्तावित करते हैं, खो गए हैं, परन्तु इन्हें आंशिक रूप से ब्रह्मगुप्त के खण्डखाद्यक में हुई चर्चाओं से पुनः निर्मित किया जा सकता है। कुछ ग्रंथों में वे पृथ्वी के घूर्णन को आकाश की आभासी गति का कारण बताते हैं। 

सौर प्रणाली की गतियाँ - प्रतीत होता है कि आर्यभट यह मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी की परिक्रमा करती है। यह श्रीलंका को सन्दर्भित एक कथन से ज्ञात होता है, जो तारों की गति का पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न आपेक्षिक गति के रूप में वर्णन करता है। 

अनुलोम-गतिस् नौ-स्थस् पश्यति अचलम् विलोम-गम् यद्-वत् । 

अचलानि भानि तद्-वत् सम-पश्चिम-गानि लंकायाम् ॥ 

                                            (आर्यभटीय गोलपाद 9) 

जैसे एक नाव में बैठा आदमी आगे बढ़ते हुए स्थिर वस्तुओं को पीछे की दिशा में जाते देखता है, बिल्कुल उसी तरह श्रीलंका में (अर्थात भूमध्य रेखा पर) लोगों द्वारा स्थिर तारों को ठीक पश्चिम में जाते हुए देखा जाता है। 

अगला छंद तारों और ग्रहों की गति को वास्तविक गति के रूप में वर्णित करता हैः 

 उदय-अस्तमय-निमित्तम् नित्यम् प्रवहेण वायुना क्षिप्तस्। 

लंका-सम-पश्चिम-गस् भ-पंजरस् स-ग्रहस् भ्रमति।। 

                                          (आर्यभटीय गोलपाद 10) 

उनके उदय और अस्त होने का कारण इस तथ्य की वजह से है कि प्रोवेक्टर हवा द्वारा संचालित ग्रह और एस्टेरिसस चक्र श्रीलंका में निरंतर पश्चिम की तरफ चलायमान रहते हैं। 

लंका (श्रीलंका) यहाँ भूमध्य रेखा पर एक सन्दर्भ बिन्दु है, जिसे खगोलीय गणना के लिए मध्याह्न रेखा के सन्दर्भ में समान मान के रूप में ले लिया गया था। 

आर्यभट ने सौर मंडल के एक भूकेंद्रीय मॉडल का वर्णन किया है, जिसमें सूर्य और चन्द्रमा ग्रहचक्र द्वारा गति करते हैं, जो कि पृथ्वी की परिक्रमा करते है। इस मॉडल में, प्रत्येक ग्रहों की गति दो ग्रहचक्रों द्वारा नियंत्रित है, एक छोटा मंद (धीमा) ग्रहचक्र और एक बड़ा शीघ्र (तेज) ग्रहचक्र। पृथ्वी से दूरी के अनुसार ग्रहों का क्रम इस प्रकार है: चंद्रमा, बुध, शुक्र, सूर्य, मंगल, बृहस्पति, शनि और नक्षत्र। 

ग्रहों की स्थिति और अवधि की गणना समान रूप से गति करते हुए बिन्दुओं से सापेक्ष के रूप में की गयी थी, बुध और शुक्र जो कि पृथ्वी के चारों ओर औसत सूर्य के समान गति से घूमते हैं और मंगल, बृहस्पति और शनि जो कि राशिचक्र में पृथ्वी के चारों ओर अपनी विशिष्ट गति से गति करते हैं। खगोल विज्ञान के विद्वानों के अनुसार यह द्वि ग्रहचक्र वाला मॉडल टॉलेमी के पहले के ग्रीक खगोल विज्ञान के तत्वों को प्रदर्शित करता है। आर्यभट के मॉडल के एक अन्य तत्व सिघ्रोका, सूर्य के संबंध में बुनियादी ग्रहों की अवधि को कुछ इतिहासकारों द्वारा एक अंतर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल के चिन्ह के रूप में देखा जाता है। 

ग्रहण के विषय में सही तथ्य:- उन्होंने कहा कि चंद्रमा और ग्रह, सूर्य के परावर्तित प्रकाश से चमकते हैं। मौजूदा ब्रह्माण्डविज्ञान से अलग, जिसमें ग्रहणों का कारक छद्म ग्रह निस्पंद बिन्दु राहू और केतु थे, उन्होंने ग्रहणों को पृथ्वी द्वारा डाली जाने वाली और इस पर गिरने वाली छाया से सम्बद्ध बताया। इस प्रकार चंद्रगहण तब होता है जब चाँद पृथ्वी की छाया में प्रवेश करता है (छंद गोला. 37) और पृथ्वी की इस छाया के आकार और विस्तार की विस्तार से चर्चा की (छंद गोला. 38-48) और फिर ग्रहण के दौरान ग्रहण वाले भाग का आकार और इसकी गणना बाद के भारतीय खगोलविदों ने इन गणनाओं में सुधार किया, लेकिन आर्यभट की विधियों ने प्रमुख सार प्रदान किया था। यह गणनात्मक मिसाल इतनी सटीक थी कि 18 वीं सदी के वैज्ञानिक गुइलौम ले जेंटिल ने पांडिचेरी की अपनी यात्रा के दौरान, पाया कि भारतीयों की गणना के अनुसार 1765-08-30 के चंद्रग्रहण की अवधि 41 सेकंड कम थी, जबकि उसके चार्ट (द्वारा, टोबिअस मेयर. 1752) 68 सेकंड अधिक दर्शाते थे। 

आर्यभट की गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि 39,968.0582 किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान 40,075.0167 किलोमीटर से केवल 0.2 प्रतिशत कम है। यह सन्निकटन यूनानी गणितज्ञ, एराटोसथेनस की संगणना के ऊपर एक उल्लेखनीय सुधार था, (200 ई.) जिनकी गणना का आधुनिक इकाइयों में तो पता नहीं है, परन्तु उनके अनुमान में लगभग 5-10 प्रतिशत की एक त्रुटि अवश्य थीं। 

 नक्षत्रों के आवर्तकालः- समय की आधुनिक अंग्रेजी इकाइयों में जोड़ा जाये तो, आर्यभट की गणना के अनुसार पृथ्वी का आवर्तकाल (स्थिर तारों के सन्दर्भ में पृथ्वी की अवधि) 23 घंटे 56 मिनट और 4.1 सेकंड थी, आधुनिक समय 23ः56ः4.091 है। इसी प्रकार, उनके हिसाब से पृथ्वी के वर्ष की अवधि 365 दिन 6 घंटे 12 मिनट 30 सेकंड, आधुनिक समय की गणना के अनुसार इसमें 3 मिनट 20 सेकंड की त्रुटि है। नक्षत्र समय की धारणा उस समय की अधिकतर अन्य खगोलीय प्रणालियों में ज्ञात थी, परन्तु संभवतः यह संगणना उस समय के हिसाब से सर्वाधिक शुद्ध थी। 

सूर्य केंद्रीयता - आर्यभट का दावा था कि पृथ्वी अपनी ही धुरी पर घूमती है और उनके ग्रह सम्बन्धी ग्रहचक्र मॉडलों के कुछ तत्व उसी गति से घूमते हैं, जिस गति से सूर्य के चारों ओर ग्रह घूमते हैं। इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यभट की संगणनाएँ अन्तर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल पर आधारित थीं, जिसमें ग्रह सूर्य का चक्कर लगाते हैं एक समीक्षा में इस सूर्य केन्द्रित व्याख्या का विस्तृत खंडन है। यह समीक्षा बी.एल. वान डर वार्डेन की एक किताब का वर्णन इस प्रकार करती है “यह किताब भारतीय ग्रह सिद्धांत के विषय में अज्ञात है और यह आर्यभट के प्रत्येक शब्द का सीधे तौर पर विरोध करता है,‘‘ हालाँकि कुछ लोग यह स्वीकार करते हैं कि आर्यभट की प्रणाली पूर्व के एक सूर्य केन्द्रित मॉडल से उपजी थी जिसका ज्ञान उनको नहीं था। यह भी दावा किया गया है कि वे ग्रहों के मार्ग को अंडाकार मानते थे, हालाँकि इसके लिए कोई भी प्राथमिक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया है। हालाँकि सामोस के एरिस्ताचुस (तीसरी शताब्दी ई.पू.) और कभी कभार पोन्टस के हेराक्लिङ्स (चैथी शताब्दी ई.पू ) को सूर्य केन्द्रित सिद्धांत की जानकारी होने का श्रेय दिया जाता है, प्राचीन भारत में ज्ञात ग्रीक खगोलशास्त्र (पौलिसा सिद्धांत - संभवतः अलेक्जन्द्रिया के किसी पॉल द्वारा) सूर्य केन्द्रित सिद्धांत के विषय में कोई चर्चा नहीं करता है। 

आर्यभटीय: 

आर्यभटीय नामक ग्रन्थ की रचना आर्यभट प्रथम (476-550) ने की थी। यह संस्कृत भाषा में आर्या छंद में काव्यरूप में रचित गणित और खगोल शास्त्र का अपूर्वग्रंथ है। इसकी रचनापद्धति बहुत ही वैज्ञानिक और भाषा बहुत ही संक्षिप्त है। इसमें चार अध्यायों में 123 श्लोक हैं। 

इसके चार अध्याय इस प्रकार हैं 

1 दश-गीतिका-पाद 

2. गणित-पादखगोलीय अचर   तथा ज्या सारणी   गणनाओं के लिये आवश्यक गणित 

3 काल-क्रिया-पाद - समय-विभाजन तथा ग्रहों की स्थिति की गणना के लिये नियम 

4 गोल-पाद -त्रिकोनमिति समस्याओं के हल के लिये नियम, ग्रहण की गणना 


गीतिका पादः- गीतिकापाद सबसे छोटा, केवल 13 श्लोकों का है, परंतु इसमें बहुत सी सामग्री भर दी गई है। इसके लिए इन्होंने अक्षरों द्वारा संक्षेप में संख्या लिखने की स्वनिर्मित एक अनोखी रीति का व्यवहार किया है, जिसमें व्यजंनो से सरल संख्याएं और स्वरों से शून्य की गिनती सूचित की जाती थी। 

उदाहरणतः ख्युघृ = 43,20,000 में 2 के लिए ख् लिखा गया है और 30 के लिए य्ा्। दोनों अक्षर मिलाकर लिखे गए हैं और उनमें उ की मात्रा लगी है, जो 10,000 के समान है। इसलिए ख्यु का अर्थ हुआ 3,20,000, घृ के घ् का अर्थ है 4 और ऋ (मात्रा) का 10,00,000, इसलिए घृ का अर्थ हुआ 40,00,000. इस तरह ख्युघृ का उपर्युक्त मान (43,20,000) हुआ। 

 संख्या लिखने की इस रीति में सबसे बड़ा दोष यह है कि यदि अक्षरों में थोड़ा सा भी हेर फेर हो जाय तो बड़ी भारी भूल हो सकती है। दूसरा दोष यह है कि ल् में ऋ की मात्रा लगाई जाय तो इसका रूप वही होता है जो लृ स्वर का, परंतु दोनों के अर्थों में बड़ा अंतर पड़ता है। इन दोषों के होते हुए भी इस प्रणाली के लिए आर्यभट की प्रतिभा की प्रशंसा करनी ही पड़ती है। इसमें उन्होंने थोड़े से श्लोकों में बहुत सी बातें लिख डाली हैं। सचमुच, गागर में सागर भर दिया है। 

आर्यभटीय के प्रथम श्लोक में ब्रह्म और परब्रह्म की वंदना है एवं दूसरे में संख्याओं को अक्षरों से सूचित करने का तरीका। इन दो श्लोकों में कोई क्रमसंख्या नहीं है, क्योंकि ये प्रस्तावना के रूप में हैं। इसके बाद के श्लोक की क्रमसंख्या 1 है जिसमें सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, शनि, गुरु, मंगल, शुक्र और बुध के महायुगीय भगणों की संख्याएं बताई गई हैं। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि आर्यभट ने एक महायुग में पृथ्वी के घूर्णन की संख्या भी दी है, क्योंकि उन्होंने पृथ्वी का दैनिक घूर्णन माना है। इस बात के लिए परवर्ती आचार्य ब्रह्मगुप्त ने इनकी निंदा की है। अगले श्लोक में ग्रहों के उच्च और पात के महायुगीय भगणों की संख्या बताई गई है। तीसरे श्लोक में बताया गया है कि ब्रह्मा के एक दिन (अर्थात एक कल्प) में कितने मन्वंतर और युग होते हैं और वर्तमान कल्प के आरंभ से लेकर महाभारत युद्ध की समाप्तिवाले दिन तक कितने युग और युगपाद बीत चुके थे। आगे के सात श्लोकों में राशि, अंश, कला आदि का संबंध, आकाशकक्षा का विस्तार, पृथ्वी के व्यास तथा सूर्य, चंद्रमा और ग्रहों के बिंबों के व्यास के परिमाण, ग्रहों की क्रांति और विक्षेप, उनके पातों और मंदोच्चों के स्थान, उनकी मंदपरिधियों और शीघ्रपरिधियों के परिमाण तथा 3 अंश 45 कलाओं के अंतर पर ज्याखंडों के मानों की सारणी है, जिसे साइन टेबल कहते है। अंतिम श्लोक में पहले कही हुई बातों के जानने का फल बताया गया है। इस प्रकार प्रतीत होता है कि आर्यभट ने अपनी नवीन संख्या-लेखन-पद्धति से ज्योतिष और त्रिकोणमिति की कितनी ही बातें 13 श्लोकों में भर दी हैं। 


गणितपाद - गणितपाद में 33 श्लोक हैं, जिनमें आर्यभट ने अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित संबंधी कुछ सूत्रों का समावेश किया है। पहले श्लोक में अपना नाम बताया है और लिखा है कि जिस ग्रंथ पर उनका ग्रंथ आधारित है वह (गुप्तसाम्राज्य की राजधानी) कुसुमपुर में मान्य था। दूसरे श्लोक में संख्या लिखने की दशमलव पद्धति की इकाइयों के नाम हैं। इसके आगे के श्लोकों में वर्गक्षेत्र, घन, वर्गमूल, घनमूल, त्रिभुज का क्षेत्रफल, त्रिभुजाकार शंकु का घनफल, वृत्त का क्षेत्रफल, गोले का घनफल, समलंब चतुर्भुज क्षेत्र के कर्णो के संपात से समांतर भुजाओं की दूरी और क्षेत्रफल तथा सब प्रकार के क्षेत्रों की मध्यम लंबाई और चैड़ाई जानकर क्षेत्रफल बताने के साधारण नियम दिए गए हैं। एक जगह बताया गया है कि परिधि के छठे भाग को ज्या उसकी त्रिज्या के समान होती है। श्लोक में बताया गया है कि यदि वृत्त का व्यास 20,000 हो तो उसकी परिधि 62,832 होती है। इससे परिधि और व्यास का संबंध चैथे दशमलव स्थान तक शुद्ध आ जाता है। दो श्लोकों में ज्याखंडों के जानने की विधि बताई गई है, जिससे ज्ञात होता है कि ज्याखंडों की सारणी (टेबुल ऑव साइनडिफरेंसेज) आर्यभट ने कैसे बनाई थी। आगे वृत्त, त्रिभुज और चतुर्भुज खींचने की रीति, समतल धरातल के परखने की रीति, ऊर्धवाधर के परखने की रीत, शंकु और छाया से छायाकर्ण जानने की रीति, किसी ऊँचे स्थान पर रखे हुए दीपक के प्रकाश के कारण बनी हुई शंकु की छाया की लंबाई जानने की रीति, एक ही रेखा पर स्थित दीपक और दो शंकुओं के संबंध के प्रश्न की गणना करने की रीति, समकोण त्रिभुज के कर्ण और अन्य दो भुजाओं के वर्गो का संबंध (जिसे पाइथागोरस का नियम कहते हैं, परंतु जो शुल्वसूत्र में पाइथागोरस से बहुत पहले लिखा गया था), वृत्त की जीवा और शरों का संबंध, दो श्लोकों में श्रेणी गणित के कई नियम, एक श्लोक में एक-एक बढती हुई संख्याओं के वर्गों और घनों का योगफल जानने का नियम, ब्याज की दर जानने का एक नियम जो वर्गसमीकरण का उदाहरण है, त्रैराशिक का नियम, भिन्नों को एकहर करने की रीति, बीजगणित के सरल समीकरण और एक विशेष प्रकार के युगपत् समीकरणों पर आधारित प्रश्नों को हल करने के नियम, दो ग्रहों का युतिकाल जानने का नियम और कुट्टक नियम (सोल्यूशन ऑव इनडिटर्मिनेट इक्केशन ऑव द फस्ट डिग्री) बताए गए हैं। 

काल क्रियापादः- इस अध्याय में 25 श्लोक हैं और यह कालविभाग और काल के आधार पर की गई ज्योतिष संबंधी गणना से संबंध रखता है। पहले दो श्लोकों में काल और कोण की इकाइयों का संबंध बताया गया है। आगे के छह श्लोकों में योग, व्यतीपात, केंद्रभगण और बार्हस्पत्य वर्षों की परिभाषा दी गई है तथा अनेक प्रकार के मासों, वर्षों और युगों का संबंध बताया गया है। नवें श्लोक में बताया गया है कि युग का प्रथमार्ध उत्सर्पिणी और उत्तरार्ध अवसर्पिणी काल है और इनका विचार चंद्रोच्च से किया जाता है। परंतु इसका अर्थ समझ में नहीं आता। किसी टीकाकार ने इसकी संतोष जनक व्याख्या नहीं की है। 10वें श्लोक की चर्चा पहले ही आ चुकी है, जिसमें आर्यभट ने अपने जन्म का समय बताया है। इसके आगे बताया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से युग, वर्ष, मास और दिवस की गणना आरंभ होती है। आगे के 20 श्लोकों में ग्रहों की मध्यम और स्पष्ट गति संबंधी नियम हैं। 

गोलपाद:- यह आर्यभटीय का अंतिम अध्याय है। इसमें 50 श्लोक हैं। पहले श्लोक से प्रकट होता है कि क्रांतिवृत्त के जिस बिंदु को आर्यभट ने मेषादि माना है वह वसंत-संपात-बिंदु था, क्योंकि वह कहते हैं, मेष के आदि से कन्या के अंत तक अपमंडल (क्रांतिवृत्त) उत्तर की ओर हटा रहता है और तुला के आदि से मीन के अंत तक दक्षिण की ओर। आगे के दो श्लोकों में बताया गया है कि ग्रहों के पात और पृथ्वी की छाया का भ्रमण क्रांतिवृत्त पर होता है। चैथे श्लोक में बताया है कि सूर्य से कितने अंतर पर चंद्रमा, मंगल, बुध आदि दृश्य होते हैं। पाँचवाँ श्लोक बताता है कि पृथ्वी, ग्रहों और नक्षत्रों का आधा गोला अपनी ही छाया से प्रकाशित है और आधा सूर्य के सामने होने से प्रकाशित है। नक्षत्रों के संबंध में यह बात ठीक नहीं है। श्लोक छह सात में पृथ्वी की स्थिति, बनावट और आकार का निर्देश किया गया है। आठवें श्लोक में यह विचित्र बात बताई गई है कि ब्रह्मा के दिन में पृथ्वी की त्रिज्या एक योजन बढ.जाती है और ब्रह्मा की रात्रि में एक योजन घट जाती है। श्लोक नौ में बताया गया है कि जैसे चलती हुई नाव पर बैठा हुआ मनुष्य किनारे के स्थिर पेड़ों को विपरीत दिशा में चलता हुआ देखता है वैसे ही लंका (पृथ्वी की विषुवत् देखा पर एक कल्पित स्थान) से स्थिर तारे पश्चिम की ओर घूमते हुए दिखाई पड़ते हैं। परंतु 10वें श्लोक में बताया गया है कि ऐसा प्रतीत होता है, मानो उदय और अस्त करने के बहाने ग्रहयुक्त संपूर्ण नक्षत्रचक्र, प्रवह वायु से प्रेरित होकर, पश्चिम की ओर चल रहा हो। श्लोक 11 में सुमेरु पर्वत (उत्तरी ध्रुव पर स्थित पर्वत) का आकार और श्लोक 12 में सुमेरु और बड़वामुख (दक्षिण धु्रव) की स्थिति बताई गई है। श्लोक 13 में विषुवत् रेखा पर 90-90 अंश की दूरी पर स्थित चार नगरियों का वर्णन है। श्लोक 14 में लंका से उज्जैन का अंतर बताया गया है। श्लोक 15 में बताया गया है कि भूगोल की मोटाई के कारण खगोल आधे भाग से कितना कम दिखाई पड़ता है। 16वें श्लोक में बताया गया है कि देवताओं और असुरों को खगोल कैसे घूमता हुआ दिखाई पड़ता है। श्लोक 17 में देवताओं, असुरों, पितरों और मनुष्यों के दिन रात का परिमाण है। श्लोक 18 से 23 तक खगोल का वर्णन है। श्लोक 24-33 में त्रिप्रश्नाधिकार के प्रधान सूत्रों का कथन है, जिनसे लग्न, काल आदि जाने जाते हैं। श्लोक 34 में लंबन, 35 में आक्षनदृक्कर्म और 36 में आयनदृक्कर्म का वर्णन है। श्लोक 37 से 47 तक सूर्य और चंद्रमा के ग्रहणों की गणना करने की रीति है। श्लोक 48 में बताया गया है कि पृथ्वी और सूर्य के योग से सूर्य के, सूर्य और चंद्रमा के योग से चंद्रमा तथा ग्रहों के योग से सब ग्रहों के मूलांक जाने गए हैं। श्लोक 49 और 50 में आर्यभटीय की प्रशंसा की गई है। 

आर्यभटीय की ख्याति:- आर्यभटीय का प्रचार दक्षिण भारत में विशेष रूप से हुआ। इस ग्रंथ का पठन-पाठन 16वीं 17वीं शताब्दी तक होता रहा, जो इस पर लिखी गई टीकाओं से स्पष्ट है। इस ग्रन्थ की रचना के बाद से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक इसके लगभग 12 भाष्य लिखे गये। लगभग सभी प्रमुख गणितज्ञों ने इस पर भाष्य लिखे, जिसमें भास्कर प्रथम का आर्यभटतंत्रभाष्य (या आर्यभटीयभाष्य) और ब्रह्मगुप्त का भाष्य सम्मिलित है। दक्षिण भारत में इसी के आधार पर बने हुए पंचांग आज भी प्रचलित हैं। खेद है, कि हिंदी में आर्यभटीय की कोई अच्छी टीका नहीं है। अंग्रेजी में इसके दो अनुवाद हैं, एक श्री प्रबोधचंद्र सेनगुप्त का और दूसरा श्री डब्ल्यू.ई. क्लार्क का। पहला 1927 ई. में कलकत्ता और दूसरा 1930 ई. में शिकागों से प्रकाशित हुआ था। 

आर्यभट के दूसरे ग्रंथ का प्रचार उत्तर भारत में विशेष रूप से हुआ, जो इस बात से स्पष्ट है कि आर्यभट के तीव्र आलोचक ब्रह्मगुप्त को वृद्धावस्था में अपने ग्रंथ खंडखाद्यक में आर्यभट के ग्रंथ का अनुकरण करना पड़ा। परंतु अब खंडखाद्यक के व्यापक प्रचार के सामने आर्यभट के ग्रंथ का पठन-पाठन कम हो गया और धीरे-धीरे लुप्त हो गया। 

याकूब इब्न तारीक की पुस्तक तरकीब अल-अफ्लाक में धरती का व्यास 2100 फारसख दिया गया है जो आर्यभट द्वारा दिए गये मान (1050 योजन) से लिया गया लगता है। अल - ख्वारिज्मी ने 820 ई के आसपास आर्यभटीय का अरबी में अनुवाद किया। 

विरासत 

भारतीय खगोलीय परंपरा में आर्यभट के कार्य का बड़ा प्रभाव था और अनुवाद के माध्यम से इसने कई पड़ोसी संस्कृतियों को प्रभावित किया। इस्लामी स्वर्ण युग (ई. 820), के दौरान इसका अरबी अनुवाद विशेष प्रभावशाली था। उनके कुछ परिणामों को अल-ख्वारिज्मी द्वारा उद्धृत किया गया है और 10 वीं सदी के अरबी विद्वान अल बेरुनी द्वारा उन्हें सन्दर्भित किया गया गया है, जिन्होंने अपने वर्णन में लिखा है कि आर्यभट के अनुयायी मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। 

साइन (ज्या), कोसाइन (कोज्या) के साथ ही, वरसाइन (उक्रमाज्या) की उनकी परिभाषा, और विलोम साइन (उत्क्रम ज्या), ने त्रिकोणमिति की उत्पत्ति को प्रभावित किया। वे पहले व्यक्ति भी थे जिन्होंने साइन और वरसाइन (1 - कोसएक्स) तालिकाओं को, 0 डिग्री से 90 डिग्री तक 3.75 ए अंतरालों में, 4 दशमलव स्थानों की सूक्ष्मता तक निर्मित किया। 

वास्तव में साइन और कोसाइन के आधुनिक नाम आर्यभट द्वारा प्रचलित ज्या और कोज्या शब्दों के गलत (अपभ्रंश) उच्चारण हैं। उन्हें अरबी में जिबा और कोजिबा के रूप में उच्चारित किया गया था। फिर एक अरबी ज्यामिति पाठ के लैटिन में अनुवाद के दौरान क्रेमोना के जेरार्ड द्वारा इनकी गलत व्याख्या की गयी उन्होंने जिबा के लिए अरबी शब्द ‘जेब‘ लिया जिसका अर्थ है पोशाक में एक तह, (एल साइनस (सी.1150).24) 

आर्यभट की खगोलीय गणना की विधियां भी बहुत प्रभावशाली थी। त्रिकोणमितिक तालिकाओं के साथ, वे इस्लामी दुनिया में व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाती थी। और अनेक अरबी खगोलीय तालिकाओं (जिज) की गणना के लिए इस्तेमाल की जाती थी। विशेष रूप से, अरबी स्पेन वैज्ञानिक अल-झर्काली (11वीं सदी) के कार्यों में पाई जाने वाली खगोलीय तालिकाओं का लैटिन में तोलेडो की तालिकाओं (12वीं सदी) के रूप में अनुवाद किया गया और ये यूरोप में सदियों तक सर्वाधिक सूक्ष्म पंचांग के रूप में उपयोग में रही। 

आर्यभट और उनके अनुयायियों द्वारा की गयी तिथि गणना पंचांग अथवा हिंदू तिथिपत्र निर्धारण के व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए भारत में निरंतर इस्तेमाल में रही हैं, इन्हें इस्लामी दुनिया को भी प्रेषित किया गया, जहाँ इनसे जलाली तिथिपत्र का आधार तैयार किया गया जिसे 1073 में उमर खय्याम सहित कुछ खगोलविदों ने प्रस्तुत किया, जिसके संस्करण (1925 में संशोधित) आज ईरान और अफगानिस्तान में राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में प्रयोग में हैं। जलाली तिथिपत्र अपनी तिथियों का आंकलन वास्तविक सौर पारगमन के आधार पर करता है, जैसा आर्यभट (और प्रारंभिक सिद्धांत कैलेंडर में था).इस प्रकार के तिथि पत्र में तिथियों की गणना के लिए एक पंचांग की आवश्यकता होती है। यद्यपि तिथियों की गणना करना कठिन था, पर जलाली तिथिपत्र में ग्रेगोरी तिथिपत्र से कम मौसमी त्रुटियां थी। 

भारत के प्रथम उपग्रह आर्यभट, को उनका नाम दिया गया। आर्यभट का नाम उनके सम्मान स्वरुप रखा गया है। खगोल विज्ञान, खगोल भौतिकी और वायुमंडलीय विज्ञान में अनुसंधान के लिए भारत में नैनीताल के निकट एक संस्थान का नाम आर्यभट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान संस्थान (एआरआईएस) रखा गया है। 

अंतस्कूल आर्यभट गणित प्रतियोगिता उनके नाम पर है। बैसिलस आर्यभट, इसरो के वैज्ञानिकों द्वारा 2009 में खोजी गयी एक बैक्टीरिया की प्रजाति का नाम उनके नाम पर रखा गया है। 

प्रमुख तथ्य 

‘आर्यभटीय‘ नामक ग्रंथ की रचना करने वाले आर्यभट अपने समय के सबसे बड़े गणितज्ञ थे। आर्यभट ने दशमलव प्रणाली का विकास किया। आर्यभट के प्रयासों के द्वारा ही खगोल विज्ञान को गणित से अलग किया जा सका। 

आर्यभट ऐसे प्रथम नक्षत्र वैज्ञानिक थे, जिन्होंने यह बताया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती हुई सूर्य के चक्कर लगाती है। इन्होंने सूर्यग्रहण एवं चन्द्रग्रहण होने के वास्तविक कारण पर प्रकाश डाला। 

आर्यभट ने सूर्य सिद्धान्त लिखा। आर्यभट के सिद्धान्त पर ‘भास्कर प्रथम‘ ने टीका लिखी। भास्कर के तीन अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है- ‘महाभास्कर्य‘, ‘लघुभास्कर्य‘ एवं ‘भाष्य‘। 

ब्रह्मगुप्त ने ‘ब्रह्म-सिद्धान्त‘ की रचना कर बताया कि प्रकृति के नियम के अनुसार समस्त वस्तुएं पृथ्वी पर गिरती हैं, क्योंकि पृथ्वी अपने स्वभाव से ही सभी वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। यह न्यूटन के सिद्धान्त के पूर्व की गयी कल्पना है। 

आर्यभट, वराहमिहिर एवं ब्रह्मगुप्त को संसार के सर्वप्रथम नक्षत्र-वैज्ञानिक और गणितज्ञ कहा गया है। 



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Friday 30 December 2022

Shani ka kumbh rashi me gochar / शनि का कुम्भ राशि में गोचर

Posted by Dr.Nishant Pareek

शनि का कुम्भ राशि में गोचर आपके लिए कैसा रहेगा , जानिए इस लेख में 


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Shani ka kumbh rashi me gochar 

मेष राशि 

  जन्म चंद्रमा से शनि का एकादश भाव से गोचर (17 जनवरी 2023 से 29 मार्च 2025 )  इस अवधि में शनि चन्द्रमा से आपके ग्यारहवें भाव में होते हुए गोचर करेगा । यह आपके लिए शुभ समय है । वित्तीय रुप से समय बहुत अच्छा है । चाहे आप व्यापार में हों या किसी व्यवसाय में, आपको अप्रत्याशित लाभ होने की संभावना है । यह धन लाभ आपके लिए आनन्द व और अधिक लाभ प्राप्त करने के अवसर लेकर आएगा । आपके हर प्रकार के प्रयास सफल होंगे व परियोजना के मनवांछित परिणाम प्राप्त होंगे । इस समय विशेष में जायदाद प्राप्त होने की भी संभावना है । जो व्यक्ति गृह निर्माण सामग्री, कोयला, चमड़े आदि का व्यवसाय करते हैं, वे अपने - अपने व्यापार में और भी अधिक मुनाफे की आशा रख सकते हैं । यदि आप सेवारत हैं तो पदोन्नति की संभावना है । उच्च शिक्षा हेतु यह समय शुभ है । यह आपके सोच को और भी उद्यमशील बनाने का समय है ।  सामाजिक जीवन भी संतोष प्रद रहेगा । समाज में आपका मान, स्तर व प्रतिष्ठा बढ़ने की संभावना है । आपमें से कुछ को समाज द्वारा विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित किया जा सकता है ।  यदि आप विवाहेच्छुक हैं तो आपको मनपसन्द साथी मिल सकता है व विवाह हो सकता है । यदि आप एकल हैं तो विपरीत लिंग वाले मनोहारी व्यक्ति का साथ मिल सकता है । आपके मित्र आपके सहायक होंगे व नए मित्र बन सकते हैं । आपके मालिक व सहयोगियों का आपके प्रति व्यवहार सकारात्मक होगा । पत्नी / पति व बच्चे सुख प्राप्ति के स्त्रोत होंगे । आप परिवार की मनोकामना पूर्ण करने वाली वस्तुएँ प्राप्त करेंगे । स्वास्थ्य अच्छा रहेगा ।

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वृष राशि  

 जन्म चंद्रमा से शनि का दशम भाव से गोचर (17 जनवरी 2023 से 29 मार्च 2025 ) इस अवधि में शनि चन्द्रमा से आपके दसवें भाव में होते हुए गोचर करेगा । यह स्थिति कष्ट व मानसिक संताप की सूचक है । इससे आपको काम - धंधे व जीवन के अन्य क्षेत्रों में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है ।  व्यापारियों व व्यवसायियों को इस दौरान हानि झेलनी पड़ सकती है । यदि आप कृषि व्यवसाय से जुड़े हैं तो नुकसान से बचने के उपाय करें । आपमें से कुछ अपना व्यवसाय अथवा कार्य क्षेत्र बदलने के विषय में सोच सकते हैं । आपमें से कुछ को नौकरी मिल सकती है परन्तु इस विशेष समय में कार्य करने में कठिनाई आएगी । आप और आपके मालिक के बीच परस्पर विरुचि की भावना पनप सकती है । गुप्त शत्रुओं से सावधान रहें ।  आमदनी से अधिक व्यय आपको निर्धनता के कगार पर लाकर खड़ा कर सकता है । ऋण लेने से बचें ।  स्वास्थ्य की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है । अपने घुटनों व छाती की सही देखभाल करें । आपके माता - पिता बीमार हो सकते हैं । यहाँ तक कि जीवन खतरे में पड़ सकता है ।  घर पर आप व आपकी पत्नी / पति के बीच मानसिक वैमनस्य परस्पर घृणा का कारण बन सकता है । यात्रा का योग है ।  आपमें से कुछ में पाप प्रवृत्ति में लिप्त होने की तीव्र इच्छा पनप सकती है । समाज में अपना मान व प्रतिष्ठा बनाए रखें ।


मिथुन राशि  

   जन्म चंद्रमा से शनि का नवम भाव से गोचर (17 जनवरी 2023 से 29 मार्च 2025 )  इस अवधि में शनि चन्द्रमा से आपके नवें भाव में होते हुए गोचर करेगा । यह विपत्ति व व्यथा का सूचक है । आपके कार्यक्षेत्र के लिए यह समय कठिनाईपूर्ण है । आपका स्थानान्तरण हो सकता है व कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त परिश्रम करना पड़ सकता है । शत्रुओं व अपने नीचे काम करने वाले सहयोगियों से सावधान रहें क्योंकि वे आपको इस समय धोखा दे सकते हैं । किसी भी ऐसी बात से बचें जिसके कारण आपको अपनी कार्यस्थली अथवा समाज में बदनामी मिले। मनवांछित लाभ पाने में और सामान्य दिनों से अधिक समय लग सकता है ।  वित्त के प्रति भी सावधानी बरतनी पड़ेगी । इस दौरान आपके फिजूलखर्ची करने की संभावना है । आपमें से कुछ इसके लिए अतिरिक्त आय भी करेंगे परन्तु अनेक बाधाओं का सामना भी करना पड़ सकता है ।  मुकदमेबाजी, आपराधिक गतिविधियों व धर्मविरोधी कृत्यों से दूर रहें । आपमें से कुछ इस दौरान अपराध जगत फंदे में फँस सकते हैं ।  स्वास्थ्य की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है । मानसिक रुप से आप पत्नी / पति व बच्चों के कारण व अन्य कारणों से भी अशान्त     व व्यथित रह सकते हैं । आपका पुत्र किसी जानलेवा रोग से ग्रस्त हो सकता है । आपमें से कुछ को किसी निकट सम्बन्धी के दाह - संस्कार में सम्मिलित होना पड़ सकता है । 

 

 

 कर्क राशि 

  जन्म चंद्रमा से शनि का अष्टम भाव से गोचर (17 जनवरी 2023  18:03:34 से 29 मार्च 2025  21:44:37)  इस अवधि में शनि चन्द्रमा से आपके आठवें भाव में होते हुए गोचर करेगा । यह कठिन समय है । आपमें से अधिकांश को काम-काज, व्यवसाय, व्यापार व किसी भी कार्यक्षेत्र विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है । कई को तो अनेक कारणों से काम-काज से हाथ धोना पड़ सकता है । इस समय आप बुरी लत, जुआ व कुसंगति की ओर आकर्षित हो सकते हैं । यहाँ तक कि आपमें से कुछ को दुर्जन - दुष्ट संगत के चक्कर में पड़कर कारागृह भी जाना पड़ सकता है ।  समाज में आपका नाम व प्रतिष्ठा भी कलंकित हो सकती है । आपमें से कुछ संसार त्यागने का मानस भी बना सकते हैं ।  यात्रा का योग है । इस समय वित्त के प्रति सावधानी बरतें व व्यय पर लगाम कसें ।  स्वास्थ्य इन दिनों चिन्ता का कारण बन सकता है । आप किसी गम्भीर रोग से ग्रसित हो सकते हैं जिससे जीवन खतरे में पड़ सकता है ।  आपको परिवार को भी विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है । ग्रहों की परिवर्तनशीलता के कारण परिवार के सदस्यों को कठिनाईपूर्ण परिस्थितियों से गुजरना पड़ सकता है । आपमें से कुछ के किसी परिवार के सदस्य अथवा घरेलू पशु की मृत्यु हो सकती है । अपने निकट व अंतरंग व्यक्तियों से तर्क - वितर्क न करें क्योंकि परिवार में नए शत्रु बन सकते हैं । 

 

 सिंह राशि 

  जन्म चंद्रमा से शनि का सप्तम भाव से गोचर (17 जनवरी 2023 से 29 मार्च 2025 ) इस अवधि में शनि चन्द्रमा से आपके सातवें भाव में होते हुए गोचर करेगा । यह जीवन में उदासी का सूचक है । जीवन के लगभग हर क्षेत्र, हर पहलू पर पहले से अधिक ध्यान केन्द्रित करना पड़ेगा । आमदनी सीमित रहेगी और उस पर भी छल - कपट व धोखाधड़ी से धन - हानि हो सकती है । जो भी हो, ऋण लेने से बचें क्योंकि इस ऋण से मुक्ति मिलने में अत्यधिक समय लग सकता है ।  काम - धंधे में भी अपनी ओर से और अधिक परिश्रम करना पडेगा । अपने गन्तव्य तक पहुँचने के लिए और अधिक दूरी तय करनी होगी । यदि आप साझेदारी में धंधा करते हैं तो छद्मवेशी धोखेबाजों से सावधान रहें ।  यदि सेवारत हैं या किसी पद पर हैं तो उसकी गरिमा बनाए रखें, ऐसा कुछ न करं जो वह छिन जाय ।  विद्यार्थियों को एकाग्रता से पढ़ाई करने में कठिनाई हो सकती है ।  आपमें से कुछ इस दौरान विदेश जाएँगे । वैसे यात्रा पर जाने से बचें क्योंकि आपमें से अधिकांश के लिए यह दु:खदायक सिद्ध होगी । यह समय इस बात का द्योतक है कि आपका अपना घर न रहने के कारण आपको विवश होकर अन्यत्र रहना पड़ेगा ।  स्वास्थ्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है । परिवार के स्वास्थ्य का ध्यान रखें । आपमें से कुछ गुर्दे, यौन - अंग तथा मूत्र - नलिका से सम्बन्धित रोगों से ग्रस्त हो सकते हैं । अपनी पत्नी / पति व बच्चों की किसी स्वास्थ्य सम्बन्धी शिकायत हेतु लापरवाही न बरतें क्योंकि बाद में इससे जीवन खतरे में पड़ सकता है ।  घर पर शान्ति व सामन्जस्य बनाए रखना आवश्यक है । पहले जीवनसाथी की मृत्यु के कारण आपमें से कुछ पुनर्विवाह कर सकते हैं । मित्रता को पूर्णतया विकसित होने दें और मित्रों से अच्छा सामन्जस्य बनाए रखें । यदि सावधानी नहीं बरतेंगे तो आपके अंतरंग मित्र आपको त्याग देंगे ।  इस समय मानसिक संतुलन बनाए रखना कठिन है । आपमें से अधिकांश में निरंतर मानसिक क्लेश व अशान्ति की भावना की संभावना है ।  किसी भी प्रकार के मुकदमे आदि से दूर रहना बुद्धिमानी होगी । यह मुकदमा अथवा चुना लड़ने हेतु अच्छा समय नहीं है । 

 

 कन्या राशि 

 जन्म चंद्रमा से शनि का षष्ठ भाव से गोचर (17 जनवरी 2023  18:03:34 से 29 मार्च 2025  21:44:37)  इस अवधि में शनि चन्द्रमा से आपके छठे भाव में होते हुए गोचर करेगा । यह मुख्य रुप से धन लाभ का सूचक है । इस दौरान आप समस्त बिल, ऋण व शुल्क आदि चुका देंगे । धन सरलता से और आशा से अधिक प्रचुर मात्रा में आएगा । आप भूखण्ड अथवा मकान क्रय कर सकते हैं । यदि आपके पास पहले से ही भूखण्ड है तो मकान बनाने के विषय में सोच सकते हैं । यह समय शत्रुओं को हराकर विजय प्राप्त करने का है । स्वास्थ्य अच्छा रहेगा और आप शान्ति अनुभव करेंगे। व्यावसायिक व सामाजिक दृष्टि से भी आपके लिए अच्छा समय है । आपमें से कुछ के अधिकारी विशेष रुप से आपका समर्थन करेंगे । मित्र भी अभूतपूर्व सहायता करेंगे व सहानुभूति दर्शाएँगे ।  विवाहित व्यक्तियों का दाम्पत्य जीवन सुखमय व प्रेममय होगा और प्रेमियों को परस्पर अनेक भावनात्मक क्षण व्यतीत करने को मिल सकते हैं जो शिशु की इच्छा रखते हैं उन्हें संभव है कि इस समय परिवार में नए सदस्य का स्वागत करने का सुअवसर मिले । आपको ग्रहों के परिवर्तन के कारण आपके सम्बन्धी भी सुखी रहेंगे । 

 

तुला राशि  

  जन्म चंद्रमा से शनि का पंचम भाव से गोचर (17 जनवरी 2023 से 29 मार्च 2025 )  इस अवधि में शनि चन्द्रमा से आपके पाँचवें भाव में होते हुए गोचर करेगा । यह अवसाद का द्योतक है । इस दौरान आप देखेंगे कि आप मूर्खतापूर्ण प्रक्रियाओं, अपने ही सगे सम्बन्धियों व अन्य लोगों से झगड़े - फसाद व विवाद में उलझ गए हैं । आपमें से कुछ परिवार के सदस्यों के साथ मुकदमेबाजी में भी लिप्त हो सकते हैं साथ ही विपरीत लिंग वालों के साथ आपकी नहीं बनेगी । अपने व्यवहार को संयत रखें क्योंकि उतावलापन समाज में आपकी मान मर्यादा को मिटा सकता है।  वित्तीय मामलों में सावधानी बरतें ।  कामकाज के भी सही संचालन की आवश्यकता है । व्यवसायी नया धंधा हाथ में न लें और हानि उठाने को तैयार रहें । यदि आप निवेश या शेयर बाजार में हैं तो वर्तमान स्थिति संतोषजनक नहीं है । कुछ भी नया आरम्भ न करें क्योंकि मनवांछित परिणाम मिलने की आशा नहीं है ।  आपकी पत्नी / पति व बच्चों के स्वास्थ्य को विशेष देखभाल की आवश्यकता है । अपने बच्चे की किसी भी स्वास्थ्य सम्बन्धी शिकायत के प्रति लापरवाही न बरतें । यह बाद में जानलेवा सिद्ध हो सकता है । यदि स्वास्थ्य सम्बन्धी सावधानियों की अनदेखी की गई तो आपकी पत्नी / पति बीमार पड़ सकती / सकते हैं । आपमें से अधिकांश के मानसिक संताप तथा अस्थिरता झेलने की संभावना है । यदि आप विवाहित हैं तो जीवन साथी के प्रति विमुखता उत्पन्न हो सकती है । घर में सुख - चैन बनाए रखने हेतु आपको कुछ प्रयास करना पड़ेगा । विद्यार्थियों को पढ़ाई अरुचिकर लगने की संभावना है । 

 

 वृश्चिक राशि 

  जन्म चंद्रमा से शनि का चतुर्थ भाव से गोचर (17 जनवरी 2023 से 29 मार्च 2025 )  इस अवधि में शनि चन्द्रमा से आपके चतुर्थ भाव में होते हुए गोचर करेगा । यह कठिन समय है । जीवन के अन्य पत्तों के अतिरिक्त वित्त व्यवस्था सही ढ़ंग से सम्भालनी होगी । जितना सम्भव हो, ऋण व्यय व पैसे की बर्बादी से बचें । आप में काम - धंधे के प्रति उत्साहहीनता आ सकती है । आपमें से कुछ को अपने कामकाज के प्रति अरुचि के कारण अपने वरिष्ठ व उच्च अधिकारियों का क्रोध झेलना पड़ सकता है । आपमें से कुछ का इस दौरान अन्य जगह स्थानान्तरण भी हो सकता है ।  सामाजिक दृष्टि से भी यह अच्छा समय नहीं है । अपनी लोकप्रियता बनाए रखने के लिए विशेष प्रयत्नशील रहें । ऐसे क्रिया कलापों से बचें जिनमें अपमान होने का भय हो ।  स्वास्थ्य पर ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है । आपमें से कुछ अकर्मण्यता, उदर रोग, बादी (वायु रोग) अथवा अन्य छोटी - मोटी व्याधियों से ग्रस्त हो सकते हैं ।  आपमें से कुछ मनोव्यथा, भय, मानसिक उलझन व चिन्ता से ग्रस्त हो सकते हैं । कुछ के मन में न्याय विरोधी विचार पनप सकते हैं जो मन में पापकर्म करने की तीव्र इच्छा जागृत कर सकते हैं ।  शत्रुओं के साथ विवाद से दूर रहें । आपमें से कुछ को मित्रों व शुभचिन्तकों से अलग होना पड़ सकता है ।  घर पर पत्नी व बच्चों के स्वास्थ्य पर ध्यान देना आवश्यक है क्योंकि बीमारी अथवा अन्य कारणों से जीवन जोखिम में पड़ने का खतरा है । आपमें से कुछ परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु के कारण शोकमग्न रहेंगे । अपने सम्बन्धियों व निकटतम प्रिय व्यक्तियों के साथ किसी अप्रिय स्थिति में पड़ने से बचें । इस दौरान संभव है अपने परिवार और सम्बन्धियों में आपके कुछ नए शत्रु बनें। इन दिनों छद्मवेशी शत्रुओं से सावधान रहें ।  फिर भी, आपमें से कुछ घर में नवजात शिशु के आने की आशा कर सकते हैं । 

 

 धनु राशि 

9  जन्म चंद्रमा से शनि का तृतीय भाव से गोचर (17 जनवरी 2023 से 29 मार्च 2025 ) इस अवधि में शनि चन्द्रमा से आपके तृतीय भाव में होते हुए गोचर करेगा । यह शुभ समय का संकेत है । यह आपके कार्य क्षेत्र के लिए व वित्त हेतु उत्तम समय है । आपमें से अधिकांश अनेक प्रकार से धनोपार्जन करेंगे । इन दिनों आरम्भ किया गया कोई भी व्यापार, परियोजना या काम - धंधा निश्चित रुप से सफल होगा ।  यदि आप मुर्गी पालन अथवा कृषि से जुड़े हुए हैं तो यह विशेष रुप से शुभ समय है तथा अपने अपने कार्य में आपको विशेष लाभ होगा ।  आपमें से कुछ इन दिनों भूमि अथवा अन्य अचल सम्पत्ति क्रय करने के विषय में सोच सकते हैं । कुल मिलाकर धन सम्बन्धी मामलों में यह अच्छा व शुभ समय है ।  यदि आप बेरोजगार हैं तो भाग्य आपका द्वार अवश्य खटखटाएगा और आपके सन्मुख कई लाभप्रद नौकरियों / कार्यों का प्रस्ताव होगा । जो सेवारत है उन्हें वेतन वृद्धि, उच्च पद व अधिकार मिल सकते हैं । आपकी समझ, योग्यता तथा प्रयास सभी का ध्यान आकृष्ट करेंगे ।  सामाजिक दृष्टि से भी यह शुभ समय है क्योंकि आप सामाजिक सफलता की सीढ़ी उत्तरोत्तर चढ़ते ही जाएँगे । आपमें से अधिकांश घर पर नौकरानी और कार्यालय में सहायक नियुक्त करेंगे जो काम-काज में मदद करें । जो भी हो, आप हर प्रकार के तक-वितर्क में अपना पक्ष इतने स्पष्ट रुप में सहजता से रखें कि आप ही विजयी होंगे ।  स्वास्थ्य अच्छा रहेगा और आपको लगेगा कि आपके पैरों में शक्ति व उत्साह के पंख लगे हुए हैं । यदि पूर्व में कोई रोग रहा भी हो तो आप उससे मुक्ति पाकर सुख - चैन अनुभव करेंगे ।  घर पर भी पूर्णतया सुख - चैन का वातावरण होगा । आपकी पत्नी / पति और अधिक प्रेममय व समर्पित रहेंगी / रहेंगे व आपको दाम्पत्य जीवन का पूर्ण आनन्द प्राप्त होगा । आपके भाई - बहनों व बच्चों का व्यवहार अच्छा होगा व वे कार्य में सहायक होंगे ।  शत्रुओं की पराजय होगी व आप पर भाग्यलक्ष्मी की कृपा होगी । आपमें से कुछ को यात्रा करनी पड़ सकती है । 

 

 

मकर राशि 

 जन्म चंद्रमा से शनि का द्वितीय भाव से गोचर (17 जनवरी 2023 से 29 मार्च 2025 ) इस अवधि में शनि चन्द्रमा से आपके द्वितीय भाव में होते हुए गोचर करेगा । यह सामान्य रुप से आपके लिए कठिन समय है । आपमें से अधिकांश को अपने लक्ष्य व परियोजना के मनवांछित परिणाम नहीं मिलेंगे । यदि आप सेवारत हैं अथवा किसी व्यवसाय में हैं तो सावधानी से एक एक कदम बढ़ाएँ, छलाँग न लगाएँ क्योंकि समय अनुकूल नहीं है ।  यह समय वित्तीय दृष्टि से भी प्रतिकूल है । अपने खर्चों पर लगाम कसें व कारण खोजें कि आपका धन कहाँ जा रहा है घ् आपमें से कुछ अनेक स्त्रोतों से धन अर्जित कर सकते हैं परन्तु वह धन हाथ में रखना कठिन होगा । पैत्रिक सम्पत्ति से सम्बन्धित किसी भी प्रकार के विवाद से दूर ही रहें क्योंकि यह आपके सुखी जीवन व आत्मगौरव को ठेस पहुँचा सकते हैं । इस विशेष समय में आप व्यर्थ के झगड़ों में पड़कर नए शत्रु बना सकते हैं । आपमें से कुछ में नृशंसता / निर्दयता पनप सकती है और संभव है कि आप कोई अपराध कर बैंठे । आपमें से कुछ तो अपने परिवार में ही नए शत्रु बना सकते हैं ।  छोटी - छोटी बातों पर अपने पति / पत्नी को परेशान न करें । बच्चों का ध्यान रखें क्योंकि ग्रह - स्थिति परिवर्तन उनके लिए जोखिम बन सकता है ।  स्वास्थ्य का इस समय सही रुप से ध्यान रखें । आप स्वयं को दुर्बल व निस्तेज अनुभव कर सकते हैं । साथ ही शक्तिहीन भी हो सकते हैं । आपमें से अधिकांश थोड़ा कठिन काम करके ही थकान महसूस करेंगे । साथ ही अपने रुप रंग पर भी ध्यान दें ।  आपमें से कुछ इन दिनों विदेश जा सकते हैं जबकि कुछ के निरुद्देश्य इधर - उधर भटकने की संभावना है ।

 

कुम्भ राशि 

   जन्म चंद्रमा से शनि का प्रथम भाव से गोचर (17 जनवरी 2023 से 29 मार्च 2025 )इस अवधि में शनि चन्द्रमा से आपके प्रथम भाव में होते हुए गोचर करेगा । यह कठिन चुनौतीपूर्ण समय का सूचक है । वित्त न्यूनतम स्थिति में होगा । व्यर्थ के खर्चे व अनावश्यक ऋण से बचें क्योंकि यह और अधिक ह्रास का कारण बन सकता है ।  व्यक्तिगत रुप से आप निराशावादी हो सकते हैं व बाहर से आपका व्यक्तित्व अप्रियकर हो सकता है । आपमें से कुछ पूर्व निश्चित् उद्देश्यों को पूर्ण करने में कठिनाई महसूस कर सकते हैं । आपमें से कुछ को न्यायिक हिरासत में भी जाना पड़ सकता है ।  स्वास्थ्य की ओर ध्यान दें । अस्वस्थता का कारण रोग न होकर शस्त्र, विष, अग्नि, शारीरिक पीड़ा व थकान हो सकता है । इन वस्तुओं से स्वास्थ्य को खतरा है अत: दूर रहने की चेष्टा करें । आपकी पत्नी/पति को भी शारीरिक पीड़ा, दर्द अथवा बेचैनी हो सकती है अत: उनके स्वास्थ्य का भी ध्यान रखें ।  आपमें से कुछ को सिर में दर्द हो सकता है या ऐसा भी लग सकता है कि शरीर की समस्त शक्ति व सत्र निकल गया है । इस समय काफी मानसिक व्यथाएँ भी हो सकती है ।  अपनी प्रतिष्ठा व मान बनाए रखने हेतु यह एक चुनौतीपूर्ण समय है अत: ऐसे क्रियाकलापों से बचें जो इन पर प्रभाव डाल सकते हैं ।  इन दिनों यात्रा करनी पड़ेगी । आपको सुदूर स्थानों पर जाना पड़ सकता है तथा आपका स्थानान्तरण विदेश में हो सकता है । परन्तु आपमें से अधिकांश के लिए अपने स्वजनों व प्रियजनों तथा घर की सुख-सुविधाओं से दूर रहना कोई सुखद अनुभव नहीं होगा । घर में सुख शान्ति बनाए रखिए । इस विशेष समय में आपके अपने भाई - बहनों व उनकी पत्नियों / पतियों से झगड़ा हो सकता है । अपनी पत्नी / पति व बच्चें से भी कोई अप्रिय बात न करें व उन्हें जीवन को खतरे में डालने वाली वस्तुओं से दूर रखें । आपको किसी निकटजन का अन्तिम संस्कार सम्पन्न करना पड़ सकता है । आपमें से कुछ को अचानक धोखाधड़ी का शिकार होना पड़ सकता है । मित्रता अमूल्य निधि है जिसे शनि की यह गति विपरीत रुप से प्रभावित कर सकती है अत: मित्रों व मित्रता को सुरक्षित रखें । स्वयं को सतर्क व चुस्त - दुरुस्त रखें क्योंकि इस समय विशेष में आप बुराइयों का शिकार हो सकते हैं । 

 

मीन राशि 

   जन्म चंद्रमा से शनि का द्वादश भाव से गोचर (17 जनवरी 2023  18:03:34 से 29 मार्च 2025  21:44:37)  इस अवधि में शनि चन्द्रमा से आपके बारहवें भाव में होते हुए गोचर करेगा । यह धन की कमी व वित्तीय रेखा के नीचे की ओर आने का द्योतक है । इस समय व्यर्थ के व्यय व धन बर्बाद करने का खतरा है । यदि आप कृषि अथवा कृषि उत्पादों से सम्बद्ध कार्य करते हैं तो विशेष सावधानी बरतें कि हानि न हो । भोजन - सामग्री भण्डार में संचित कर लें क्योंकि कठिनाई के समय इसकी आवश्यकता पड़ सकती है ।  स्वास्थ्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है । किसी भी प्रकार की शारीरिक व्याधि की उपेक्षा न करें क्योंकि यह जानलेवा सिद्ध हो सकती है । आपके पैरों व नेत्रों को विशेष देखभाल की आवश्यकता है ।  काम - धंधे पर भी ध्यान दें । काम - काज में अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के प्रति सावधान रहें । आपमें से कुछ को अपने कार्य स्थल पर नेकनामी व पद बनाए रखने में कठिनाई आ सकती है । आपमें से कुछ को अपना धंधा या व्यापार बदलना पड़ सकता है ।  यात्रा का योग है । आपमें से अधिकांश को विदेश यात्रा करनी पड़ सकती है व परिवार से दूर रहना पड़ सकता है । परन्तु अधिकतर व्यक्तियों के लिए यह यात्रा महंगी पड़ेगी ।  घर में शान्ति बनाए रखना आवश्यक है क्योंकि आप स्वजनों से विवाद में पड़ सकते हैं । आपमें से कुछ में गहन चिन्ता, घुतिहीनता व जीवन के प्रति उत्साहहीनता की संभावना है ।  गंभीर निर्णय लेते समय यह असाधारण सावधानी बरतने का समय है । आपमें से कुछ बुद्धि व विचार शक्ति को अनदेखा कर सकते हैं । ऐसा कुछ न करें जिससे प्रतिष्ठा प्रभावित हो ।

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Tuesday 1 November 2022

कालसर्प योग किस उम्र में पीडा देगा ? जानिए इस लेख में / kalsarp yoga kis umar me pida dega , Janiye is lekh me

Posted by Dr.Nishant Pareek

 कालसर्प योग किस उम्र में पीड़ा देगा ? जानिए इस लेख में 





Kundli me kalsarp yoga kis umar me pida dega , Janiye is lekh me


सभी व्यक्तियों का संपूर्ण जीवन नवग्रहों के प्रभाव से ही संचालित है। हर घटना तथा हर गतिविधि, उपलब्धि, हानि, सुख, संताप, निन्दा अथवा सम्मान, मान, अपमान, व्याधि अथवा उत्तम स्वास्थ्य, व्यवसाय में प्रगति अथवा अवनति आदि सब व्यक्ति की कुंडली में विद्यमान ग्रहों पर ही आधारित होती है। 

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जब सभी ग्रह राहु और केतु के मध्य स्थित हों, तो इस तथ्य को इस प्रकार समझना चाहिए कि यह सभी सात ग्रह कालसर्प नामक योग के दुष्प्रभाव में जा रहे है। कालसर्प योग में ग्रहों का प्रभाव तो मिलता है परन्तु जिस तरह से विषैला सर्प शुभ प्रभावों को एक बार अपने भीतर रखकर उगल दे, उसी तरह से शुभ ग्रहों के प्रभाव में भी विष मिल जाता है जो उनकी दशाओं और अन्तरदशा समय-समय पर जीवन को अनेक प्रकार से पीडित करता रहता है। कभी संतान सुख प्राप्त नहीं होता, कभी अनेक पुत्रियों का जन्म होता है। पुत्र संतान की प्राप्ति नही होती है तो कभी पारिवारिक अशान्ति तथा कलह जीवन में दाम्पत्य सुख का अभाव उत्पन कर देती है। कभी स्वास्थ्य निरन्तर पीड़ित करता है तो कभी दरिद्रता, धनार्जन होते हुए भी धनाभाव से चिंता बनी रहती है तो कभी अकाल मृत्यु जैसे क्रूर तथा अशुभ फल प्राप्त होते हैं तथा यह सभी अशुभ प्रभाव जीवन की प्रसन्नता, हर्ष और उल्लास को तो ग्रहण लगाते ही हैं। 

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जब सभी ग्रह राहु और केतु के बीच आ जाते है तो उनकी दशाओं-अन्तरदशाओं में शुभता का अभाव तथा अशुभता का प्रभाव दिखाई देने लगता है।। जब राहु की महादशा व्यक्ति के जीवन में प्रवेश करेगी, तो राहु की महादशा का 18 वर्ष का समय अधिक अशुभ, कष्टप्रद, चिंताकारक, वेदनापूर्ण तथा दारुण दुःखों की वेदना प्रदान करने वाला सिद्ध होगा। इसी तरह से केतु की महादशा के भी 7 वर्ष भी असहनीय पीडादायक होते है। निरन्तर संघर्ष करना पडता है।। जीवन में अनेक प्रकार की बाधाएं आती है। पदोन्नति, प्रगति, विपत्तियों से घिर जायेंगी या निलम्बन अथवा पदच्युति की स्थिति भी उत्पन्न होने की संभावना होती है। केतु यदि आक्रान्त हो, मंगल अथवा शनि के साथ स्थित हो तथा अशुभ भावों में हो, तो मेरा अनुभव है कि केतु की दशा में आयकर, सी०बी०आई०, सेल्सटैक्स आदि की गंभीर चिंता उत्पन्न होती है। यहाँ तक कि छापा पड़ने की संभावना को भी निरस्त नहीं किया जा सकता। अनेक आरोप-प्रत्यारोप से व्यक्ति का जीवन सुचारु रूप से प्रगति नहीं करता। नींद नहीं आती, तो कभी प्रयास बार-बार विफल होते हैं। धन का अभाव होता है। जिन लोगों को ऋण दिया है उनसे ऋण वापस नहीं मिलता तथा जिनसे ऋण लिया है उनका निरन्तर दबाव कलह का स्थिति उत्पन्न करता है। न्यायालय में दोषी ठहराया जाना भी सम्भव है। जो त्रुटि नहीं की है उसका आरोप लगता है तथा जो कार्य सामान्यतः स्वयं ही पूरे हो जाने चाहिए, वह अपूर्ण पड़े रहते हैं इसलिए राहु और केतु की महादशा में कालसर्प योग का अधिकतम अशुभ प्रभाव दिखाई देता है। कई बार केतु की महादशा में यदि केतु सप्तमस्थ हो तो पत्नी की मृत्यु तक हो जाती है। ऐसा ही भयानक अभिशाप है कालसर्प योग।  

वैसे तो कालसर्प योग का प्रभाव जीवनपर्यन्त बना रहता है परन्तु राहु और केतु की महादशा में सर्वाधिक परेशान करता है।

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जब गोचर के राहु और केतु कुंडली में अशुभ भाव में भ्रमण करते हैं तब कालसर्प योग का प्रभाव और भी विषैला हो उठता है। उल्लेखनीय है कि राहु और केतु की धुरी पर गोचर के शनि का भ्रमण बहुत ही पीडादायक होता है। यदि राहु और केतु की धुरी पर सूर्य स्थित हो तथा उसके ऊपर से गोचर का शनि भ्रमण करे, तो परिस्थितियाँ और भी अधिक कष्टप्रद होती हैं। यदि राहु के साथ शनि तथा केतु के साथ मंगल अथवा राहु के साथ मंगल तथा केतु के साथ शनि स्थित हों तथा गोचर के शनि अथवा मंगल का भ्रमण इस धुरी पर से हो, तो दुर्घटना की संभावना अत्यधिक होती है तथा जिन राशियों तथा भावों में यह ग्रह स्थित हों, उन राशियों तथा भावों द्वारा प्रदर्शित शरीर के अंग को गोचर का मंगल रोग पीडा अथवा चोट करता है। इसी प्रकार से यदि उपर्युक्त संदर्भित ग्रह स्थिति के ऊपर से राहु के ऊपर से केतु तथा केतु के ऊपर से राहु का भ्रमण हो, तो कालसर्प योग के प्रभाव में वृद्धि होती है तथा यह अशुभता उस समय और भी बढ़ जाती है जब राहु और केतु या शनि के अंशों के ऊपर से गोचर के राहु और केतु का भ्रमण होता है।

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 गोचर के ग्रह कालसर्प योग के प्रभाव में कब और कैसे वृद्धि करते हैं तथा कितना अशुभ प्रभाव दे सकते हैं यह सब कुंडली में ग्रहों की स्थिति पर निर्भर करता है। कालसर्प योग से पीडित कुंडलियों में गोचर के राहु और केतु का शुभ भ्रमण लाभप्रद स्थिति भले ही न उत्पन्न करे, परन्तु कालसर्प योग के प्रभाव में न्यूनता अवश्य लाता है। जहाँ पर कालसर्प योग विद्यमान हो तथा राहु तीसरे, छठे या ग्यारहवें भाव में भ्रमण कर रहा हो, तो कालसर्प योग का प्रभाव उस समय जीवन को आतंकित और भयभीत नहीं करता। घटना-क्रम को अवरुद्ध नहीं करता, बल्कि सामान्य स्थिति को बल प्रदान करता है। 

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राहु और केतु के गोचर के भ्रमण के वास्तविक प्रभाव के साथ जन्मकालीन ग्रह स्थितियों के साथ सम्बन्ध तथा प्रभाव के कारण किस तरह का फल प्रतिरूपित करेगा, किन घटनाओं को जन्म देगा तथा वे घटनाएँ जीवन के किस क्षेत्र को बल प्रदान करेंगी तथा किस क्षेत्र का हास करेंगी, यह अध्ययन करने हेतु गोचर के राहु ओर केतु के प्रभाव को भलीभाँति समझ लेना उचित होगा। यहाँ हम यह विश्लेषित करने का प्रयास करेंगे कि कालसर्प योग का अभिशाप गोचर के राहु ओर केतु से किस तरह प्रभावित होता है, कब कालसर्प योग के अशुभ प्रभाव शिथिल हो जाते हैं तथा कब उनका आतंक अधिक भयावह हो उठता है।

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कालसर्प योग यदि कुंडली के उत्तरार्ध में अर्थात् सप्तम भाव में राहु तथा लग्न में केतु स्थित हों तथा शेष ग्रह 8, 9, 10, 11 एवं 12 भावों में विद्यमान हों, तो 28वें वर्ष के पश्चात् कालसर्प योग का विशेष प्रभाव जीवन में परिलक्षित होता है तथा सप्तम से लग्न तक जिस काल सर्प योग का निर्माण होता है वह अधिक अशुभ कष्टप्रद सिद्ध होता है क्योंकि यहाँ पर कालसर्प योग कर्म भाव, भाग्य भाव, लाभ आदि सभी उन महत्त्वपूर्ण भावों को आक्रान्त तथा दूषित करता है। और यही भाव जीवन के महत्वपूर्ण पडाव में काम आते है। इसलिये कालसर्प दोष की अशुभता 28 वर्ष के पश्चात् अशुभ प्रभाव में वृद्धि करती है। 


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Friday 28 October 2022

किन लोगों को पीड़ित करता है कालसर्प योग, जानिए इस लेख में / kalsarp yog kin logo ko pidit karta hai ? janiye is lekh me

Posted by Dr.Nishant Pareek

किन लोगों को पीड़ित करता है कालसर्प योग, जानिए इस लेख में. 


kalsarp yog kin logo ko pidit karta hai ? janiye is lekh me


कालसर्प योग का भय लगभग प्रत्येक व्यक्ति के मन में स्थाई रूप से घर कर गया है। दूसरे की देखा देखी लोग स्वयं भी खुद को इस योग से प्रभावित समझने लगते है। चाहे उनकी कुंडली में कालसर्प योग बन ही नहीं रहा हो। फिर इसमें आग में घी डालने का काम कुछ तथाकथित कर्मकांडी करते हैं जो व्यक्ति को इतना डरा देते हैं कि बस व्यक्ति मरता नहीं है और बाकी रहता नहीं है। 

अनेकों कुंडलियों में देखने को मिला है कि उनके कालसर्प योग तो बन रहा है परंतु प्रभावित नहीं कर रहा। तब व्यक्ति के मन में शंका हो जाती है कि ऐसा क्यों?? तो आज आपको इस लेख में बताउंगा कि किन लोगों को कालसर्प योग पीड़ित करता है और किन को नहीं........

  कालसर्प योग की तरह ही केमद्रुम योग व शकट योग आदि भी ज्योतिष शास्त्र में अत्यत अशुभ माने गये हैं। मजदूर, रिक्शा चलाने वाला, दर्जी, नाई, लोहार, मोची, घरेलू नौकर, इलेक्ट्रिशियन, प्लम्बर, कारपेन्टर तथा टेलर आदि को कालसर्प योग पीड़ित नहीं करता। यदि इनकी कुंडली में कालसर्प योग विद्यमान हो, तो बिलकुल भी डरना नहीं चाहिए। यह योग सामान्य और निम्न वर्ग के लोगों को प्रभावित नहीं करते। उनकी आजीविका और रोजाना के खर्च  शारीरिक परिश्रम पर ही आधारित होते है। वो अपने परिवार को चलने और जीविकोपार्जन के लिए दिन भर परिश्रम करते हैं  
कहने का मतलब ये है की कालसर्प योग शरीर से परिश्रम करने वाले व्यक्तियों के जीवन को प्रभावित  नहीं करता। कालसर्प योग तो व्यक्ति के भाग्य पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। व्यक्ति के भाग्य को पीड़ित करता है ; कोई व्यक्ति दिनभर परिश्रम करने के बाद 500 - 700 रूपये कमाता है। जबकि भाग्यशाली पुरुष एक ही दिन में बिना कुछ म्हणत के ही  करोड़ों रुपये कमा लेता है। ऐसे भाग्यशाली व्यक्तियों की कुंडली  में कालसर्प योग उपस्थित हो, तो उनके जीवन की प्रगति, प्रतिष्ठा, प्रसन्‍नता का सर्वनाश हो जाता  है। उनका जीवन आतंक और भय के साथ आशंका के चक्रव्यूह  में फँस जाता है। 

जो लोग अपने भाग्य तथा बुद्धिबल से अपार शौर्य, धन, ऐश्वर्य, यश और कीर्ति अर्जित करते हैं उनको ही काल सर्प योग प्रभावित करता है। निम्न वर्ग के सामान्य व्यक्तियों पर काल सर्प योग का अशुभ परिणाम  इसलिए भी नहीं होता कि उनके पास खोने के लिए कुछ है ही  नहीं। खोने के लिए कोई सम्पत्ति नहीं, कोई बैंक बैलेंस नहीं। सामान्य जीवन व्यतीत करने के लिए उन्हें दिनभर परिश्रम करने के उपरान्त ही भोजन व्यवस्था सम्भव हो पाती है। यदि निम्न वर्ग में कुछ परिश्रमी लोग धन संचय कर भी लें परन्तु उन्हें परिश्रम करते रहना पड़े, शारीरिक परिश्रम उनके जीवन का आधार और अंग हो, तो उन्हें कालसर्प योग का अशुभ प्रभाव पीड़ित नहीं करता। | 

जिन कुंडलियों  में उच्च ग्रह शुभ राजयोगों का निर्माण कर रहे हों, केन्द्र- त्रिकोण  शुभ सम्बन्ध हों, विनिमय परिवर्तन राजयोग की स्थापना हो रही हो अथवा ग्रह महाराजा योग का निर्माण कर रहे हों, लग्न बली हो या लग्न का स्वामी पंचम, नवम या दशम स्थान में स्थित हो या फिर उपचय स्थान में शुभ ग्रहों से संयुक्त हो, तो कालसर्प योग का प्रभाव स्वत: ही इतना न्यून हो जाता है जिसे निर्मूल ही समझना चाहिए। 

जिन कुंडलियों  में कालसर्प योग का निर्माण हो रहा हो, सभी ग्रह राहु और केतु के मध्य स्थित हों तथा राहु और केतु स्वयं भी अशुभ तथा क्रूर ग्रह शनि ओर मंगल से संयुक्त हों, तो कालसर्प योग के प्रभाव में वृद्धि होती है। यदि सूर्य और चन्द्रमा राहु और केतु के साथ स्थित हों तथा सूर्य और चन्द्रमा के अंश समान हों, तो ग्रहण काल में बालक का जन्म होता है तथा ऐसे बालक का जीवित रहना संदिग्ध होता है। 


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Wednesday 23 February 2022

कट जाता है मांगलिक दोष, यदि कुंडली में ये ग्रह स्थिति हो तो / Mangal dosh cancellation

Posted by Dr.Nishant Pareek

 कट जाता है मांगलिक दोष, यदि कुंडली में ये ग्रह स्थिति हो तो...........


manglik dosh ki kaat kaise hoti hai ??

Mangal dosh cancellation 

जीवन में मांगलिक योग विभिन्न प्रकार से प्रभावित करता है। जैसे विवाह में विलम्ब, बाधा, धोखा, शादी के बाद पति-पत्नी दोनों या किसी एक को शारीरिक, व्यवसायिक या आर्थिक पीडा, आपसी मतभेद, आरोप-प्रत्यारोप, सम्बन्धविच्छेद आदि। यदि दोष में बल अधिक होता है तो दोनों में से किसी एक की मृत्य भी हो जाती है।

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परन्तु इससे भयभीत नहीं होना चाहिये। यह प्रयास करना चाहिये कि मांगलिक का विवाह मांगलिक से ही हो। क्योंकि समान रूप से मंगल दोष होने पर वह निष्फल हो जाता है। अर्थात् उसका प्रभाव समाप्त हो जाता है। तथा पति-पत्नी सुखी रहते हैं - 

(1) दम्पत्योर्जन्मकाले व्ययधनहिबुके सप्तमे लग्नरन् ।

   लग्नाच्चन्द्राच्च शुक्रादपि भवति यदा भूमिपुत्रो द्वयो।। 

   तत्साम्यात्पुत्रमित्रप्रचुरधनपतां दंपति दीर्घ-काला।

   जीवेतामेकहा न भवति मश्तिरिति प्राहुरत्रात्रिमुख्याः।।

 भावार्थ:- यदि लडका और लडकी की कुण्डली में मंगल पहले, दूसरे, बारहवें, चौथे, सातवें या आठवे घर में लग्न, चंद्रमा, शुक्र से समभाव में स्थित हो तो समान मंगलदोष होने के कारण वह प्रभावहीन हो जाता है। परस्पर सुख, धन धान्य, संतति, स्वास्थ्य, तथा मित्रादि प्राप्त होते हैं। 

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(2) कुजदोष वत्ती देया कुजदोषवते किल।

   नास्ति दोषो न चानिष्टंदम्पत्यो सुखवर्धनम।।

 भावार्थ:- मंगल दोष से पीडित कन्या का विवाह मंगल दोष वाले वर के साथ करने से दोष का फल नष्ट हो जाता है। तथा दोनों के मध्य प्रेम बढ़ता है। 

(3) भौम तुल्यो यदा भौमो पापो वा तादृशो भवेत।

   वर बध्वोर्मिथस्तत्र भौम दोषो न विद्यते।।

 भावार्थ- यदि कुण्डली में पहले, चौथे, सातवें, आठवें तथा बारहवें घर में से किसी भी स्थान पर लडका व लडकी की दोनों की कुण्डली में मंगल स्थित हो तो परस्पर दोषों का नाश होकर विवाह में शुभ फल प्राप्त होते है।


(4) “राशि मैत्रम् यदा याति-गणैक्य वा यदा भवेत।

   अथवा गुण बाहुल्ये भौम दोषो न विद्यते।। 

भावार्थ - यदि लडका-लडकी की कुण्डली में आपस में राशि मैत्री हो गण भी समान हो तथा 27 या इससे अधिक गुण मिलते हो तो मंगल दोष निष्फल हो जाता है। 

चैथे भाव में मांगलिक दोष का शुभ अशुभ सामान्य फल जानने के लिये क्लिक करे

(5) दोषकारी कुजो यस्य बलीचे दुक्त दोषकृत।

   दुर्बलः शुभ दृष्टोवा सूर्येणस्मऽगतोपिवा।।

 भावार्थ:- कुण्डली में मंगल अनिष्ट स्थानों में बलवान् होकर बैठा हो तभी वह हानि करेगा अर्थात् मंगल दोष बनायेगा। यदि वह दुर्बल होकर, या शुभग्रह से दृष्ट होकर या सूर्य के साथ अस्त हो तो फिर हानिकारक नहीं माना जायेगा। 

(6) वाचस्पतो नवम् पंचम केन्द्र संस्थे जाताऽगंना भवति पूर्ण विभूति युक्ता। 

    साध्वी सुपुत्र जननीरू सुखिनी गुणाड्डया सप्ताष्टक यदि भवेद शुभग्रहोऽपि।। 

भावार्थ:- यदि कन्या की कुण्डली में पहले, दूसरे, चौथे, सातवें, आठवें तथा बारहवें घर में मंगल हो और शुभ ग्रह बृहस्पति केन्द्र या त्रिकोण में हो तो मंगल दोष नहीं होता व कन्या साध्वी, सुपुत्र को जन्म देने वाली, सभी तरह से सुखी, गुणों से सम्पन्न, ऐश्वर्य युक्त, सौभाग्यशाली होती है।

(7) यदि किसी एक कुण्डली में मंगल दोष हो और दूसरे की कुण्डली में उसी घर में कोई पापग्रह हो (शनि, राहु) तो मांगलिक दोष समाप्त हो जाता है। इस स्थिति में विवाह कर सकते है।

(8) यदि किसी की कुण्डली में पहले घर में मेष का मंगल हो, चौथे घर में वृश्चिक का, सातवें घर में मकर का, आठवें घर में कर्क का तथा बारहवें घर में धनु राशि में हो तो मांगलिक दोष समाप्त हो जाता है।

(9) यदि कुण्डली में मंगल किसी मंगली घर में तो तथा साथ में गुरु बुध या चंद्रमा भी हो अथवा इनमें से किसी ग्रह से दृष्ट हो तो मंगल दोष समाप्त हो जाता है।


 (10) कुण्डली में मांगलिक दोष हो तथा मंगल निर्बल हो और पहले या सातवें घर में बली गुरु हो या शुक्र हो तो मंगल दोष समाप्त हो जाता है।

(11) यदि मंगल दोष वृश्चिक, मकर, सिंह, धनु, मीन राशि में हो तो हानिकारक नहीं होता।

(12) यदि गुरु मंगल को देखता हो, या गुरु के साथ मंगल हो या शक दूसरे घर में हो या बली चंद्र केन्द्र में हो तो मंगली दोष प्रभावी नहीं रहता है।

(13) मंगल यदि चर राशि में हो तो भी मंगली दोष समाप्त हो जाता है।

(14) यदि मंगल चौथे घर में वृष या तुला राशि में हो तो हानिकारक नहीं होता।

(15) यदि मंगल या शनि मंगली घर में वक्र हो तो मंगल दोष नहीं रहता।

(16) यदि मंगल, गुरु या शनि से राशि परिवर्तन करे तो भी मंगल दोष शान्त हो जाता है।

(17) यदि बारहवें घर का मंगल, मिथुन या कन्या राशि में हो तो मंगली दोष नहीं लगता।

(18) मांगलिक कुण्डली में यदि सप्तम घर का स्वामी व शुक्र बली हो या सप्तम में हो या सप्तम को देखते हो तो मंगल दोष समाप्त हो जाता है।

मांगलिक दोष की शांति के सरल उपाय जानने के लिये क्लिक करे।

(19) मांगलिक कुण्डली में यदि बली चन्द्रमा केन्द्र में हो तो भी मंगल दोष समाप्त हो जाता है।

(20) यदि मंगल केतु के नक्षत्र (अश्विनी, मघा, मूल) में हो तो भी मंगल दोष समाप्त हो जाता है।

मेष, वृष तथा मिथुन लग्न में मांगलिक दोष की शांति के सरल उपाय जानने के लिये क्लिक करे।

कर्क, सिंह तथा कन्या लग्न में मांगलिक दोष की शांति के सरल उपाय जानने के लिये क्लिक करे। 

तुला, वृश्चिक तथा धनु लग्न में मांगलिक दोष की शांति के सरल उपाय जानने के लिये क्लिक करे। 

मकर, कुंभ तथा मीन लग्न में मांगलिक दोष की शांति के सरल उपाय जानने के लिये क्लिक करे। 

डॉ. बी. वी. रमन के अनुसार यदि किसी कुण्डली में मंगल दूसरे घर में बुध की राशि में हो तो मांगलिक योग समाप्त हो जाता है। यदि बारहवें घर में मंगल, शुक्र की राशि में हो तो भी मंगल हानि नहीं करता है। यदि चौथे घर में मंगल स्वराशि का हो तो भी हानि नहीं करता है। यदि सातवें घर में मकर का मंगल हो या कर्क का मंगल हो तो भी मंगल दोष समाप्त हो जाता है। मंगल यदि आठवें घर में गुरु की राशि (धनु या मीन) में हो तो भी मंगली दोष समाप्त हो जाता है।


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Sunday 9 January 2022

kalsarp yog or vivah jivan / कालसर्प योग और विवाह जीवन

Posted by Dr.Nishant Pareek

 kalsarp yog or vivah jivan


कालसर्प योग और विवाह जीवन

कालसर्प योग का नाम सुनते ही प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक अजीब तरह का डर पैदा हो जाता है। उस योग के नाम से वह तरह तरह की बातें सोचने लगता है। नई नई कहानियां बनाने लगता है। अनेक तरह की घटनाओं को खुद से जोडने लगता है। उसे ऐसा लगता है कि अब दुनिया की सारी बुरी घटनाऐं उसके साथ ही घटित होने वाली है। उसकी रात की नींद और दिन का चैन गायब हो जाता है। और वह इसी उधेडबुन में रहता है कि इस योग से कैसे बचा जाये। या इस योग का निवारण कैसे किया जाये। जिससे कि जीवन में सुख शांति बनी रहे। और परिवार भी सुरक्षित रहे। जिसकी कुंडली में कालसर्प दोष होता है, तो वह किसी न किसी तरह से उस व्यक्ति को पीडित अवश्य करता है। जिन भावों से संबंधित कालसर्प योग होता है, उसी भाव से संबंधित फलों से जुडी समस्याएं व्यक्ति को प्रदान करता है। उससे संबंधित सुखों में कमी करता है। 

कालसर्प योग देता है संतानहीनता, यदि इन भावों में हो तो, कहीं आप भी तो नहीं है इसके शिकार, जानिए इस लेख में।

इसी तरह जिन लोगों की कुंडली में कालसर्प योग बनता है उनसे सम्बन्धित व्यक्तियों का दाम्पत्य जीवन नरक के समान हो जाता है। मेरे विचार से सुखद दाम्पत्य जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है किसी व्यक्ति को जीवन में सबकुछ प्राप्त हो। यदि दाम्पत्य सुख से वंचित हो, प्रतिदिन कलह होती हो, विचारों में असहनीय मतभेद हो, एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के कारण वैवाहिक जीवन में सदैव झगडे होते रहे तो किसी पल एक-दूसरे से कुछ समय के लिए पृथक रहकर शान्तिपूर्ण जीवन जीने की इच्छा प्रबल हो जाती है। 

कालसर्प योग से कैसी परेशानी आती है ? जानिए इस लेख में,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

दाम्पत्य जीवन में कभी धन के कारण, कभी संतान के कारण, कभी आचरण के कारण मतभेद उत्पन्न हो, तो श्रेष्ठ पद तथा सामाजिक सम्मान और प्रतिष्ठा के बाद भी जीवन निराशा और उदासी के घोर अंधकार में डूब जाता है, इसलिये जिन लोगों की कुंडली में कालसर्प योग उपस्थित हो, उन कुंडलियों में विवाह हेतु मिलान करते समय इस विषय पर भी गभीरता से विचार करना चाहिए। कुंडलियों में यह परीक्षण करना चाहिए कि एक कुंडली के दोष का संतुलन दूसरी कुंडली के साथ हो रहा है या नहीं। 

उल्लेखनीय है कि दाम्पत्य जीवन के आक्रान्त होने के लिए सप्तम भाव तथा द्वितीय भाव से सम्बन्धित ग्रह तथा उनके स्वामी और वहाँ पर स्थित ग्रहों की भूमिका पर भी गंभीरता के साथ विचार आवश्यक है। यदि किसी कुंडली में कालसर्प योग विद्यमान है तो उपरोक्त सभी स्थितियां उसके जीवन को पीडित नहीं करेंगी। इनमें से कोई एक या दो स्थितियाँ उस व्यक्ति को व्यथित करने के लिए पर्याप्त हैं। किस प्रकार का कालसर्प योग कुंडली में विद्यमान है, व्यक्ति की परेशानी का प्रकार इस पर निर्भर करता है। कालसर्प योग अनेक प्रकार के होते हैं जिनका विस्तृत विवेचन अग्रिम लेखों में करेंगें। 

संक्षिप्ततः यह ज्ञान आवश्यक है कि यदि समस्त ग्रह राहु और केतु की धुरी के मध्य स्थित हों, तो कुंडली के जिन भावों को वह प्रभावित करते हों तथा उन भावों के स्वामी भी यदि आक्रान्त हों, तो कालसर्प योग का विष जीवन को सुगम नहीं रहने देता। अनेक प्रकार से आक्रान्त कर देता है। योग्यता, प्रतिभा, परिश्रम तथा सम्यक् प्रयास के पश्चात भी अपेक्षित सफलता नहीं प्राप्त होती है।


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