वास्तुशास्त्र
अपनी माता के आंचल में शिशु निश्चिन्त रहते हुये बालपन का भरपूर आनन्द प्राप्त करता है। परन्तु जैसे-जैसे उम्र बढती जाती है, तो अनेक प्रकार की जिम्मेदारियां आ जाती है तथा भविष्य के प्रति चिन्ता बढने लग जाती है। हमारा और प्रकृति के बीच भी इसी प्रकार सम्बन्ध है। जितना प्रकृति के निकट रहेंगे उतना ही आनन्द मिलता रहेगा तथा जितना प्रकृति से दूर होंगे उतनी ही बाधायें उत्पन्न होगी। मनुष्य अन्य जीवों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान है इसलिये बुद्धि का प्रयोग प्रकृति के समीप रहकर सभी लोगों के हित के लिये करना चाहिये। सम्पूर्ण विश्व पञ्चमहाभूतों से निर्मित है। पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु तथा आकाश नामक तत्त्व ही पञ्चमहाभूत है।
पृथ्वी पर सभी प्राणी तथा अन्य तत्त्व इन्हीं पॉंच तत्त्वों से बने हुये है। इन्हीं पॉंच शक्तियों की परस्पर निर्भरता तथा आन्तरिक प्रक्रिया एक दूसरे से विरोधी और अपकर्षक प्रकृति रखते हुये आपस में एक अदृश्य समीकरण का कार्य करती है। जिसे मानव नहीं समझ पाता है। प्रकृति ने सुन्दर पुष्प, वृक्ष, पर्वत, नदियां, तालाब, समुद्रतट, सुन्दर आकृति, सुन्दर शरीर आदि बनायें है। परन्तु अपने लिये सुन्दर सुख-सुविधायुक्त भवन व्यक्ति की अपनी रचना होती है। मनुष्य ही नहीं चूहे, दीमक, भृंगी, मधुमक्खी, मकडी, रेशम के कीड़े, चींटी विविध प्रकार के पक्षी तथा जंगली पशु आदि भी स्वयं के निवास हेतु प्रेरित रहते है। यह प्रेरणा उसी दैवी शक्ति द्वारा प्रदत्त है, जिसके द्वारा इस ब्रह्माण्ड की रचना हुई है। प्रत्येक जीव सच्चिदानन्द का अंश मात्र माना गया है, और इसी कारण उसमें आत्मरक्षा तथा सुख से रहने की प्रवृत्ति स्वभाव में ही रची बसी है। इसी स्वभाव का परिणाम भवन निर्माण है।
स्वयं का सुन्दर घर, कार्यालय, औद्योगिक प्रतिष्ठान, दुकान, व्यावसायिक केन्द्र, शिक्षा संस्थान, चिकित्सालय या अन्य प्रकार के आवासीय एवं व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के लिये प्राचीन वास्तुशास्त्रीय सिद्धान्त बने हुये है। लेकिन आधुनिक परिवर्तनशील युग में समय के साथ वास्तु सिद्धान्तों में व्यावहारिक परिवर्तन कर लेना आवश्यक है। प्रत्येक मनुष्य अपने घर का सपना देखता है और अपनी आवश्यकतानुसार प्रयास भी करता है। सुन्दर तथा सुव्यवस्थित घर ही हमारे पारिवारिक जीवन की एकान्तता को सुरक्षित रख सकता है। अपने घर में प्राणी स्वर्ग को अनुभव करता है। परन्तु यदि घर हमारी सोच के अनुकूल न हो तो बहुत धन खर्च करने के बाद भी अपेक्षित सुख-शान्ति नहीं मिल पाती। इसलिये भवनादि की विशालता महत्त्व नहीं रखती अपितु स्वयं की आवश्यकता को पूरा करने वाला छोटा सा घर भी स्वर्ग के समान होता है।
वास्तु का सामान्य अर्थ गृह अथवा भवन होता है। इसकी पृष्ठभूमि मानवों से पूर्व देवताओं तथा ऋषि-मुनियों से जुडी है। कहा जाता है कि अन्धक से युद्ध के समय शिवजी के शरीर से जो पसीने की बूँदे गिरी थी, उससे वास्तु पुरुष का जन्म हुआ था। एक अन्य मत के अनुसार त्रेतायुग के मध्य में एक महाभूत पुरुष उत्पन्न हुआ, उसने उत्पन्न होते ही सम्पूर्ण भुवन को व्याप्त कर लिया। ब्रह्मा ने इस पुरुष की रचना भाद्रकृष्ण तृतीया में की थी तथा उस दिन शनिवार, कृतिका नक्षत्र व्यतिपात योग तथा विष्टि करण था। भद्राओं के मध्य कुलिक योग में जन्मे उस पराक्रमी पुरुष ने घोर शब्द करके सब को भयभीत कर दिया। तब उस पुरुष को वास्तु पुरुष की संज्ञा प्राप्त हुई।
वेदों के अनुसार वास्तुपुरुष वास्तोष्पति नामक प्राचीन वैदिक देवता का ही आवान्तर रूप है। रुद्र प्रजापति ने उषा के साथ विवाह किया और उससे चार पुत्र उत्पन्न हुये। चौथे का नाम वास्तोष्पति या गृहपति पडा। सायणाचार्य ने इसे यज्ञ-वास्तु स्वामी की संज्ञा दी। जो यज्ञीय कर्म का रक्षक था एवं यज्ञ वेदी का अधिनायक था, वहीं आगे चलकर सभी भावों के पदों का स्वामी बना। वास्तु विद्या की शास्त्रीय परम्परा का वर्णन अनेक प्राचीन ग्रन्थों में प्राप्त होतो है। मत्स्य पुराण में वास्तुशास्त्र के अठारह आचार्यों का वर्णन मिलता है, परन्तु अग्निपुराण में पच्चीस आचार्यों का उल्लेख है। मानसागर में वास्तुशास्त्र के बत्तीस आचार्यों का उल्लेख है। तथा विश्वकर्मा प्रकाश में गर्ग, पराशर, बृहद्रथ तथा विश्वकर्मा आदि चार ही वास्तुशास्त्र के आचार्य बनाये है।
इनमें मत्स्यपुराणोक्त वास्तुशास्त्रियों की नामावली ही विश्वसनीय प्रतीत होती है, क्योंकि अग्निपुराण और मानसागर में वर्णित बहुत से नाम ऐसे है जो वास्तु के विशेषज्ञ न होकर कुछ तो ज्ञान-विज्ञान के देवता, कुछ वैदिक-पौराणिक ऋषि, कुछ असुर तथा कुछ सामान्य शिल्पज्ञ है।
वैदिक समय में वास्तुशास्त्र का विकास हो चुका था। वैदिक साहित्य में वास्तु ज्ञान से सम्बन्धित अनेक तत्त्व प्राप्त होते है। वेदों में घर को गृह, हर्म्य, सदन, दम, दुरोण, अस्त, शरण तथा पस्त्या आदि अन्य नामों से भी सम्बोधित किया गया है। इसके अतिरिक्त वास्तुशास्त्रीय सैद्धान्तिक विवेचन तथा निर्माण विधियों के सबसे प्राचीन अंश अथर्ववेद में भी उपलब्ध होते है। यही एक ऐसा प्राचीन ग्रन्थ है जिसमें भवन की वैदिक गोष्ठी शाला, भण्डारगृह, अन्त:पुर, यज्ञशाला तथा अतिथि गृह जैसे महत्त्वपूर्ण भागों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। इसके बाद भी पूर्वमध्यकालीन युग में भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता का निरन्तर विकास होता रहा तथा वास्तुशास्त्र का ज्ञान निरन्तर आगे बढता रहा।
आज वास्तुशास्त्र में आधुनिकता का समावेश हो चुका है। वर्तमान युग वैज्ञानिक युग है, आधुनिक वास्तुशास्त्र मनुष्य की आवश्यकताओं के आधार पर गृह की योजना बनाता है। आधुनिक वास्तुशास्त्र को अंग्रेजी में आर्किटेक्चर कहा जाता है। जहॉं तक संभव हो सकें गृह में निवास करने वाले मानवों की दिन-प्रतिदिन की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। ऐसे घर का निर्माण करना ही आर्किटेक्चर का लक्ष्य है।