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Tuesday, 8 November 2016

पुराणों की उत्‍पत्ति

Posted by Dr.Nishant Pareek
                     पुराणों की उत्पत्ति
   
           पुराण के आविर्भाव के विषय में पुराणों तथा इत्तर शास्त्रों में अनेक सूत्र यत्र-तत्र बिखरे पडे है। इनकी एकत्र समीक्षा करने पर अनेक तथ् उभर कर सामने आते है। परम्परा के अनुसार पुराण एक विद्या है जो अनादि है। संस्कृत वाङ्मय में जो चौदह विद्याओं की अनेक गणना मिलती है। उनमें पुराण विद्या को प्रमुख स्थान प्राप् है। महर्षि याज्ञवल्क् ने विद्याओं में पुराण को प्रथम स्थान दिया है। ( याज्ञ. स्मृ. 1.3)  पुराणों में स्पष् बताया गया है कि पहले एक ही पुराण था, वह बहुत विस्तृत कई कोटि की ग्रन् संख्या में था। (स्कन् पुराण-रे.मा.1.23.30)         कलियुग के आरम् में मनुष्यों की स्मरण शक्ति और विचार बुद्धि की दुर्बलता को देखकर महर्षि व्यास ने जहाँ वेद को चार संहिताओं में बॉंट दिया वहीं पुराण को भी संक्षिप् करके अठ्ठारह भागों में बॉंट दिया। पुराण की उत्पत्ति के विषय में पुराणों का मत है कि ब्रह्मा ने सम्पूर्ण शास्त्रों के आविष्कार से पूर्व पुराण का स्मरण किया था। उसके बाद उनके मुख से वेदों का आविर्भाव हुआ था।( वायु पुराण 1.61) पुराण प्रमाण के अनुसार पुराण का आविर्भाव वेद से भी पहले हो गया था। यह स्पष् है। किन्तु भारतीय मनीषा ऋग्वेद को सर्वप्राचीन मानती है। पुराण शास्त्र विशारद वेद व्यास ने वेद विभाजन के पश्चात् प्राचीन आख्यानों, उपाख्यानों, गाथाओं तथा कल्पशुद्धियों के सहित एक पुराण संहिता की रचना की थी। ( विष्णु पुराण - 3.6.15)
          श्रुति में पुराण की वेदसमकक्षता प्रदर्शित कर कहा गया है कि ऋक्, साम, छन्दस और पुराण के समस् साहित् यजुस् के साथ उत्पन् हुये है। (अथर्व वेद - 99.7.24) श्रुतिप्रमाण् से भी पुराण वेद के समकालीन सिद्ध होता है। ब्राह्मण ग्रन् पुराण को वेद से अभिन् और उपनिषद् वेद से समान पुराण को ईश्वर का ही नि:श्वास मानते है। (.ब्रा. 14.3.3.13 )
 चिरकाल से जीवित रहने के कारण यह वाङ्मय पुराण नाम से प्रख्यात है। पुराणोत्तपत्ति के विषय में उपर्युक् शास्त्रीय मान्यताओं के पर्यालोचन से इतना स्पष् है कि प्राचीन समय में पुराण एक ही था। वह एक विद्या के रूप में जाना जाता था। उसका आविर्भाव वेद से पूर्व ही हो चुका था। वह वेद के ही समकक्ष तथा वेद के समान ही परमात्मा का नि:श्वास था। उसी प्राचीन पुराण विद्या को वेद व्यास ने संहितात्मकरूप देकर अठ्ठारह भागों में विभक् किया है।
          विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि पुराण के विकास में दो धाराये है। व्यास पूर्व धारा और व्यासोत्तर धारा। महर्षि व्यास का मुख् कार्य पुराणसंहिता का निर्माण था। अत: पुराणों को सुव्यवस्थित रूप देना वेद व्यास का लोकोत्तर कार्य था। परन्तु पुराण का अस्तित् तो व्यास से पूर्व भी प्रचलित था। जिसका संकलन कार्य वेद व्यास के अथक प्रयास से हुआ।
          एक पौराणिक मान्यता के अनुसार चतु: सहस्रात्मक पुराण संहिता का विस्तार चतुर्लक्षात्मक अष्टादश पुराणों के रूप में है और दूसरी मान्यता के अनुसार देवलोक में विद्यमान शतकोटि श्लोकात्मक पुराण का संक्षिप् रूप चतुर्लक्षात्मक अष्टादश पुराणों के रूप में किया गया है। एक प्राचीन संक्षिप् पुराण का विस्तार और दूसरा मत प्राचीन विस्तृत पुराण का संक्षेप स्वीकार करता है। किन्तु दोनों तथ् इस बात पर सहमत है कि पुराण के प्रणयन में वेद व्यास ही मुख् रूप से सक्रिय रहे। इस पुराण साहित् के निर्माण का श्रेय कृष्णद्वैपायन मुनि को है। जहॉं तक पुराण के वेद से पूर्व उत्पन् होने की बात है, वह मत्स् पुराण की अपनी कल्पना है। श्रीमद्भागवत् पुराण की उत्पत्ति वेद के पश्चात् ही मानता है।( भागवत पुराण - 3.12.32 ) पौराणिक मत प्राचीनतम् पुराण को ब्रह्मा के मुख से आविर्भूत मानने में एकमत है और यह स्पष् स्वीकार करता है कि ब्रह्मा ने ही व्यास रूप में लोक कल्याण की भावना से पुराण का अष्टादश विभाग किया है। (पद्म पुराण, सृष्टि खण् - .1 )

          पुराण के प्राचीन स्वरूप के पश्चात् इसकी नवीनता वर्तमान स्वरूप पर भी विचार किया जाना चाहिये। यह समझ लेना जरूरी है कि सम्प्रति जो पुराण उपलब् है, वे सभी पूर्ण रूप से व्यास रचित मूल रूप में है अथवा समयानुसार उनमें संशोधन परिवर्धन भी हुआ। पाश्चात् विद्वान् पुराण साहित् का परिशीलन करके इस परिणाम पर पहुँचे है कि वर्तमान उपलब् पुराण प्राचीन होकर अर्वाचीन है। भारतीय विद्वान् भी पुराण के मूल अंश को अत्यन् प्राचीन मानकर भी आज के प्राप् पुराणों की रचना और भाषा की दृष्टि से सर्वथा प्राचीन नहीं मानते है।
          यद्यपि विषय की दृष्टि से वर्तमान उपलब् पुराणों के अधिकांश रूप परवर्ती अवश् है, किन्तु पाश्चात् विद्वानों ने इन्हें जितना आधुनिक माना है, ये उतने आधुनिक नहीं है। इसमें सम्भावना यह बनती है कि प्राचीन साहित् की पुराण चर्चा का समावेश कालक्रम से आधुनिक उपलब् पुराणों में हो गया और पुराणों ने प्राचीन साहित् के साथ-साथ अन् नवोदित शास्त्रों को अपने में समेटना आरम् कर दिया। फलस्वरूप पञ्चलक्षण पुराणों में सृष्टि, प्रलय, पुन: सृष्टि एव देव ऋषियों की वंशावली, मनु का काल-विभाग तथा राजवंशों का इतिहास आदि विषयों का समावेश हुआ।
          महाभारत काल में ही वैदिक संहिताओं के समान पौराणिक साहित् का भी संघटन आरम् हुआ। उस समय वेद व्यास ने पुराणों की रचना की। यदि सभी पुराणों को व्यास की रचना भी माना जाये तो भी इतना तो अवश् है कि उसी समय प्राचीन-पुराण परम्परा का संकलन और सम्पादन प्रारम् हुआ और उनके मुख् विषय पूर्वोक् पॉंच हुये। पुराणों में अपने विस्तार की अनन् शक्ति थी। अत: प्रत्येक आगत युग में उसमें नवीन सामग्रियाँ जुउती गयी। कथा भाग के साथ ही नूतन विषयों का समावेश हुआ। देश में प्रचलित समस् ज्ञान स्त्रोतो को यथासम्भव आत्मसात करके पुराणों ने विपुल वाङ्मय का रूप धारण किया। ( विष्णुपुराण का भारत, भूमिका, पृ.-7 डॉ. सर्वानन् पाठक।)   

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