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Thursday, 3 April 2025

ज्योतिषशास्त्र के विभाग व उनके अंग / jyotish shastra ke vibhag or unke ang

Posted by Dr.Nishant Pareek

 ज्योतिषशास्त्र के विभाग व उनके अंग-


                   प्राचीन काल से लेकर आज तक ज्योतिष के तीन विभाग प्रचलित है- (1) होरा, (2) गणित या सिद्धान्त, (3) संहिता । समय के साथ ज्ञान वृद्धि होने से इनमें और भी अनेक तत्वों का समावेश हुआ। परन्तु ज्योतिष शास्त्र का प्रमुख आधार उपरोक्त तीन तत्व ही है। इनमें से किसी एक तत्व के न होने पर यह शास्त्र अधूरा रह जाता है। 

(1) होरा - 

                        इसे जातक शास्त्र भी कहते है। इसकी उत्पत्ति अहोरात्र शब्द से हुई है। प्रथम शब्द अ तथा अन्तिम शब्द त्र का लोप होने से होरा शब्द निर्मित हुआ है। इसमें जन्म के समय के ग्रहों की स्थिति को देखकर शुभ-अशुभ फल कहा जाता है। इसमें जन्म कुण्डली के बारह भावों, उनमें स्थित राशियों तथा ग्रहों को देखकर, ग्रहों की परस्पर दृष्टियों को देखकर फलादेश किया जाता है। प्राणी के सभी प्रकार के कर्म, सुख-दुःख, इष्ट-अनिष्ट, उन्नति-अवनति, भाग्योदय, कार्य क्षेत्र, स्वास्थ्य, धन-सम्पत्ति, बन्धुबान्धव, भवन, वाहन, पत्नी, संतान, विद्या, रोग, यात्रा, लाभ-हानि, आय व्यय, आदि का फल ग्रहों की स्थिति को देखकर किया जाता है। इसमें जन्म नक्षत्र तथा जन्म लग्न आदि-द्वादश भाव, दोनों तरह से फलादेश किया जाता है। समय के साथ-साथ इस शास्त्र में भी अनेक संशोधन व परिवर्तन हुये। इसके प्रधान रचनाकार वराहमिहिर, नारचन्द्र, सिद्धसेन, ढुण्डिराज, केशव आदि है। आचार्य वराहमिहिर ने इस शास्त्र में अनेक नवीन तत्वों का समावेश किया था। नारचन्द्र ने ग्रह, राशियों के स्वरूप भाव तथा ग्रह दृष्टि का समन्वय व कारक, मारक आदि ग्रहों के सम्बन्धों को देखकर फलादेश करने की प्रक्रिया आरम्भ की। श्रीपति एवं श्रीधर आदि नवम, दशम तथा एकादश शताब्दी के होरा शास्त्र आचार्यों ने ग्रहबल, ग्रहवर्ग, विंशोत्तरी आदि दशाओं के फलों को इस शास्त्र में मिश्रित कर लिया था। 

(2) गणित या सिद्धान्त- 

                                       ज्योतिष के इस भाग में त्रुटि से लेकर कल्प काल तक की गणना, सौर, चान्द्रमासों का वर्णन ग्रह-गतियों का वर्णन, व्यक्त-अव्यक्त गणित का प्रयोजन, विविध प्रश्नोत्तर विधि, ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति, अनेक यन्त्रों की निर्माण विधि दिशा, देश काल ज्ञान हेतु गणित विधि, अक्षक्षेत्र सम्बन्धी अक्षज्या, लम्बज्या, धुज्या, कुज्या, समशंकु आदि की गणना का कार्य होता है। प्राचीन काल में इसकी परिभाषा सिद्धान्त गणित के रूप में ही मानी जाती थी। आदिकाल में अंकगणित द्वारा ही अहर्गण मान साधन के द्वारा ग्रहों का आनयन किया जाता था। उत्तर-मध्यकाल लगभग ई 1001-ई. 1600 तक के समय में इस शास्त्र में और विकास हुआ। इसमें अनेक नवीन तत्वों का समावेश हुआ। इस काल में गणित के तीन भेद हो गये। (1) सिद्धान्त, (2) तन्त्र, (3) करण। सिद्धान्त में सृष्टयादि से इष्ट दिन पर्यन्त अहर्गण बनाकर ग्रह सिद्ध किये जाते है। तन्त्र में युगादि से इष्टदिन पर्यन्त अहर्गण बनाकर ग्रहगणित किया जाता है। करण में कल्पित इष्ट वर्ष का युग मानकर उस युग के अन्दर ही किसी अभीष्ट दिन का अहर्गण लाकर ग्रहानयन किया जाता है। 

                  परन्तु उत्तर मध्यकाल के अन्त में इस शास्त्र का विकास अवरुद्ध सा हो गया। उस समय के विद्वानों ने गणित क्रिया करना बन्द कर दिया। तथा उपपत्ति विषयक गणित का ही उपयोग करने लगे। जिससे आकाशीय, खगोलीय, परिवर्तन पर हर समय नजर नहीं रह पाई और यह शास्त्र आगे वृद्धि नहीं कर पाया। आरम्भ में जो सारणियाँ निर्मित की थी। बहुत लम्बे समय तक उन्हीं का उपयोग होता रहा। उनमें समय के साथ कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इस प्रकार इस शास्त्र में अनेक रुकावटे आई, जिससे यह अविकसित रह गया। 

(3) संहिता - 

                       इस शास्त्र में भूशोधन, दिक्शोधन, शल्योद्धार, मेलापक, आयाद्यानयन, गृहोपकरण, इष्टिका द्वार, गेहारम्भ गृहप्रवेश, जलाशय-निर्माण, मांगलिक कार्यों के मुहूर्त, उल्कापात, वृष्टि, ग्रहों के उदय व अस्त का फल, ग्रहचार फल, सूर्य चन्द्र ग्रहण फल, आदि बातों का विस्तृत विवेचन है। नवम शताब्दी में क्रिया काण्ड भी इसमें सम्मिलित हो गया। इस शास्त्र का जन्म आदिकाल में हुआ था। तत्पश्चात् इसमें समय के साथ-साथ और भी विकास हुआ। कुछ विद्वानों ने आयुर्वेद को भी इसमें समाहित कर दिया। 12-13 वीं शताब्दी में इस शास्त्र में और विकास हुआ तथा जीवन के सभी उपयोगी तत्वों का समावेश हो गया। संहिता ग्रन्थों में राष्ट्र विषयक शुभ-अशुभ फल जानने की क्रिया है। यहाँ जातक शास्त्र की तरह व्यक्तिगत फलादेश कम मात्रा में प्राप्त होता है। वाराही संहिता के आरम्भ के 11 अध्यायों में सूर्य, चन्द्रमा, राहु, केतु तथा अन्य ग्रहों के गमन तथा उससे संसार में होने वाले शुभ-अशुभ फलों का वर्णन है। 12 - 13 अध्यायों में अगस्त्य तथा सप्तर्षियों के उदय व अस्त का फल है। 14 वें अध्याय में भारत वर्ष के नौ विभाग मानकर उनके अन्तर्गत आने वाले देशों पर जिन नक्षत्रों का अधिकार है, उनका वर्णन है। 

                      नक्षत्र व्यूह तथा ग्रहों के शत्रु-मित्रता का फल है। वर्षफल का विवरण है। इसके पश्चात् श्रृंगाटक प्रकरण है। इसमें सूर्य अथवा किसी नक्षत्र के पास एक ही समय सभी या कुछ ग्रहों के एकत्रित होने से जो धनुष अथवा श्रृंग के समान आकृतियाँ बनती है। उनके फल बताये गये है। उसके बाद पर्जन्य गर्भलक्षण, गर्भधारण, वर्षा लक्षण, चन्द्रमा से रोहिणी, स्वाती, आषाढ, तथाभाद्रपद के योग के फल, सधोवर्षण, कुसुमफल लक्षण, दिग्दाह, भूकम्प, उल्का, परिवेश, इन्द्रधनुष, गन्धर्वनगर, प्रतिसूर्य, तथा निर्घात आदि का वर्णन है। तत्पश्चात् धान्यादि के मूल्य, इन्द्रध्वज तथा नीराजन वर्णन, खञ्जन नामक पक्षी के दर्शन का फल, दिव्य, भौम, अन्तरिक्ष आदि उत्पातों का वर्णन, मयूर चित्रक प्रकरण, राजोपयोगी पुष्य स्नान, पट्टलक्षण, खड्गलक्षण, वास्तु प्रकरण, भूमि में पानी मिलने का स्थान, वृक्षायुर्वेद, प्रासाद-लक्षण, वज्र लेप प्रकरण, देव प्रतिमाविचार, वास्तु प्रतिष्ठा, दीप लक्षण, दन्त धावन, शकुन विचार, श्वान तथा श्रृंगाल की ध्वनि का फल, तिथि, नक्षत्र, करण तथा गोचर ग्रहों के फल का वर्णन है। 

               ज्योतिष शास्त्र के इन तीन विभागों का उपयोग इसके अनेक अंगों द्वारा होता है। वे अंग जन सामान्य में प्राचीन काल से आधुनिक काल तक प्रचलित है, जो इस प्रकार है- 

1. रमलशास्त्र 

                        रमलशास्त्र बहुत ही सटीक क्रिया है। लेकिन इस विद्या का ज्ञान बहुत ही कम विद्वानों को है। इसलिये यह विद्या लुप्त प्रायः हो गई है। इसमें पासों का प्रयोग होता है। पासों पर कुछ विशेष चिह्न बने होते हैं। उन पासों को हाथ में मसलकर फेंकने पर उन चिह्नों की जो स्थिति बनती है, उस स्थिति के अनुसार ही प्रश्न का उत्तर दिया जाता है। इसे अनेक विद्वान् पाशक विद्या भी कहते है। रमल शब्द अरबी भाषा का शब्द है। इससे यह प्रतीत होता है कि यह विद्या अरब देशों से भारत में आई है। परन्तु ऐसा नहीं है। यह विद्या भारतीयों द्वारा ही उत्पन्न की गई है। जिसका मुस्लिम राजाओं ने अपने समय में अरबी भाषा में अनुवाद करवाया। इसके मूल संस्कृत ग्रन्थ लुप्त हो गये थे। तथा समय बीतने के साथ अरबी भाषा के ग्रन्थों से ही संस्कृत ग्रन्थों की पुनः रचना हुई। रमल शास्त्र पर अनेक ग्रन्थ मिलते है। परन्तु सटीक ग्रन्थ कौनसा है, यह निश्चित करना असम्भव है।  

2. मुहूर्तशास्त्र 

                       इस शास्त्र द्वारा सामाजिक जीवन में होने वाले प्रत्येक शुभ कार्य का समय निश्चित किया जाता है। जिससे वह कार्य शांति पूर्वक शुभ समय पर आरम्भ होकर शुभ समय में ही समाप्त हो सके। मुहूर्त विचार किये बिना कार्य आरम्भ करने से अनेक रूकावटों का सामना करना पड़ता है। समय का प्रभाव प्रत्येक चर अथवा जड वस्तु पर होता है। इसलिये प्राचीन विद्वानों ने विवाह, देव प्रतिष्ठा, यात्रा, गृहारम्भ, गृहप्रवेश, आदि कार्यों के लिये शुभ समय का निर्धारण किया है। जिससे सभी कार्यों को शुभ समय में पूर्ण करके लाभ प्राप्त किया जा सके। मुहूर्त शास्त्र पर अनेक ग्रन्थों की रचना हुई है। प्राचीन विद्वानों ने किसी भी कार्य के मुहूर्त में क्रूरासन्न, दूषित, उत्पात, लता, विद्धपात, राशिवेध, युति, बाणपञ्चक, तथा जामित्र त्यागने योग्य बताया है। सूर्य दग्धा तथा चन्द्रदग्धा तिथियों का वर्णन है। मुहूर्त शास्त्र पर शक् संवत् 1420 में नन्दिग्राम निवासी केशवाचार्य ने मुहूर्त तत्व नामक ग्रन्थ की रचना की।             

               शक संवत् 1413 में नारायण ने मुहूर्त्तमार्तण्ड की रचना की। शक संवत् 1522 में रामभट्ट ने मुहूर्त चिन्तामणि की रचना की। शक संवत् 1549 में विट्ठल दीक्षित ने मुहूर्त कल्पद्रुम की रचना की। इनके आधार पर प्राचीन काल से लेकर आज तक सभी शुभ कार्यों के शुभ समय निश्चित किये जाते है। 

3. निमित्त शास्त्र 

                             इस शास्त्र में बाहरी निमित्तों को देखकर घटित होने वाले शुभाशुभ फलों का वर्णन किया जाता है। हमारे आस-पास के वातावरण में घटित होने वाले सभी प्रकार के शुभ-अशुभ, लाभ-हानि, सुख-दुःख, जीवन-मरण आदि कर्मों पर आधारित है। प्राणी जिस प्रकार के कर्मों को संचित करता है, उसे उन कर्मों के अनुरूप ही फल भोगना पड़ता है। बाहरी निमित्तों से भविष्य में घटने वाली घटनाओं की जानकारी प्राप्त होती है। निमित्त शास्त्र के तीन भेद है (1) पृथ्वी पर दिखाई देने वाले निमित्तों के द्वारा फल का कथन करने वाला निमित्त शास्त्र। (2) आकाश में दिखाई देने वाले निमित्तों से फल कहने वाला निमित्त शास्त्र। (3) श्रवण शब्द मात्र से फल कहने वाला निमित्त शास्त्र। 

                       आकाशीय निमित्तों में सूर्योदय के पहले तथा अस्त होने के बाद चन्द्रमा, नक्षत्र तथा उल्का आदि के गमन व पतन को देखकर शुभाशुभ कहना चाहिये। इस शास्त्र में दिव्य, अन्तरिक्ष तथा भौम उत्पातों का वर्णन विस्तार से किया गया है। 

4. स्वप्नशास्त्र 

                           प्राचीन विद्वानों के अनुसार मानव द्वारा किये हुये संचित कर्मों के अनुसार शुभ-अशुभ फल घटित होते है। इस शास्त्र में स्पष्ट किया है कि कर्म में रत रहने वाले प्राणी के क्रिया कलाप ही उसे भूत व भविष्य काल में होने वाली घटनाओं की सूचना देते है। स्वप्न का कारण मानव का आन्तरिक ज्ञान का आवरण तथा बाहरी दर्शनीय आवरण होता है। जो व्यक्ति हमेशा कर्मों में लगा रहता है, उसके स्वप्न का फल उतना ही सत्य होता है तथा जो कर्म नहीं करते उनके स्वप्न निरर्थक होते है। शयन की अवस्था में इन्द्रियाँ तथा मन शिथिल हो जाते है। परन्तु आत्मा जागृत रहती है। आत्मा के प्रकाश में ही स्वप्न दिखाई देते है। इस प्रकाश में जो दिखाई देता है, उसका सम्बन्ध व्यक्ति के भूत, भविष्य तथा वर्तमान से होता है। प्राचीन स्वप्न शास्त्रों के अनुसार भी स्वप्न मानव को घटने वाली घटनाओं की सूचना देता है। इस शास्त्र में स्वप्न द्वारा शुभ-अशुभ फल बताया जाता है। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने ईश्वर को सृष्टि का निर्माता माना है तथा स्वप्न को ईश्वर से प्रेरित इच्छाओं का फल बताया है। 

स्वप्न सात प्रकार के बताये गये है 

(1) दृष्ट- जो जागृत अवस्था में देखा हो, उसे ही स्वप्न में देखें। 

(2) श्रुत- सोने से पहले किसी से सुना हो, उसे ही स्वप्न में देखें। 

(3)  अनुभूत- जिसका जागृत अवस्था में किसी तरह से अनुभव किया हो तथा उसे ही स्वप्न में देखें। 

(4) प्रार्थित- जिसकी जागृत अवस्था में प्रार्थना की हो, उसे ही स्वप्न में देखें। 

(5) कल्पित- जिसकी जागृत अवस्था में कल्पना की हो तथा उसी को स्वप्न में देखें। 

(6) भाविक- जो न कभी देखा हो और न सुना हो, उसे स्वप्न में देखें। 

(7) वात, पित्त, कफ के विकृत होने पर दिखाई देने वाला स्वप्न। 

इन सात प्रकार के स्वप्नों में भाविक स्वप्न ही अधिकतर फलदायी होता है।  

5. स्वरशास्त्र 

                        ज्योतिष में स्वर शास्त्र का बहुत महत्त्व है। नासिका छिद्रों से लिया जाने वाला श्वास जो वायु के रूप में हमारे शरीर में आवागमन करता है, इसी श्वास को स्वर कहा जाता है। इस स्वर द्वारा फलादेश करना ही स्वर शास्त्र कहलाता है। इसमें फलादेश करने वाला व्यक्ति अपने श्वास के आवागमन से शुभाशुभ फल का विवेचन करता है। इस सिद्धान्त का आधार प्रश्न करने वाले का अदृष्ट होना है। क्योंकि उसके अदृष्ट होने का प्रभाव उस वातावरण पर पड़ता है। इसी से वायु प्रश्न करने वाले के अदृष्टानुकूल बहने लगती है। 

                         नाक के दायें छिद्र से चलने वाला स्वर सूर्य स्वर कहलाता है तथा बांये छिद्र से चलने वाला स्वर चन्द्र स्वर कहलाता है। यदि दोनों छिद्रों से श्वास चले तो वह सुषुम्ना स्वर कहलाता है। सूर्य स्वर को शिव के समान माना है तथा चन्द्र स्वर को देवी के समान माना गया है। सुषुम्ना स्वर को काल के समान माना गया है। स्वर शास्त्र के अनेक लाभ बताये गये है। इसके द्वारा सभी रोगों का नाश होता है। इसके नियमित अभ्यास से व्यक्ति शारीरिक व मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ रहता है। इसमें बताया है कि रात्रि में सोते समय करवट लेकर सोयें। सीधे सोने से सुषुम्ना स्वर चलता है जिससे रात्रि में नींद नहीं आती है। डरावने सपने आते है। भोजन करने के पश्चात आधा घण्टा आराम करना चाहिये। उसमें सर्व प्रथम बांयी करवट लेटें। उसके पश्चात् दायीं करवट लेटें। इस तरह से भोजन का पाचन सुचारू रूप से होता है। भोजन सूर्य स्वर में ही करना चाहिये। भोजन के तुरन्त पश्चात् मूत्र त्याग नहीं करना चाहिये। बांये स्वर में मूत्र त्याग करें तथा दांये स्वर में मल त्याग करना चाहिये । इच्छित संतान की प्राप्ति हेतु भी स्वर के अनुसार भोग क्रिया करने का विधान है। स्वर शास्त्र द्वारा प्राचीन काल से आधुनिक काल तक अनेक लोग लाभान्वित हुये है। परन्तु इसका लाभ निरन्तर-प्रतिदिन अभ्यास करने पर मिलता है। 

6. सामुद्रिक शास्त्र 

                              इस शास्त्र में मानव अंगों के शुभ-अशुभ लक्षणों को देखकर फल कहा जाता है। मानव के अंगों में सर्वश्रेष्ठ अंग हाथ है। जिसके द्वारा मानव नित्य अनेक प्रकार के कार्य करता है। इसलिये इस शास्त्र में मुख्य रूप से हाथ का विचार किया गया है। जन्म कुण्डली के समान हाथ में भी ग्रहों के स्थान होते है। तर्जनी ऊँगली के नीचे बृहस्पति, मध्यमा के नीचे शनि, अनामिका के नीचे सूर्य, कनिष्ठिका के नीचे बुध तथा अंगुठे के नीचे शुक्र ग्रह का स्थान होता है। मंगल ग्रह के दो स्थान होते है -1. तर्जनी ऊँगली के नीचे बृहस्पति ग्रह के नीचे जहाँ से जीवन रेखा आरम्भ होती है, वहाँ से अंगूठे के मूल तक, (2) बुध तथा चन्द्र ग्रह के स्थान के बीच में हृदय रेखा के पास में हाथ में रेखाओं से भी फल कहा जाता है। तर्जनी ऊँगली के नीचे से जीवन रेखा आरम्भ होकर हथेली के मूल में मणिबन्ध तक जाती है। जीवन रेखा के आरम्भिक स्थान से एक रेखा और निकलती है जिसे मस्तिष्क रेखा कहते है। वह चन्द्र ग्रह पर जाती है। बुध ग्रह के नीचे विवाह रेखा होती है। विवाह रेखा के नीचे से हृदय रेखा आरम्भ होती है। जो बृहस्पति ग्रह पर जाती है। हथेली के नीचे मणिबन्ध रेखा होती है। 

                    यहाँ ग्रह तथा रेखाओं के परस्पर सामञ्जस्य को देखकर फलादेश होता है। यथा कोई ग्रह का स्थान ऊपर उठा हुआ है तो वह शुभता का संकेत है। यदि नीचे दबा हुआ हो तो अशुभता का संकेत होता है। रेखाओं के रक्त वर्ण होने पर व्यक्ति आमोद प्रिय, सदाचारी तथा क्रोधी होता है। यदि अंगुलियाँ सटी हुई, उनके बीच में जगह न हों, चिकनी व मांसल हो, रूखी-सूखी न हो, नाखून सुन्दर व चिकने हो, अंगुलियाँ लम्बी व पतली हो तो ऐसा व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। इस प्रकार सामुद्रिक शास्त्र में फलादेश किया जाता है। 

7. प्रश्नशास्त्र 

                       यह ज्योतिषशास्त्र का प्रमुख अंग है। इसमें तुरन्त प्रभाव से प्रश्न का उत्तर दिया जाता है। प्रश्न करने वाले के प्रश्न के अनुसार बिना जन्मपत्री के उसके द्वारा उच्चारित अक्षरों से प्रश्न का फलादेश किया जाता है। इसके अलावा इसमें प्रश्न पूछने के समय की प्रश्न कुण्डली बनाकर भी प्रश्न का उत्तर दिया जाता है। ईस्वी सन् की 5वीं- 6ठीं शताब्दी में सिर्फ प्रश्न करने वाले के द्वारा उच्चारित अक्षरों से ही फलादेश किया जाता था। परन्तु समयानुसार ज्ञानवृद्धि होने से इसमें फलादेश के दो सिद्धान्त उभर कर सामने आयें- (1) प्रश्नाक्षर सिद्धान्त, (2) प्रश्न-लग्न सिद्धान्त। 

(1) प्रश्नाक्षर सिद्धान्त- 

                                 इसमें प्रश्नकर्ता द्वारा उच्चारित अक्षरों से उसके प्रश्न का उत्तर दिया जाता है। इस सिद्धान्त का मूल आधार मनोविज्ञान है। क्योंकि भिन्न भिन्न मानसिक स्थितियों में भिन्न अक्षरों का उच्चारण होता है। उच्चारित प्रश्न अक्षरों से मानसिक स्थिति का पता लगाकर ही इसमें फलादेश किया जाता है।  

(2) प्रश्न लग्न सिद्धान्त- 

                                  इसमें प्रश्न पूछने के समय की कुण्डली बनाकर उसके द्वारा फलादेश किया जाता है। इस सिद्धान्त का मूल आधार शुभाशुभत्व है। इसमें कुण्डली में स्थित ग्रहों की शुभ अशुभ स्थिति को देखकर फलादेश किया जाता है। 

वराहमिहिर के पुत्र पृथुयशा के समय में प्रश्न लग्न सिद्धान्त का बहुत अधिक प्रचार हुआ। 9-11 वीं शताब्दी में इस सिद्धान्त का बहुत विकास हुआ। केवल ज्ञान प्रश्न चूडामणि, चन्द्रोन्मीलन प्रश्न, आयज्ञान तिलक, अर्हच्चूडामणि आदि इसके प्रमुख ग्रन्थ है। 


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