चौथे भाव में मंगल का शुभ अशुभ फल:-
कुंडली का चौथा भाव भूमि, भवन, वाहन, माता, तथा सुख आदि का होता है।
शुभ फल:-यदि कुंडली में शुभ ग्रह से प्रभावित मंगल चौथे भाव में हो तो
राजा की कृपा से तथा धनी श्रेष्ठी आदि धनाढ़्य व्यक्तियों की कृपा से जातक को सम्मान और वस्त्र तथा भूमि का लाभ अवश्य होता है। राज्य से लाभ मिलता है, यदि जातक राजकीय सेवा में हो तो मंगल की दशा में विशेष लाभ मिलता है, तरक्की होती है अथवा अन्य ग्रहों की दशा में भी जब-जब मंगल का अन्तर आता है, तब-तब उन ग्रहों के साथ स्थापित सम्बन्ध के अनुसार उन्नति के अवसर मिलते हैं। साहसी, पराक्रमी होता है। रण में धीरज रखता है। युद्ध विजयी होता है। सवारी हो, घर हो, माता दीर्घायु होती हैं।
चतुर्थ स्थानस्थ भौम होने से आजीविका खेती से होती है। जमीन से लाभ होता है। मंगल स्त्रीराशियों में होने से ऊपर दिये शुभ फल अधिक मिलते हैं। चौथे स्थान में मंगल सवारी की सुविधा देता है। मंगल चतुर्थभाव में होने से जातक के हाथ और पाँव लम्बे होते हैं। शरीर मजबूत होता है।
अशुभफल : मंगल के पापग्रह से पीड़ित होने पर चौथे भाव से जिन-जिन बातों का विचार किया जाता है (माता, मित्र, सुख, भूमि, गृह तथा वाहन) उन सबके सुख में कमी हो जाती है। चौथे स्थान का मंगल होने से अन्य अनुकूल ग्रहों के शुभ फल मंगल के आगे व्यर्थ हो जाते हैं। जातक दुराग्रही होता है। जातक को दुष्ट स्वभाव वाला बनाता है।
चतुर्थभावस्थ मंगल होने से जातक की बुद्धि पर पर्दा पड़ जाता है अर्थात् विचार बुद्धि नहीं रहती। स्वभाव उद्धत होता है। शरीर सुख नहीं होता है। शरीर बहुत रोग तथा दुर्बलता एवं प्रसूति के समय कष्ट होता है। शरीर में पित्त का आधिक्य होता है। जातक का शरीर बलवान् होकर भी उस पर रोग टूट पड़ते है और शरीर में भारी निर्बलता होती है-सहनशक्ति का अभाव होता है। शरीर में व्रण होते हैं। विशेषत: पीठ में या जलने से व्रण होते हैं । मां को हानि पहुंचाता है। मातृपक्ष से सुख नहीं मिलता। माता-पिता के साथ विरोध होता है।
जातक को अपने मित्र वर्ग से तथा अपने घर के लोगों से भी सगे संबंधियों से भी किसी प्रकार का सुख प्राप्त नहीं होता। भाई और कुटुम्बियों से वैर होता है-जातक अपना देश छोड़ परदेश में वास करता है-तथा वस्त्रहीन भी होता है। कहीं पर भी स्थिरता और चित्तशान्ति नहीं मिलती। जातक किसी का अप्रिय नहीं होता पर स्वयं दूसरों के प्रति द्वेषभाव रखने के कारण द्वेष का पात्र हो जाता है । वाहन से दु:ख होता है। शत्रुओं से भय की प्राप्ति अवश्य होती है। परदेश में निवास होता है। पुराने टूटे-फूटे घर में वास होता है। और वह भी जलता है।
चौथेभाव में मंगल हो तो घर में कलह होता है। घर के झंझटों में व्यस्त रहता है। घर गिरना या आग लगने का भय होता है। दया से हीन और सदा ऋण लेनेवाला होता है। 18 वें, 28 वें, 36 वें तथा 48 वें वर्ष में शारीरिक कष्ट होता है। जातक का उत्कर्ष जन्मभूमि में नहीं होता बहुत कष्ट ही होते हैं। जन्मभूमि से दूर परदेश में उत्कर्ष होता है। अपने उद्योग से ही घर-बार प्राप्त करना होता है। व्यर्थ के कामों में इधर-उधर भटकना पड़ता है। पुत्र नहीं होता है। जातक महाकामी होता है। जातक का अपनी पत्नी के साथ विरोधभाव रहता है। दूसरे के धन की ओर, दूसरे की स्त्री की ओर चित्त लालायित रहता है।
चौथे भौम होने से सुख नहीं होता-मानसिक पीड़ा रहती है। चतुर्थ मंगल होने से परिवार नहीं होता, जातक स्त्रीवशवर्ती होता है। निर्दय तथा ऋणग्रस्त होता है। बहुत घूमनेवाला, झगड़ालू, मां-बाप का घात करनेवाला तथा सुखहीन होता है। व्यवहार में झंझटें और झगड़े बहुत होते हैं। जातक पागल जैसा मालूम होता है, और बहुत गलतियां करता है। किसी को सम्पत्ति का सुख मिलता है तो संतति का सुख नहीं होता है। संतति कष्टदायक होती है। जातक का उत्कर्ष 28 वें वर्ष से 36 वर्ष तक होता है। शुभग्रह युक्त हो तो वाहन की इच्छा उत्पन्न होती है।
चतुर्थ में बलवान् मंगल हो तो माता को पित्तज्वर या व्रणरोग होता है। यदि मंगल नीच (कर्क) में होकर पापग्रहयुक्त होने से अथवा अष्टम स्थान के स्वामी से युक्त होने से माता की मृत्यु होती है। मंगल पुरुषराशियों में होने से अशुभ फल मिलते हैं। पापग्रह की दृष्टि होने से या पापग्रह युक्त होने से दुर्घटनाओं का भय होता है। मंगल के साथ शुभग्रह बैठे हों तो दूसरे के घर में रहना होता है। अग्निराशि का मंगल होने से घर जल जाता है। मंगल शुभ सम्बन्ध मेें हो तो जीवन में कभी दु:खी नहीं होता । माता-पिता की मृत्यु, तथा द्विभर्यायोग होता है।
विशेष:- चौथे भाव का मंगल व्यक्ति को मांगलिक बनाता है। इस मंगल दोष का प्रभाव व्यक्ति के वैवाहिक जीवन, कार्यक्षेत्र, तथा आय पर पड़ता है।