संहिता की परिभाषा एवं
क्षेत्र-
यह भाग भी विस्तृत विषयों का आगार है। इसमें
ग्रहों के संचार तथा उनके पृथ्वी एवं ब्रह्माण्ड में पडने वाले प्रभावों का उल्लेख
किया है। अन्तरिक्ष के उल्कापात, उत्पात, धूमकेतु, परिवेष, दिग्दाह,
रजोवृष्टि आदि विषयों का विवेचन एवं उनके
परिणाम बताये गये है। आज के वैज्ञानिक भी रजोवृष्टि (कास्मिक डस्ट) जैसे रहस्यमय वर्णन से चकित
है। क्योंकि रजोवृष्टि का रहस्य आज भी अनसुलझा ही है। इसी प्रकार के अनेक ऐसे
वर्णन है, जो स्पष्ट नहीं है। उदाहरण के लिये चन्द्रमा
का प्रसंग लिया जा सकता है। सन् 16.7.1969 ई. को नीलआर्मस्ट्रांग जब चन्द्रतल पर
अवतरण कर रहे थे उस समय उन्होंने चन्द्रमा में एक क्षणिक प्रकाश देखा, जिसकी व्याख्या अनेक प्रकार से की गई थी। कुछ विद्वानों ने इसे चन्द्रमा से
निकलता हुआ देवत्व बताया था। परन्तु यह अशास्त्रीय तथा भ्रामक विचार था। चन्द्रमा
पर प्राय: नीले-पीले क्षणिक प्रकाशों का उल्लेख संहिताओं में मिलता है।
संहिता शास्त्र का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय कृषि तथा वर्षा
है। कृषि के लिये उपयुक्त काल,
उपकरण, बीज, उर्वरक आदि का विवेचन किया गया है। पौधों और वृक्षों में
अधिक फल लाने के लिये तथा शीघ्रफल उगाने की विधियों का निर्देश भी किया गया है। आज
का वृष्टि विज्ञान भी कृषि की दृष्टि से बहुत उपयोगी नहीं है। क्योंकि 36 घण्टे
पूर्व तक ही आधुनिक विज्ञान स्पष्ट भविष्यवाणी करने में सक्षम है। अत: अल्पकालिक
वैज्ञानिक भविष्यवाणियाँ कृषि के लिये उपयोगी नहीं मानी जा सकती है। कृषि के लिये
कम से कम एक मास पहले मौसम का ज्ञान होना आवश्यक है। जबकि भारतीय ज्योतिषशास्त्र
वर्षा का पूर्वानुमान स्थूल रूप से एक वर्ष पूर्व दे सकता है तथा स्पष्टानुमान
एक मास अथवा 190 दिन पूर्व भी दे सकता है। इसके अतिरिक्त भूगर्भस्थ जल, खनिज पदार्थो, रत्नों तथा कोयलों आदि की उपस्थिति के ज्ञान
की विधि वर्णित है। अंग विद्या,
पशु पक्षियों के लक्षण
तथा उनकी चेष्टाओं को समझने का विज्ञान इस संहिता शास्त्र में निहित है।
2. संहिता का राष्ट्रीय
पक्ष –
संहिता शास्त्र में किसी
एक व्यक्ति का फलादेश न होकर सम्पूर्ण राष्ट्र का फलादेश किया जाता है। इसमें
ग्रह संचार, तथा उनके पृथ्वी एवं
ब्रह्माण्ड में पडने वाले प्रभावों का उल्लेख किया गया है। अन्तरिक्ष के उल्कापात,
धूमकेतु, परिवेष, दिग्दाह,
रजोवृष्टि आदि विषयों का विवेचन एवं उनके
परिणाम बतलाये गये है। इसके अतिरिक्त भूगर्भ में स्थित जल, खनिज, पदार्थो, रत्न तथा कोयला आदि की उपस्थिति के ज्ञान की
विधि वर्णित है। अंगविद्या (पुरुष एवं स्त्रियों के शुभ अशुभ अंग लक्षण), पशु-पक्षियों के लक्षण तथा उनकी चेष्टाओं को
समझने का अद्भुत विज्ञान संहिता शास्त्र में निहित है।
दिव्य, नाभस तथा भौम प्रभावों का सर्वविश्वाभिप्रायिक निरूपक
विधान संहिता स्कन्ध अनेक दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ज्योतिषांग है।
संहिता स्कन्ध का मूल ऋग्वेद में विद्यमान है। ऋग्वेद से नवीनतम विकास तक की
यात्रा बहुत लम्बी है। इस मध्य विकास तथा ह्वास के अनेक दौर गुजर गये। वैदिक सभ्यता
के साथ अन्य सभ्यताओं में भी ज्योतिष संहिता स्कन्ध का प्रयोग होता था। वैदिक
ज्योतिष तालिका मध्यकालीन सिद्धान्तों का अनुशीलन कर भारतीय ज्योतिष मराठी में
श्री बालकृष्ण दीक्षित की अद्वितीय कृति है। सूत्रकाल तथा वेदांगकाल में स्वतन्त्र
ग्रन्थ प्रणयन की प्रक्रिया तथा संहितोक्त मन्त्रों का ब्राह्मणों में
प्रयोगात्मक रूप में मिलते है। ज्योतिषशास्त्रीय समस्त मूल तथ्य वैदिक वाङ्मय
में उपलब्ध है।
आज संहितास्कन्ध की अनेक शाखायें पाश्चात्य
भारतीय अन्वेषण से विज्ञान का रूप धारण कर चुकी है। परन्तु दुर्भाग्य से भारत
में समन्वयात्मक पद्धति उत्तरोत्तर उपेक्षित होती गयी। शतपथ तथा गोपथ ब्राह्मण
की परम्परा अन्तिम वैदिक वैज्ञानिक परम्परा थी। वराह के वर्णनानुसार सृष्ट्यारम्भ
कालिक कश्यप से प्रारम्भ कर समास संहिता तक की चर्चा विशिष्ट विस्तृत
परम्परा का संकेत देती है। वराह से वल्लाल सेन तक 700 वर्षो का अन्तर है।
1100+700 शकाब्द के बाद भारतीय मूल ज्ञान पाश्चात्य माध्यम से फिर प्रकट हो
रहा है। वहॉं संहितोक्त प्रयोग धारायें क्षीण होते-होते आख्यानों तथा ग्रन्थों
तक रह गयी।
संहिता का विस्तार
-
संहिता का विस्तार मुख्य रूप से दिव्य भाग, नाभसभाग, भौमभाग एवं त्रिगोलीय विश्वव्यापी, योगज प्रभाव, शुभशकुन कालप्रभावावगमक सर्वविधपार्थिव
लक्षणशास्त्र में हुआ। लक्षणशास्त्र में काल, वातावरण, पशुपक्षी आदि के चेष्टा के आधार पर विभिन्न शुभाशुभ प्रभाव निर्धारित किये
जाते है।
नारद पुराण में संहिता
शास्त्र के अन्तर्गत आने वाले विभिन्न अंगों का वर्णन किया गया है, जो कि राष्ट्रिय पक्ष के अन्तर्गत आते है।
अन्तरिक्ष उत्पात के अन्तर्गत कहा है कि यदि कभी सूर्यमण्डल
में लाठी, मस्तकहीन शरीर, कौआ या कील के आकार के
केतु दिखाई दे तों उस देश में व्याधि, भ्रान्ति तथा चोरों के
उपद्रव से धन का नाश होता है। यदि छत्र, पताका, ध्वज या सजल मेघखण्ड सदृश अथवा अग्निकण सहित धूम, सूर्यमण्डल में दिखाई दें तो उस देश का नाश होता है। शुक्ल, लाल, पीला अथवा काला सूर्यमण्डल दीखने में आवें तो क्रम से
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्णो को पीडा होती है। यदि दो, तीन या चार प्रकार के रंग
सूर्यमण्डल में दिखाई पडे तो राजाओं का नाश होता है। यदि सूर्य की ऊर्ध्वगामिनी
किरण लाल रंग की दीख पडे तो राजाओं का नाश होता है। यदि उसका पीला वर्ण हो तो
राजकुमार का, श्वेत वर्ण हो तो राजपुरोहित का तथा उसके अनेक
वर्ण हो तो प्रजाजनों का नाश होता है। इसी तरह धूम्र वर्ण हो तो राजा का तथा कपिल
वर्ण का हो तो मेघ का नाश होता है। यदि सूर्य की उक्त किरणें नीचें की ओर हो तो
संसार का नाश होता है।
सूर्य शिशिर ऋतु ( माघ-फाल्गुन) में तॉंबें के समान (लाल) दीख
पडे तो संसार के लिये शुभ होता है। ऐसे ही वसन्त ( चैत्र-वैशाख) में कुंकुंमवर्ण, ग्रीष्म में पाण्डु (श्वेत-पीत मिश्रित) वर्ण, वर्षा में अनेक वर्ण, शरद-ऋतु में कमलवर्ण तथा हेमन्त में रक्त
वर्ण का सूर्य बिम्ब दिखायी दें तो उसे शुभप्रद समझना चाहिये।
यदि शीतकाल में (अगहन से फाल्गुन तक) सूर्य का बिम्ब पीला, वर्षा में (श्रावण में कार्तिक तक) सूर्य का बिम्ब उजला, तथा ग्रीष्म में (चैत्र से आषाढ तक) लाल रंग का दिखाई पडे तो क्रम से रोग, अवर्षण तथा भय उपस्थित करने वाला होता है। यदि कदाचित् सूर्य का आधा बिम्ब
इन्द्रधनुष के समान दिखाई पडे तो राजाओं में परस्पर विरोध बढता है। खरगोश के रक्त
के समान सूर्य का वर्ण हो तो शीघ्र ही राजाओं में महायुद्ध आरम्भ होता है। यदि
सूर्य का वर्ण मोर की पँख के समान हो तो वहॉं बारह वर्षों तक वर्षा नहीं होती है।
यदि सूर्य कभी चन्द्रमा के समान दिखायी दें तो वहॉं के राजाओं को जीतकर दूसरा
राजा राज्य करता है। यदि सूर्य श्याम रंग का दिखे तो कीडो का भय होता है। भस्म
के समान रंग दिखे तो समूचे राज्य पर भय उपस्थित होता है और यदि सूर्यमण्डल में
छिद्र दिखाई दे तो वहॉं के सबसे बडे सम्राट की मृत्यु होती है।
कलश के समान आकार वाला सूर्य देश में भुखमरी का भय होता है।
तोरण-सदृश आकार वाला सूर्य ग्राम तथा नगरों का नाशक होता है। छत्राकार सूर्य उदित
हो तो देश का नाश और सूर्य बिम्ब खण्डित दिखे तो राजाओं का नाश होता है। यदि
सूर्योदय या सूर्यास्त के समय बिजली की गडगडाहट और वज्रपात या उल्कापात हो तो
राजा का नाश या राजाओं में परस्पर युद्ध होता है। यदि पन्द्रह या साढे सात दिन
तक दिन में सूर्य पर तथा रात में चन्द्रमा पर परिवेष (मण्डल) हो अथवा उदय और अस्त
समय में वह अत्यन्त रक्तवर्ण का दिखाई दे तो राजा का परिवर्तन होता है। उदय या
अस्त के समय यदि सूर्य शस्त्र के समान आकार वाले या गधे, ऊँट आदि के समान अशुभ आकार वाले मेघ से खण्डित सा प्रतीत हो तो राजाओं में
युद्ध होता है।
पुराणों के अनुसार पृथ्वी कूर्म भगवान् पर स्थित है। कूर्म देवता
का मुख पूर्व की ओर स्थित है। उनके नव अंगों में इस भारत भूमि के होता है।
छत्राकार सूर्य उदित हो तो देश का नाश और सूर्य बिम्ब खण्डित दिखे तो राजाओं का
नाश होता है। यदि सूर्योदय या सूर्यास्त के समय बिजली की गडगडाहट और वज्रपात या
उल्कापात हो तो राजा का नाश या राजाओं में परस्पर युद्ध होता है। यदि पन्द्रह
या साढे सात दिन तक दिन में सूर्य पर तथा रात में चन्द्रमा पर परिवेष (मण्डल) हो
अथवा उदय और अस्त समय में वह अत्यन्त रक्तवर्ण का दिखाई दे तो राजा का परिवर्तन
होता है। उदय या अस्त के समय यदि सूर्य शस्त्र के समान आकार वाले या गधे, ऊँट आदि के समान अशुभ आकार वाले मेघ से खण्डित सा प्रतीत हो तो राजाओं में
युद्ध होता है।
पुराणों के अनुसार पृथ्वी कूर्म भगवान् पर स्थित है। कूर्म देवता
का मुख पूर्व की ओर स्थित है। उनके नव अंगों में इस भारत भूमि के नौ विभाग करके
प्रत्येक खण्ड में प्रदक्षिण क्रम से विभिन्न मण्डलों (देशों) को समझना
चाहिये। अन्तर्वेदी (मध्यभाग) पाञ्चाल देश स्थित है। वहीं कूर्म भगवान का
नाभिमण्डल है। मगध तथा लाट देश पूर्व में विद्यमान है। वे ही उनका मुखमण्डल है।
स्त्री, कलिंग तथा किरात देश भुजा है। अवन्ती, द्रविड तथा भिल्लदेश उनका दाहिना पार्श्व है। गौड, कौंकण, शाल्व, आन्ध्र तथा पौण्ड्र देश
उनके अगले पैर है। सिन्ध, काशी, महाराष्ट्र तथा सौराष्ट्र
देश पुच्छ भाग है। पुलिन्द, चीन, यवन तथा गुर्जर देश दोनों
पिछले पैर है। कुरू, काश्मीर, मद्र तथा मत्स्य देश
वाम पार्श्व है। नेपाल, अंग, वंग, वाह्लीक तथा कम्बोज दोनों हाथ है। इन नव अंगों में क्रमश: कृत्तिका आदि
तीन-तीन नक्षत्रों का न्यास करें। जिस अंग के नक्षत्र में पापग्रह रहते है, उस अंग के देशों में तब तक अशुभफल होता है, और जिस अंग के नक्षत्रों
में शुभग्रह रहते है, उस अंग के देशों में शुभ फल होते है।
देवताओं की प्रतिमा यदि नीचे गिर पडे, जले, बार-बार रोये, गाये, पसीने से तर हो जाये, हंसे, अग्नि, धुऑं, तेल शोणित, दूध या जल का वमन, अधोमुख हो जायें एक स्थान से दूसरे स्थान में चली जायें तथा इसी तरह की अनेक
अद्भुत बातें दिखाई दे तो यह प्रतिमा विकार कहलाता है। यह राष्ट्र में अशुभता का
सूचक है।
इसी प्रकार के अन्य अनेक विकार है, जो राष्ट्र में अहित का
सूचक दिखाते है। यदि आकाश में गन्धर्वनगर (ग्राम के समान आकार), दिन में ताअरों का दर्शन, उल्कापात, काष्ठ, तृण तथा शोणित की वर्षा, गन्धर्वों का दर्शन, दिग्दाह, दिशाओं में धूम छा जाना, दिन या रात्रि में भूकम्प होना, बिना आग के ही अंगार
दिखना, बिना लकडी के आग का जलना, रात्रि में इन्द्रधनुष
या परिवेष देवताओं की
प्रतिमा यदि नीचे गिर पडे, जले, बार-बार रोये, गाये, पसीने से तर हो जाये, हंसे, अग्नि, धुऑं, तेल शोणित, दूध या जल का वमन, अधोमुख हो जायें एक स्थान से दूसरे स्थान में चली जायें तथा इसी तरह की अनेक
अद्भुत बातें दिखाई दे तो यह प्रतिमा विकार कहलाता है। यह राष्ट्र में अशुभता का
सूचक है।
इसी प्रकार के अन्य अनेक विकार है, जो राष्ट्र में अहित का
सूचक दिखाते है। यदि आकाश में गन्धर्वनगर (ग्राम के समान आकार), दिन में ताअरों का दर्शन, उल्कापात, काष्ठ, तृण तथा शोणित की वर्षा, गन्धर्वों का दर्शन, दिग्दाह, दिशाओं में धूम छा जाना, दिन या रात्रि में भूकम्प होना, बिना आग के ही अंगार
दिखना, बिना लकडी के आग का जलना, रात्रि में इन्द्रधनुष
या परिवेष दिखना, पर्वत या वृक्षादि के ऊपर उजला कौआ दिखना, आग की चिन्गारियाँ दिखना, गौ, हाथी और घोडो के दो या
तीन मस्तक वाला बच्चा पैदा हो,
प्रात:काल एक साथ ही
चारों दिशाओं में सूर्योदय सा प्रतीत हो, गॉंव में गीदडो का दिन
में वास हो, धूम-केतुओं का दर्शन होने लगे, रात्रि में कौओ का तथा दिन में कबूतरों का क्रन्दन हो तो ये भयंकर उत्पात
है। वृक्षों में बिना समय के फूल या फल दिखाई पडे तो उस वृक्ष को काट देना चाहिये।
और उसकी शान्ति कर लेनी चाहिये।
इसी प्रकार के और भी जो बडे-बडे उत्पात्त होते है, वे देश अथवा ग्राम के लिये नाशक होते है। कुछ शत्रुओं से भय उपस्थित करते है, कुछ उत्पातों से भय, यश, मृत्यु, हानि, कीर्ति, सुख-दु:ख तथा ऐश्वर्य की
प्राप्ति भी होती है। यदि दीमक की मिट्टी के ढ़ेर पर शहद दिखाई दें तो धन हानि
होती है। इस प्रकार के सभी उत्पातों में शास्त्रोक्त विधि से शान्ति अवश्य
करवानी चाहिये।
इस तरह संहिताशास्त्र के अन्तर्गत होने वाला फलादेश सम्पूर्ण
ग्राम, नगर अथवा राष्ट्र के लिये होता है। किसी एक व्यक्ति के
लिये नहीं होता।