Saturday 28 August 2021

Rahu ketu ki drishti bhi hoti hai ya kalpana matra hi hai ? janiye is lekh me / राहु-केतु की दृष्टि भी होती है या कल्पना मात्र ही है ? जानिए इस लेख में

Posted by Dr.Nishant Pareek

Rahu ketu ki drishti bhi hoti hai ya kalpana matra hi hai ? janiye is lekh me


राहु-केतु की दृष्टि भी होती है या कल्पना मात्र ही है ?  जानिए इस लेख में 

 भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही राहु-केतु को नवग्रह में मानते आये हैं। इनका भाव गत प्रभाव है। विंशोत्तरी दशा में इनके दशा भोग काल के वर्ष हैं। इनकी स्थिति का प्रत्यक्ष प्रभाव अनुभव में आता है। राहु-केतु ठोस आकाशीय पिण्ड न होकर छाया ग्रह के नाम से सम्बोधित किये गये हैं। फिर भी इनका इतना महत्त्व है कि नवग्रहों में इनका पूजन होता है। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि विद्वानों में राहु-केतु की दृष्टि के विषय में मतभेद है।

सबसे पहले यह ज्ञान होना आवश्यक है कि राहु-केतु क्या है ? आकाशीय पिण्डों के विषय में तो आधुनिक विज्ञान ने प्रचुर अन्वेषण कर लिया है और अभी भी प्रयासरत हैं किन्तु राहु-केतु दृश्यमान ग्रह नहीं हैं। यहाँ अमृत मंथन के समय को राहु द्वारा देवता के वेश में अमृतपान करने की पौराणिक कथा से समस्या का समाधान नहीं होगा। वह तो प्रतीकात्मक भाषा में एक गूढ़ आध्यात्मिक विषय है। दृष्टि के निर्णय के लिए वैज्ञानिक आधार चाहिए इसलिए खगोल की दृष्टि से राहु केतु क्या हैं यदि हम इस समझ लें, तो हमें इनकी दृष्टि समझने में सुविधा होगी।

खगोल की दृष्टि से राहु-केतु वे दो अदृश्य गणितागत बिन्दु हैं जहाँ चन्द्रमा की कक्षा क्रान्ति वृत्त को काटती है। इन दोनों बिंदुओं को राहु और केतु कहते हैं। चूंकि दिखाई नहीं देते इसलिए इन्हें छाया ग्रह या तमौ ग्रह कहा गया है। इस तथ्य का हमारे प्राचीन आचार्यों को सदा से ज्ञान था। यदि ज्ञान नहीं होता, तो सूर्य-चन्द्र ग्रहण की शुद्ध गणना कैसे करते। इसलिए इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि ये बिन्दु आधुनिक विज्ञान की खोज हैं, पूर्व के ज्योतिर्विदों को इनका ज्ञान नहीं था। ग्रहण में इनका अत्यन्त महत्त्व है। दूसरे शब्दों में ग्रहण के समय छाया के रूप में इनका दर्शन होता है। यह गणितागत कटान बिन्दु सदैव एक दूसरे से १८० अंश पर रहते हुए गतिशील हैं। ये वक्र गति में चलायमान हैं। इनकी एक निश्चित गति, ३ कला ११ विकला (मध्यममान) दैनिक है।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया कि राहु-केतु ठोस आकाशीय पिण्ड नहीं हैं किन्तु ग्रहण के कारण, संवेदनशील, काल गणना के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। इसीलिए भारतीय मनीषियों ने अपनी दिव्यदृष्टि से इनके प्रभाव को समझ कर इन्हें नवग्रहों में स्थान दिया है। इनके स्थान परत्व फल भी दिये हैं।

यदि प्रकाश का प्रभाव है तो छाया का भी प्रभाव है, भले ही वह नकारात्मक हो। यदि प्रकाश जीवन, चेतना, क्रियाशीलता का प्रतीक है तो तम (अंधकार) इसका नकारात्मक पक्ष है। अंधकार का अर्थ है - प्रकाश का अभाव। सूर्य के प्रकाश से जीवन और चेतना प्राप्त होती है इसलिए सूर्य देव स्वरूप हैं। राहु ‘तम है इसलिए असुर है। जैसे वृक्ष सूर्य के प्रकाश में अवरोध उत्पन्न कर छाया का निर्माण करता है। इसीलिए वृक्ष की छाया तले दूसरे पौधे नहीं पनपते, पीले पड़ जाते हैं। ऐसे ही राहु कुण्डली के जिस भाव में स्थित होता है उस स्थान का विनाश करता है। कुछ ग्रन्थों में राहु-केतु की उच्च राशि का वर्णन आया है - वृषभ और एक मत से मिथुन राहु की उच्च राशि मानी गयी है। ऐसे ही स्वराशि का भी उल्लेख प्राप्त होता है किन्तु अनुभव में यही आता है कि यह चाहे जिस राशि में हो, जिस भाव में होता है उससे सम्बन्धित विषय वस्तुओं पर अपनी छाया का दुष्प्रभाव अवश्य डालता है। यहाँ यह शंका उत्पन्न होती है कि फिर महर्षि पराशर ने राहु को योगकारक (शुभ फलदायक) क्यों बताया ? जैसे- लघु पाराशरी में अंकित है -

तमौ ग्रहो शुभारूढावसम्बन्धेन केनचित्।

अन्तर्दशानुसारेण भवेतां योग कारकौ।। 

वे कौन सी परिस्थितियाँ हैं जब राहु शुभ फल दे जाता है इसे उपर्युक्त श्लोक में स्पष्ट किया है। “शुभ योग कारक ग्रह के साथ सम्बन्ध होने से शुभ फल देता है। योगकारक हो जाता है। जैसे त्रिकोणेश के साथ केन्द्र में बैठने से अथवा केन्द्र के स्वामी के साथ त्रिकोण में स्थित होने से, विशेष कर नवमेश के साथ दशम में या दशमेश के साथ नवम में होने से योगकारक हो जाता है।

इसी प्रकार हम राहु की वृष या मिथुन उच्च राशि मान लें तो उसमें भी हम शुभ फल की कल्पना कर सकते हैं। किन्तु कब? क्या सदैव शुभ फल प्राप्त होता रहेगा?

इसका निराकरण महर्षि पराशर ने इस प्रकार किया है। जब योगकारक ग्रह की महादशा में राहु की अन्तरदशा या राहु की महादशा में योगकारक ग्रह की अंतर्दशा होगी, उस काल खण्ड में शुभ फल दे जायेगा। हमेशा नहीं देगा। मूलरूप में अशुभ ही रहेगा। 

कुंडली के जिस भाव में राहु स्थित है उसे वृक्ष की छाया तले जमे पौधे की तरह पनपने नहीं देगा। उच्च राशि का होने पर भी यदि लग्न में है तो शरीर को अस्वस्थ करेगा। विचार स्थिर नहीं होंगे। दूसरे भाव में हो तो धन और कुटुंब वृद्धि में बाधक होगा, वाणी कठोर होगी। तीसरे भाव में साहस की वृद्धि तो होती है, परन्तु भाई के लिए अशुभ हो जायेगा। इसी प्रकार प्रत्येक भाव में अपना अशुभ प्रभाव प्रदान करेगा। इसलिए चाहे योगकारक हो, चाहे उच्च राशि में। पराशर के कथनानुसार अपनी दशा अन्तरदशा में ही शुभ फलों की झलक दिखायेगा। इसलिए कि कुछ काल के लिए शुभ ग्रह के अथवा उच्च राशि के प्रकाश से प्रकाशित हो गया है। शुभ प्रभाव के हटते ही वापस अपने मूलरूप अशुभता में आ जायेगा।

राहु-केतु के विषय में उपर्युक्त विवरण समझ लेना इसलिए आवश्यक है कि इससे राहु केतु की दृष्टि के विषय में निर्णय लेने में सुविधा होगी।

राहु-केतु की दृष्टि पर मतभेद का कारण यह है कि कुछ प्राचीन ग्रन्थों में (सब में नहीं) राहु-केतु की दृष्टि की चर्चा हुई है। जैसे -

सुतमदननवान्ते पूर्ण दृष्टि तमस्य। 

युगल दशम गेहें चार्द्ध दृष्टिं वदन्ति।। 

सहज रिपु गृहक्र्षे पाद दृष्टिं युनीन्द्रैः।

निज भवन उपेतो लोचनान्धः प्रदिष्टः।। 

उपर्युक्त श्लोक में राहु की पंचम, सप्तम, नवम, द्वादश पूर्ण दृष्टि बताई गयी है इसके अतिरिक्त पाद दृष्टि का उल्लेख है। 

सर्वार्थ चिन्तामणि में निम्नांकित श्लोक उपलब्ध है -

क्षीणेन्दु पाप संदृष्टो राहु दृष्टो विशेषतः 

जातो यम पुरं याति दिनैः कतिपयैः किल।

                                                                                    -सर्वार्थ चिन्तामणि अ० १०, श्लोक ६६ 

 श्री वैद्यनाथ दीक्षित ने लिखा है -

सिंहासक स्थिते मन्दे राहुणा च निरीक्षिते। 

शस्त्र पीड़ा भवेत्तस्य चायुः पंच दशाब्दकम्।। 

कर्काशंक स्थिते मन्दे केतु दृष्टि समन्विते। 

सर्प पीड़ा भवेत्तस्य षोडशाब्दान्मृति भवेत्।।

                                                                                   -जातक पारिजात अ० ४ श्लोक ५५-५६

             वेंकट और वैद्यनाथ ने यह कहीं नहीं लिखा है कि राहु-केतु की कौन सी दृष्टि होती है।

 ज्योतिष श्याम संग्रह में कहा है -

सुतस्ते शुभे पूर्ण दृष्टिं तमस्य तृतीये रिपौ पाद दृष्टिं नितान्तम्।

धने राज्य गेहेऽधं दृष्टिं बदन्ति स्वगेहे त्रिपादं तथैवाह केतोः।।

तात्पर्य यह है कि कुछ ग्रन्थों में राहु-केतु की दृष्टि का उल्लेख है और वे दृष्टियाँ पंचम, सप्तम और नवम बतायी गयी हैं। इसके अतिरिक्त एकपाद, द्विपाद और त्रिपाद दृष्टि भी मानी गयी हैं।

बृहत्पाराशर होरा शास्त्र का श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। क्योंकि यदि यह मूल पाराशरी में होता, तो वराह मिहिर इसका उल्लेख अवश्य करते। उन्होंने बृहज्जातक के ग्रह भेदाध्याय में मात्र इन ग्रहों के नाम का उल्लेख किया है -

राहुस्तमोऽगुरसुरश्च शिखी च केतुः 

अर्थात् राहु के तम, अगु तथा असुर और केतु का शिखी नाम है। आगे पूरे अध्याय में राहु-केतु की कोई चर्चा नहीं है। 

महर्षि पराशर ने इनके विषय में कहा है -

यद्यद्भाव गतौवापि यद्यद्भावेश संयुतौ।

तत्तद् फलानि प्रबलौ प्रदिशेतां तमो ग्रहौ।। 

अर्थात् राहु केतु जिस-जिस भाव में हों तथा जिस-जिस भावेश के साथ हों, उसका फल प्रबल रूप से देते हैं। अर्थात् इनका स्थान अन्य दृश्यमान ग्रहों से भिन्न है। 

ऐसा ही सुश्लोक शतक में भी कहा है -

यद् ग्रहस्य तु सम्बन्धी तत्फलाय तमो ग्रहः। 

अदृश्य ग्रह होने से इन्हें किसी राशि का स्वामित्व नहीं प्राप्त है। राशियों के स्वामित्व की इनकी जो बात कही जाती है वह बाद की कल्पना है, संदेहास्पद है। वस्तुतः राशियों के गुण धर्म के अनुसार ग्रह का गुण धर्म देखते हुए केवल दृश्यमान ग्रहों को ही राशियों का स्वामित्व दिया गया है जो कि विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरता है। कक्षा के आधार पर जब सप्ताह के सात दिन निश्चित किये गये, तो दृश्यमान ग्रहों के ही किए गये। षड्बल गणित में राहु-केतु का दृक् बल और चेष्टा बल नहीं दिया जाता। अष्टक वर्ग में केवल यवन जातक ने इन्हें सम्मिलित किया, अन्य किसी ग्रन्थकार ने नहीं। पाराशरी के व्याख्याकार विद्वानों ने इनका दूसरे ग्रह से सह स्थान सम्बन्ध माना है दृष्टि का सम्बन्ध नहीं। यद्यपि कुछ विद्वानों ने राहु-केतु की स्व राशि की कल्पना की है जैसी आजकल यूरेनस, नेप्चयून और प्लूटो की की जा रही है किन्तु ज्योतिष के प्राचीन ग्रन्थों में राह-केतु की स्व राशि और ग्रहों के नैसर्गिक मैत्री चक्र में इन्हें स्थान नहीं दिया। इनके स्थान परक फल मात्र दिये हैं। ऐसी स्थिति में इन ग्रहों की ही है, यह कथन निम्नांकित आधारों पर संदेहास्पद हो जाता है

 राहु-केतु की तीन दृष्टियाँ पंचम, सप्तम, नवम और तीन पाद दृष्टियाँ इस प्रकार प्रत्येक की ६ दृष्टियाँ हुई। अर्थात् यह दोनों ग्रह मिलकर बारह स्थानों पर दृष्टियां देंगे। यदि नैसर्गिक अशुभ ग्रह शनि की भी ६ दृष्टियाँ तथा मंगल की भी ६ ले ली जायें, तो इन चार अशुभ ग्रहों की दृष्टियों का योग ६ ़ ६ ़ ६ ़ ६ =२४ हुआ। भाव कुल १२ होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि कम से कम हर भाव पर एक अशुभ दृष्टि और कुल भावों पर एक से अधिक होगी। यदि फलों का विश्लेषण करें, तो प्रत्येक जातक का जीवन नारकीय हो जायेगा। गुरु और शुक्र

की शुभ दृष्टि अपनी शुभता से कुण्डली को कहाँ तक बचा पायेगी। यदि राहु-केतु की सातवीं दृष्टि मानते हैं तो एक विवाद उत्पन्न होता है। वह यह कि ये दोनों ग्रह सदा एक दूसरे से १८० अंश पर ही रहते हैं। तो इनके अपने गुण प्रभाव का निरूपण कैसे होगा। सुत मदन नवान्ते श्लोक में पंचम, सप्तम, नवम, द्वादश दृष्टि कही गयी है जिसके आधार पर कुछ विद्वान् राहु-केतु की पाँचवीं और नवीं दृष्टि मानते हैं किन्तु सातवीं को छोड़ देते हैं, क्योंकि उसमें रुकावट है। इसलिए या तो इस श्लोक को पूरा का पूरा माना जाए या बिल्कुल भी न माना जाये।

यदि यह सत्य है कि राहु-केतु की पंचम नवम दृष्टि है और वह अशुभ है तो सभी जन्मांगों में राहु से पांचवां और नवां भाव तथा वहां स्थित ग्रह अशुभ हो जाने चाहिये। परंतु वास्तव में ऐसा होता है क्या ? यह अपने ही किसी की कुंडली में हमें स्वयं अनुभव करके देखना चाहिये।

प्रत्येक ऐसा ज्योतिषी, जो राहु-केतु की दृष्टि के विवाद के विषय में किसी निर्णय पर पहुँचना चाहता है, पहले अपनी कुण्डली पर देखे, तत्पश्चात् अन्य कुण्डली बिना चयन के लेकर देखे कि इन जातकों के राहु और केतु से पाँचवे और नवें भाव तथा उनमें स्थित ग्रहों का क्या फल हुआ है। यदि अशुभ या शुभ फल हुआ, तो किसी अन्य ग्रह का उस पर प्रभाव तो नहीं है। अर्थात् मात्र राहु-केतु की दृष्टि ही देखें। इसके आँकड़े तैयार करें, प्रतिशत निकालें। यदि ९० प्रतिशत मात्र राहु-केतु की दृष्टि से अशुभ होते सिद्ध हों, तो इनकी दृष्टि मान लेनी चाहिए, यदि ऐसा न हो, तो नहीं माननी चाहिए।

अपने अध्ययन और अनुसंधान के आधार पर हम यही कह सकते है कि राहु और केतु की कहीं भी दृष्टि नहीं पड़ती। उनका शुभ अथवा अशुभ प्रभाव उनकी स्थिति और युति के अनुरूप सम्बन्धित भाव, भावाधिपति और संयुक्त ग्रहों को प्रभावित करता है। कल्याण वर्मा ने सारावली में सर्प योग का विस्तृत वर्णन किया है। शान्तिरत्नम् में भी कालसर्प योग की चर्चा की गयी है। जैन ज्योतिष में कालसर्प योग की संरचना का विवेचन विद्यमान है। माणिक चन्द्र जैन ने अपना संपूर्ण जीवन राहु और केतु के ऊपर शोध करने में ही व्यतीत कर दिया तथा उन्होंने यह सिद्ध किया कि ग्रहणकाल में सूर्य तथा चन्द्र के राहु और केतु की धुरी पर स्थित होने के कारण जिस प्रकार की स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, उसी प्रकार की स्थिति कालसर्प योग में जन्म लेने वाले व्यक्ति के साथ भी पनपती है।

कालसर्प योग के सन्दर्भ में निम्नांकित कथन उद्धरणीय हैं 

अग्रे वा चेत पृष्ठतो, प्रत्येक पाश्र्वे भाताष्टके राहुकेत्वोन खेटः। 

योग प्रोक्ता सर्पश्च तस्मिन् जीतो जीतः व्यर्थ पुत्रर्ति पीयात्।।

राहु केतु मध्ये सप्तो विघ्ना हा कालसर्प सारिक।

सुतयासादि सकलादोषा रोगेन प्रवासे चरणं ध्रुवम् ।। 

कालसर्पयोगस्थ विषविषाक्त जीवणे भयावह पुनः पुनरपि शोक च योषने रोगान्ताधिकं पूर्वजन्मकृतं पापं ब्रह्मशापात् सुतक्षयः किचित धु्रवम्।।

प्रेतादिवशं सुखं सौख्यं विनश्यति।।

अर्थात् राहु केतु के मध्य समस्त ग्रह होने चाहिये। साथ ही एक भी स्थान खाली नहीं होना चाहिये, ऐसी स्थिति में ही कालसर्प योग बनता है। परंतु फिर भी अनेक मूर्धन्य विद्वान् कालसर्प योग की उपस्थिति से सहमत नहीं है। वे कहते है कि किसी भी प्राचीन ग्रंथ में कालसर्प योग का वर्णन नहीं है। 

इसमें एक विशेष बात यह भी है कि यदि राहु विशाखा नक्षत्र में हो और पूर्ण कालसर्प योग बन रहा हो तो भी उसका अशुभ प्रभाव नहीं पडता। कालसर्प योग प्रभावहीन हो जाता है। इसके अलावा अन्य अनेक ग्रहयोग है, जिनके प्रभाव से कालसर्प योग प्रभावहीन हो जाता है। जिनका आगे के लेखों में वर्णन करेंगे। 


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