Friday, 29 December 2017

ज्‍योतिष एवं वास्‍तुशास्‍त्र का उद्देश्‍य -

Posted by Dr.Nishant Pareek
                प्राचीन समय से ही सम्‍पूर्ण भारतवर्ष में भवन तथा प्रासाद निर्माण के विषय में विस्‍तृत विचारधारा रही है। हमारे देश की देव-संस्‍कृति का प्राण सदैव धर्म माना गया है। धर्म ने ही मानव को पशुता से भिन्‍न किया है। मानव के आहार, निद्रा, भय, मैथुन आदि सभी कार्य पशु के समान है परन्‍तु धर्म ही है जो मानवता तथा पशुता में भेद प्रकट करता है। जिससे मनुष्‍य का अभ्‍युदय व नि:श्रेयस दोंनो सिद्ध हो सकें, वही धर्म है। अभ्‍युदय का भावार्थ सांसारिक उन्‍नति है। हमारे प्राचीन ऋषियों ने भवन-निर्माण को शास्‍त्रोक्‍त सूत्र में बॉंध कर धर्म का रूप प्रस्‍तुत किया है।
                कलात्‍मक भवन निर्माण के लिये हमारे विशाल पुरा साहित्‍य में एक विशेषशास्‍त्र की रचना की गई है, जिसे वास्‍तुशास्‍त्र के नाम से सम्‍बोधित किया जाता है।वास्‍तु शब्‍द का अर्थ प्रभावशीलता तथा विद्यमानता है। इसी को प्रकट करने वाला शास्‍त्र वास्‍तुशास्‍त्र कहलाता है। यह वास्‍तु शब्‍द भूमि, भवन, भवन की स्‍थापना, निवास स्‍थान, प्रासाद, देवमन्दिर, तालाब आदि से सम्‍बन्धित है। इसमें भूमि के एक छोटे से भाग से लेकर नगर, गांव के निर्माण की कला का विवरण है। चौंसठ कलाओं में भी वास्‍तु कला का प्रमुख स्‍थान है। इस शास्‍त्र के उपयोग से मानव अपने जीवन को सुखी व समृद्धिशाली बना सकता है। व्‍याकरणशास्‍त्र के अनुसार वस निवासे धातु से उणादि सूत्र वसेस्‍तुन सूत्र से तुन प्रत्‍यय से वास्‍तु शब्‍द निष्‍पन्‍न होता है। वास्‍तु शब्‍द पुल्लिंग तथा नपुंसक लिंग दोनों में प्रयुक्‍त होता है। जिसका तात्‍पर्य है - मकान बनाने की जगह भवन, भूखण्‍ड।
                आचार्य मय के अनुसार देव-दानव, यक्ष, किन्‍नर, मानव आदि निवास हेतु जिस स्‍थान का प्रयोग करते है, वह वास्‍तु कहलाती है। यह मुख्‍य रूप से चार खण्‍डों में विभाजित है - 1. भूमि, 2. प्रासाद, 3. यान, 4. शयनासन। इसमें भूमि को मुख्‍य वास्‍तु के रूप में ग्रहण किया है। इस धरती पर जो भी तत्त्‍व रूप में परिवर्तित होता है, वह वास्‍तु कहलाता है। प्रासाद, भूखण्‍ड, भवन, कूप, तालाब, बावडी ही वास्‍तु के प्रमुख भाग है।

                वास्‍तुशास्‍त्र के लिये ऐसा शान्तिपूर्ण माहौल बनाता है, जिसमें रहने वाले व्‍यक्ति अलौकिक शान्ति को अनुभव करते है। मानसिक शान्ति मिलने से व्‍यक्ति का बौद्धिक संतुलन अच्‍छा रहता है। यह बहुत प्राचीन विद्या है। विश्‍व के सर्व प्राचीनतम ग्रन्‍थ ऋग्‍वेद में इसका उल्‍लेख मिलता है। इसके अतिरिक्‍त पुराणों में, गृहसूत्रों में, अर्थशास्‍त्र में, बृहत्‍संहिता में, विश्‍वकर्माप्रकाश में, वाल्मिकीरामायण में, महाभारत में, समरांगण सूत्रधार में, मयमत्तम, मानसागर आदि में इस शास्‍त्र का विशद् विवरण मिलता है। प्राचीन विद्वानों ने हमारी संस्कृति के सभी पहलुओं को वैज्ञानिक आधार प्रदान करने का सफलतम् प्रयास किया है। वास्‍तुशास्‍त्र को पूर्ण रूप से वैज्ञानिक आधार देने के पीछे मनुष्‍य को मर्यादित करके उसके कल्‍याण की भावना छिपी है। वास्‍तुशास्‍त्रीय ग्रन्‍थों में वर्णित सभी वास्‍तुनियम तथा सिद्धान्‍त निश्‍चय ही पर्यावरण शुद्धि में योगदान देते है। शुद्ध पर्यावरण वाले भवनों में निवास करने वाले व्‍यक्तियों के साथ-साथ सम्‍पूर्ण मानव जगत् लाभान्वित होता है। यह सभी के लिये हितकारी तथा उपयोगी है।
                इसमें किञ्चितमात्र भी सन्‍देह नहीं है कि वास्‍तु और पर्यावरण का अटूट सम्‍बन्‍ध है। वास्‍तु का उद्देश्‍य न केवल भवन के निवासियों को स्‍वस्‍थ, सुख, समृद्धि प्रदान करना है, बल्कि शुद्ध पर्यावरण के उद्देश्‍य से मानव को सुखी रखने के साथ-साथ जीवों, पेड-पौधों, जल आदि की सुरक्षा करना है।
                प्राचीन वास्‍तुशास्‍त्र तथा आधुनिक वास्‍तुशास्‍त्र में अनेक असमानतायें होते हुये भी कुछ समानतायें भी मिल ही जाती है। वर्तमान समय वैज्ञानिकता का है। आधुनिक वास्‍तुशास्‍त्र मनुष्‍य की आवश्‍यकताओं के अनुरूप ही गृह की योजना बनाता है। आधुनिक वास्‍तुशास्‍त्र आर्किटेक्‍चर कहलाता है। वास्‍तुशास्‍त्र बहुत व्‍यापक है। जब हम किसी ग्राम अथवा नगर में निवास का मात्र विचार करते है तब से ही वास्‍तुशास्‍त्र कार्य करना प्रारम्‍भ कर देता है कि अमुक ग्राम में निवास करना अमुक व्‍यक्ति के लिये कांकिणी इत्‍यादि के अनुसार शुभ है नहीं। यह ज्ञात किया जाता है। वास्‍तुशास्‍त्र मात्र भवन निर्माण करके ही शांत नहीं हो जाता है। बल्कि वास्‍तुशास्‍त्र तो भवन निर्माण के पश्‍चात् भी कार्य करता रहता है।
                वह बताता है कि किस प्रकार से इस भवन में सुख-पूर्वक एवं बिना कष्‍ट-कलह आदि के निवास किया जावे। इसमें बताया गया है कि गृहस्‍वामी को किस दिशा में सिर रखकर सोने से मानसिक शांति मिलेगी अथवा किस स्‍थान पर बैठकर पूजा करने से इष्‍ट फल की प्राप्ति होगी अथवा किस स्‍थान पर पका हुआ भोजन स्‍वास्‍थ्‍यप्रद हो सकता है। वास्‍तुशास्‍त्र में प्रत्‍येक भवनांग हेतु स्‍थान निश्चित किया गया है तथा उसके लाभ-हानि को विस्‍तृत रूप से बताया है ताकि सामान्‍य जन को किसी प्रकार की भ्रान्ति न हो सके। इसमें प्राणी मात्र हेतु प्राकृतिक आपदाओं से रक्षा, विभिन्‍न मौसमों के कोप से बचाव तथा सुविधापूर्वक निवास के लिये गृह-निर्माण करने का प्रावधान है। यह शास्‍त्र लौकिक तथा अलौकिक रूप से गृह में ऐसा वातावरण तैयार करता है, जिसमें प्रवेश करते ही मानव दौडभाग की जिदंगी से दूर एक अलौकिक शांति का अनुभव करता है। यह तो शाश्‍वत सत्‍य ही है कि यदि मानव मानसिक रूप से शांत होगा तो उसकी कार्यक्षमता में वृद्धि होगी। अपने कार्य वह और अधिक स्‍फूर्ति से कर सकेगा। बुद्धि का संतुलन सही रहने से वह सही निर्णय ले सकेगा। इसमें जीवन सुखमय, निरोगी तथा संतोषप्रद रहेगा। इस प्रकार वास्‍तुशास्‍त्र हमें उन प्राकृतिक नियमों के अनुकूल कार्य करने के लिये प्रेरित करता है, जिनके करने से दैविक शक्तियां प्रसन्‍न रहकर हमारे कार्य में सहायता करती है।
                इस शास्‍त्र में दिशा के निश्चित ज्ञान के लिये कीलक सूत्र इत्‍यादि की सहायता से दिशा साधन किया जाता है। जो कि सूर्यादि की सहायता से किया जाता है। आजकल दिशा साधन चुंबकिय यंत्र से किया जाता है, जो कभी सही तो कभी गलत भी हो जाता है। भूमि परीक्षण हेतु अनेक प्रकार की विधियों का वर्णन बताया है। भूमि का परीक्षण करके हम यह ज्ञात कर सकते है कि यह भूमि किस वर्ण वाले व्‍यक्ति के लिये शुभ है। मुख्‍य द्वार के विषय में कहा है कि ब्राह्मण के घर में 81 अंगुल का द्वार बनाना चाहिये। राजा के घर में 188 अंगुल का द्वार होना चाहिये। आयादि अनुसार द्वार बनाने पर घर में शुभता का वास होता है इसलिये द्वार सिद्धान्‍त का उपयोग करना चाहिये।
                वास्‍तुशास्‍त्र में वास्‍तुक्षेत्र के चयन में शल्‍योद्वार के द्वारा वास्‍तुभूमि न केवल मनोरम् वरन् पवित्र भी बन जाती है। बीज वपन अथवा अंकुरारोपण से वास्‍तु भूमि की प्रवर्धन शीलता का प्रत्‍यक्ष अनुमान होता है। इसी तरह अन्‍य विधियां जैसे - वास्‍तु देवता पूजन, वास्‍तु देवता बलि, वास्‍तु पुरुष प्रतिष्‍ठा, वास्‍तु पूजन, वास्‍तुशान्ति तथा मांगलिक कार्यों सहित गृह प्रवेश इत्‍यादि द्वारा गृह निर्माण कार्य एक वैयक्तिक चिकीर्षा नहीं रह जाती वरन् सामाजिक आधिदैविक एवं आध्‍यात्मिक संस्‍था बन जाती है। जैसे आजकल घर बनाने से पूर्व साइट प्‍लान बनाना आवश्‍यक होता है, वैसे ही वास्‍तुशास्‍त्र में वास्‍तु पद विन्‍यास किया जाता है। प्राचीन वास्‍तु शास्‍त्रोपदेशक आचार्य वैदिक ऋषि थे। वे मन्‍त्रदृष्‍टा तो थे ही तत्त्‍वावगन्‍ता भी थे। अत: बिना आधुनिक भौतिक शास्त्रीय यन्‍त्रों के भी उन्‍हें सूर्य रश्मि सिद्धान्‍त के सम्‍पूर्ण विवरण से ज्ञात थे। ये सभी देव सूर्य रश्मि जाल की पारिभाषिक संज्ञाएं है जिनको भवन निवेश में दिक्सामुख्‍य के अनुकूल प्रतिष्ठित किया गया है। दिक्सामुख्‍य वास्‍तु का मुख्‍य अंग है। यह पूर्व दिशा का पोषक है क्‍योंकि पूर्व में ही सूर्योदय होता है।
                प्रात:कालीन सूर्य के रश्मि जाल का उपभोग बडा ही हितकर माना जाता है। अत: गृहनिर्माण योजना इस प्रकार की होनी चाहिये कि प्रात: होते ही सूर्य की रश्मियों का उपभोग भवन के सम्‍मुख स्थित आलिन्‍दों कक्षों आदि में अनायास सही सम्‍पन्‍न हो सके। इस शास्‍त्र के द्वारा यह भी निश्चित किया जाता है कि भवन का निर्माण कब करना चाहिये, द्वार किसी दिशा में होना शुभ होता है, कितनी भूमिकायें होती है। आवासीय भवनों में कौन सी प्रतिमायें एवं अन्‍य भूषायें शुभ है तथा अशुभ। भवन के किस अंग से कौनसी शुभता आती है तथा उसके भंग होने पर कौनसी अशुभता होती है। इस प्रकार वास्‍तुशास्‍त्र सामान्‍य जन को सम्‍पूर्ण रूप से आजीवन लाभान्वित करने के उ द्देश्‍य से निर्मित किया गया है।
                प्राय: समस्‍त भारतीय मानव जीवन का लक्ष्‍य एकमात्र अपनी आत्‍मा का विकास कर उसे परमात्‍मा में मिला देना है अथवा उसके तुल्‍य बना देना है। दर्शन या विज्ञान सभी का ध्‍येय विश्‍व की गूढ़ पहेली को सुलझाना है। ज्‍योतिष भी विज्ञान होने के कारण इस अखिल ब्रह्माण्‍ड के रहस्‍य को व्‍यक्‍त करने का प्रयत्‍न करता है।
                यद्यपि आत्‍मा के स्‍वरूप का स्‍पष्‍टीकरण करना योग या दर्शन का विषय है, लेकिन ज्‍योतिषशास्‍त्र भी इस विषय से अपने को अछूता नहीं रखता है। भारत की प्रमुख विशेषता आत्‍मा की श्रेष्‍ठता है। दर्शन के समान ज्‍योतिष ने भी आत्‍मा के श्रवण मनन तथा निदिध्‍यासन पर गणित के प्रतीकों द्वारा जोर दिया है। यों तो स्‍पष्‍ट रूप से ज्‍योतिष में आत्‍मसाक्षात्‍कार के उक्‍त साधनों का कथन नहीं मिलेगा लेकिन प्रतीकों से उक्‍त विषय सहज में हृदयगम्‍य किये जा सकते है।
                ज्‍योतिषशास्‍त्र को ज्‍योति: शास्‍त्र भी कहते है। जिसका अर्थ है प्रकाश देने वाला, या प्रकाश के सम्‍बन्‍ध में बताने वाला शास्‍त्र है। अर्थात् जिस शास्‍त्र से संसार का मर्म, जीवन-मरण का रहस्‍य तथा जीवन के सुख-दु:ख के सम्‍बन्‍ध में पूर्ण प्रकाश मिले, वह ज्‍योतिषशास्‍त्र है। छान्‍दोग्‍य उपनिषद् में ब्रह्म का वर्णन करते हुये बताया है कि मनुष्‍य का वर्तमान जीवन उनके पूर्व-संकल्‍पों और कामनाओं का परिणाम है तथा इस जीवन में वह जैसा संकल्‍प करता है, वैसा ही यहाँ से जाने पर बन जाता है। अतएव पूर्ण प्राणमय, मनोमय, प्रकाशरूप  तथा समस्‍त कामनाओं और विषयों के अधिष्‍ठानभूत ब्रह्म का ध्‍यान करना चाहिये।
                स्‍मरण रखने की बात यह है कि मानव जीवन नियमित सरल रेखा की गति से नहीं चलता, बल्कि इस पर विश्‍वजनीन कार्यकलापों के घात-प्रतिघात लगा करते है। सरल रेखा की गति से गमन करने पर जीवन की विशेषता भी चली जायेगी। क्‍योंकि जब तक जगत् के व्‍यापारों का प्रवाह जीवन-रेखा को धक्‍का देकर आगे नहीं बढाता अथवा पीछे लौटकर उसका ह्रास नहीं करता तब तक जीवन की दृढ़ता प्रकट नहीं हो सकती। तात्‍पर्य यह है कि सुख और दु:ख के भाव मात्र ही मानव को गतिशील बनाते है। इन भावों की उत्‍पत्ति बाह्य और आन्‍तरिक जगत् की संवेदनाओं से होती है। इसलिये मानव जीवन अनेक समस्‍यों का सन्‍दोह और उन्‍नति-अवनति, आत्‍मविकास और ह्रास के विभिन्‍न रहस्‍यों का पिटारा है। ज्‍योतिषशास्‍त्र आत्मिक भावों और रहस्‍यों को व्‍यक्‍त करने के साथ-साथ उपर्युक्‍त सन्‍दोह और पिटारे का प्रत्‍यक्षीकरण कर लेता है। भारतीय ज्‍योतिष का रहस्‍य इसी कारण अतिगूढ हो गया है। जीवन के आलोच्‍य सभी विषयों का इस शास्‍त्र का प्रतिपाद्य विषय बनाना ही इस बात का साक्षी है कि यह जीवन का विश्‍लेषण करने वाला शास्‍त्र है।
                भारतीय ज्‍योतिषशास्‍त्र के निर्माताओं के व्‍यावहारिक तथा पारमार्थिक ये दो लक्ष्‍य रहे है। प्रथम दृष्टि से इस शास्‍त्र का रहस्‍य गणना करना तथा दिक्, देश एवं काल के सम्‍बन्‍ध में मानव समाज को परिज्ञान कराना यहा जा सकता है। प्राकृतिक पदार्थों के अणु-अणु का परिशीलन एवं विश्‍लेषण करना भी इसी शास्‍त्र का लक्ष्‍य है। सांसारिक समस्‍त व्‍यापार दिक् देश और काल इन तीन के सम्‍बन्‍ध से ही परिचालित है। इन तीन के ज्ञान बिना व्‍यावहारिक जीवन की कोई भी क्रिया सम्‍यक् प्रकार सम्‍पादित नहीं की जा सकती है। अतएव सुचारु रूप से दैनन्दिन कार्यों का संचालन करना ज्‍योतिष का व्‍यावहारिक उद्देश्‍य है। इस शास्‍त्र में काल-समय को पुरुष-ब्रह्म माना है। और ग्रहों की रश्मियों के स्थितिवश इस पुरुष के उत्तम, मध्‍यम, उदासीन तथा अधम से चार अंग विभाग किये है।
                त्रिगुणात्‍मक प्रकृति के द्वारा निर्मित समस्‍त जगत् सत्त्‍व, रज और तमोमय है। जिन ग्रहों में सत्त्‍वगुण अधिक रहता है, उनकी किरणे अमृतमयी, जिनमें तमोगुण अधिक रहता है, उनकी विषमय किरणे तथा जिनमें तीनों गुणों की अल्‍पता रहती है, उनकी गुणहीन किरणें मानी गई है। ग्रहों के शुभाशुभत्‍व का विभाजन भी इन किरणों के गुणों से हुआ है। आकाश में प्रतिक्षण अमृत रश्मि सौम्‍य ग्रह अपनी गति से जहॉं-जहॉं जाते है, उनकी किरणे भूतल के उन-उन प्रदेशों में पडकर वहाँ के निवासियों के स्‍वास्‍थ्‍य, बुद्धि आदि पर अपना सौम्‍य प्रभाव डालती है। विषमय किरणों वो क्रूर ग्रह अपनी गति से जहॉं गमन करते है, वहाँ वे अपने दुष्‍प्रभाव से वहाँ के निवासियों के स्‍वास्‍थ्‍य और बुद्धि पर अपना बुरा प्रभाव डातले है। मिश्रित रश्मि ग्रहों के प्रभाव मिश्रित एवं गुणहीन रश्मियों के ग्रहों के प्रभाव अकिंचित्‍कर होते है।
                उत्‍पत्ति के समय जिन-जिन रश्मि वाले ग्रहों की प्रधानता होती है, जातक का स्‍वभाव वैसा ही बन जाता है। संसार की प्रत्‍येक वस्‍तु आन्‍दोलित अवस्‍था में रहती है, तथा हर वस्‍तु पर ग्रहों का प्रभाव पडता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य तथा शूद्र आदि चारों वर्णों की उत्‍पत्ति भी ग्रहों के सम्‍बन्‍ध से ही होती है। जिन व्‍यक्तियों का जन्‍म कालपुरुष के उत्तमांग अमृतमय रश्मियों के प्रभाव से होता है वे पूर्ण बुद्धि, सत्‍यवादी, अप्रमादी, स्‍वाध्‍यायशील, जितेन्द्रिय, मनस्‍वी एवं सच्‍चरित्र होते है। अतएव ब्राह्मण जिनका जन्‍मकाल पुरुष के मध्‍यमांग- रजोगुणाधिक्‍य मिश्रित रश्मियों के प्रभाव से होता है वे मध्‍यबुद्धि, तेजस्‍वी, शूरवीर, प्रतापी, निर्भय तथा दुष्‍टनिग्राहक होते है। अतएव क्षत्रिय: जिनका जन्‍म उदासीन अंग गुणत्रय की अल्‍पता वाली ग्रह-रश्मियों के प्रभाव से होता है वे उदासीन बुद्धि, व्‍यवसाय कुशल, पुरुषार्थी, स्‍वाध्‍यायरत तथा सम्‍पत्तिशाली होते है। अतएव वैश्‍य एवं जिनका जन्‍म अघमांग-तमोगुणाधिक्‍य रश्मिवाले ग्रहों के प्रभाव से होता है, वे विवेकशून्‍य, दुर्बुद्धि, व्‍यसनी, सेवावृत्ति एवं हीनाचरण वाले होते है। शूद्र बताये गये है। ज्‍योतिष की यह वर्ण व्‍यवस्‍था वंश-परम्‍परा से आगत वर्णव्‍यवस्‍था से भिन्‍न है, क्‍योंकि हीन वर्ण में भी जन्‍मा व्‍यक्ति ग्रहों की रश्मियों के प्रभाव से उच्‍च वर्ण का हो सकता है।
                भारतीय ज्‍योतिर्विदों का अभिमत है कि मानव जिस ग्रह-नक्षत्र वातावरण के तत्त्‍व प्रभाव विशेष में उत्‍पन्‍न एव पौषितहोता है, उसमें उसी तत्त्‍व की विशेषता रहती है। ग्रहों की स्थिति की विलक्षणता के कारण अन्‍य तत्त्‍वों का न्‍यूनाधिक प्रभाव होता है। देशकृत ग्रहों का संस्‍कार इस बात का द्योतक है कि स्‍थान विशेष के वातावरण में उत्‍पन्‍न एवं पुष्‍ट होने वाला प्राणी उस स्‍थान पर पडने वाली ग्रह-रश्मियों को अपनी निजि विशेषता के कारण अन्‍य स्‍थान पर उसी क्षण जन्में व्‍यक्ति की अपेक्षा भिन्‍न स्‍वभाव, भिन्‍न आकृति एवं विलक्षण शरीरवय वाला होता है। ग्रह रश्मियों का प्रभाव केवल मानव पर ही नहीं बल्कि वन्‍य, स्‍थजल तथा उद्भिज पर भी पडता है। ज्‍योतिषशास्‍त्र में मुहूर्त्त समय विधान की जो मर्म प्रधान व्‍यवस्‍था है, उसका रहस्‍य इतना ही है कि गगनगामी ग्र-नक्षत्रों की अमृत, विष तथा उभयगुण वाली रश्मियों का प्रभाव सदा एक सा नहीं रहता।
                जो अपने गुण और विशेषता के कारण किसी विशेष कार्य की सिद्धि के लिये ही उपयुक्‍त हो सकते है। अतएव विभिन्‍न कार्यों के लिये मुहूर्त्तशोधन, अन्‍धश्रद्धा या विश्‍वास की चीज नहीं है, किन्‍तु विज्ञान सम्‍मत रहस्‍यपूर्ण है। ग्रहों के अनिष्‍ट प्रभाव को दूर करने के लिये जो रत्‍न धारण की परिपाटी प्रचलित है, वह व्‍यर्थ नहीं है। प्राय: सभी लोग इस बात से परिचित है, कि सौरमण्‍डलीय वातावरण का प्रभाव पाषाणों के रंगरूप, आकार प्रकार एवं पृथिवी, जल, अग्नि आदि तत्त्‍वों में से किसी तत्त्‍व की प्रधानता पर पडता है। समगुण वाली रश्मियों के ग्रहों से पुष्‍ट और संचालित व्‍यक्ति को वैसी ही रश्मियों के वातावरण में उत्‍पन्‍न रत्‍न धारण कराया जाये तो वह उचित परिणाम देता है।
                ज्‍योतिषशास्‍त्र का प्रधान उद्देश्‍य यही है कि ग्रहों के स्‍वभाव और गुणों द्वारा अन्‍वय, व्‍यतिरेक रूप कार्यकारण जन्‍य अनुमान से अपने भावी सुख-दु:ख प्रभृति को पहले से अवगत कर अपने कार्यों में सजग रहना चाहिये। जिससे आगामी दु:ख को सुखरूप में परिवर्तित किया जा सके। यदि ग्रहों का फल अनिवार्य रूप से भोगना ही पडे, पुरुषार्थ को व्‍यर्थ मानें तो फिर इस जीवन को कभी मुक्तिलाभ हो ही नहीं सकेगा। किन्‍तु जब पुरुषार्थ प्रबल होता है, वहाँ अदृष्‍ट को भी टाला जा सकता है। अथवा न्‍यून किया जा सकता है। इस शास्‍त्र का उद्देश्‍य है कि यह समस्‍त मानव जीवन के प्रत्‍यक्ष और परोक्ष रहस्‍यों का विवेचन करता है और प्रतीकों द्वारा समस्‍त जीवन को प्रत्‍यक्ष रूप में उस प्रकार प्रकट करता है, जिस प्रकार दीपक अन्‍धेरे में रखी हुई वस्‍तु को दिखलाता है।
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