वास्तुशास्त्र
के उद्भव के विषय में एक प्राचीन कथा प्रचलित है। मत्स्य पुराण में कहा है कि
प्राचीन काल में भयंकर अन्धक असुर वध के समय विकराल रूपधारी भगवान् शंकर के ललाट
से पृथ्वी पर स्वेद बिन्दु गिरे थे उससे एक भीषण एवं विकराल मुख वाला उत्कट
प्राणी उत्पन्न हुआ था। वह ऐसा प्रतीत होता था मानों सातों द्वीपों सहित वसुंधरा
तथा आकाश को निगल जायेगा। तत्पश्चात् वह पृथ्वी पर गिरे हुये असुरों के रक्त
को पीने लगा। इस प्रकार वह उस युद्ध में पृथ्वी पर गिरे हुये सारे रक्त को पीने
लगा। इतने पर भी जब वह तृप्त नहीं हुआ तब भगवान् सदाशिव के सम्मुख अत्यन्त घोर
तपस्या में संलग्न हो गया। भूख से व्याकुल होने पर जब वह पुन: त्रिलोकी को
भक्षण करने के लिये उद्यत हुआ, तब उसकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवान् शंकर ने
कहा-निष्पाप! तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारी जो अभिलाषा हो, वह वर मॉंग लो।
तब उस प्राणी ने शिवजी से कहा - देवदेवेश!
मैं तीन लोकों को ग्रास करने में समर्थ होना चाहता हूँ। इस पर शिवजी ने कहा - ऐसा
ही होगा। फिर वह प्राणी अपने विशाल शरीर से स्वर्ग, सम्पूर्ण भूमण्डल तथा आकाश
को अवरूद्ध करता हुआ पृथ्वी पर आ गिरा। तब उससे भयभीत हुए देवता, ब्रह्मा, शिव,
दानव, दैत्य तथा राक्षसों द्वारा वह स्तम्भित कर दिया गया। उस समय उसे जहॉं जिस
देवता ने पकड रखा था, वह वहीं निवास करने लगा। इस प्रकार सभी देवताओं के निवास
होने के कारण वह वास्तु नाम से विख्यात हुआ। तब उस दबे हुये प्राणी ने भी सभी
देवताओं से निवेदन किया - देवगण, आप लोग मुझ पर प्रसन्न हो, आप लोगों द्वारा
दबाने से मैं निश्चल हो गया हूँ। भला इस प्रकार अवरूद्ध कर दिये जाने पर नीचे मुख
किये हुये मैं इस तरह कब तक स्थिर रह सकूँगा। उसके निवेदन करने पर ब्रह्मा आदि
देवताओं ने कहा - वास्तु के प्रसंग में तथा वैश्वदेव के अन्त में जो बलि दी
जायेगी वह निश्चय ही तुम्हारा आहार होगी। वास्तु शान्ति के लिये जो यज्ञ होगा,
वह भी तुम्हें आहार के रूप में प्राप्त होगा। यज्ञोत्सव बलि तुम्हारा आहार
होगी। वास्तु पूजा न करने वाले भी तुम्हारा आहार होंगे। अज्ञानवश किया गया यज्ञ
भी तुम्हारा आहार होगा। इस प्रकार के वचन सुनकर वह वास्तु नामक प्राणी प्रसन्न
हो गया। इस प्रकार वास्तु का उद्भव हुआ।
विश्व के प्रथम भवन का निर्माण श्री विश्वकर्मा
ने किया था इसलिये उन्हें विश्व का प्रथम भवन निर्माता माना जाता है। ब्रह्माणी
के पश्चात् दूसरा स्थान पुराणों में विश्वकर्मा का माना गया है। जिस तरह किसी
वर्ग विशेष को खाती, मिस्त्री आदि सम्बोधित किया जाता है, उसी प्रकार भवन
निर्माण करने वाले को साधारण भाषा में कारीगर कहते है। ये ही विश्वकर्मा के वंशज
है। जब नवीन भवन निर्माण हेतु नींव की खुदाई होती है, तब पंचधातु की प्रतिमा तॉंबे
के छोटे से कलश में रखकर उसे नींव स्थान पर रखते है। उसके पश्चात् निर्माण कार्य
आरम्भ किया जाता है।
आज वर्तमान में जितने भी भवन, प्रासाद आदि
दिखाई देते है, ये सभी वास्तुशास्त्र के प्रथम प्रणेता श्री विश्वकर्मा द्वारा
सृजित है। विश्वकर्मा के चार पुत्र थे - जय, विजय, सिद्धार्थ तथा अपराजित। इन
चारों विद्वानों ने स्वयं अपनी विद्वता से वास्तुशास्त्र के सैद्धान्तिक ग्रन्थों
की रचना की। समयानुसार इन चारों विद्वानों ने अपना ज्ञान अपने शिष्यों को प्रदान
किया। उन शिष्यों ने वास्तुशास्त्र को उपयोगी बनाने हेतु जनता में प्रसार किया।
इस महत्त्वपूर्ण शास्त्र को अपनाने वाले खाती, मिस्त्री तथा कारीगर थे, जो विश्वकर्मा
के ये सूत्रधार इस शास्त्र को निरन्तर जन सामान्य के हितार्थ प्रसारित करने में
लगे है।