वेदों में वास्तुशास्त्र
वैदिक काल में वास्तु विद्या अपने विकसित रूप में थी। वैदिक वाङ्मय में वास्तुकला से सम्बन्धित अनेक प्रसंग एवं शब्द इस बात के साक्ष्य है, जैसे स्कम्भ (घरों की छत आदि को टिकाने वाले स्तम्भ) इन्द्र को स्कम्भीयान अर्थात् सर्वश्रेष्ठ स्तम्भ या खम्भे का स्वामी कहा गया है। घर के भिन्न-भिन्न भागों को खम्भों पर टिकाते थे। एक मन्त्र में मजबूत आधार पर स्थापित किये तीन खम्भों का वर्ण है। उनके ऊपर तिकोनी या ढोलकाकार छत बनाई जाती थी। स्तम्भ की नींव को “धरूण” के नाम से जाना जाता था। (ऋग्वेद -
10.11.52, 8.41.10.3.1.34.24.10.44.4)
वेदों में भवन या घर के पर्याय के रूप में कई शब्दों का प्रयोग हुआ है, जैसे गृह, हर्म्य, सदन, दम, दुरोण, अस्त, शरण तथा पस्त्या। इस भवन के चार प्रमुख भाग होते थे। प्रथम भाग सामने के ऑंगन सहित गृहद्वार, दूसरा भाग सदस या स्थायिका (बैठक) थी, जिसे सभा तथा कालान्तर में आस्थान मण्डप भी कहते थे। राजमहलों का यह वह भाग था जिसमें राजदरबार का लगना तथा अतिथि स्वागत स्थल होता था। घर का तीसरा भाग पत्नी सदन हुआ करता था बाद में जिसे अन्त:पुर कहा जाने लगा। घर का चौथा भाग अग्निशाला या यज्ञशाला कहलाता था, जहॉं श्रौत-अग्नियों का आधान किया जाता था। इसलिये इसे अग्निशरण भी कहते थे। कालानतर में यही अग्निशरण देवगृह कहलाया। गृह या प्रासाद निर्माण की यह स्पष्ट योजना भारतीय परम्परा में निरनतर चलती रही। गृह निर्माण छोटे या बडे अनेक रूपों में किया जाता था। बडे गृह को बृहतमान तथा छोटे गृह को शाला कहा जाता था। अथर्ववेद के दो शाला सूक्तों में घर के अन्य भागों का वर्णन किया है। घर के समस्त सौन्दर्य की पराकाष्ठा की अभिव्यक्ति के लिये उसकी तुलना नववधु से की गई है। उस युग में जब कोई गृहपति घर का निर्माण करवाता था तो उसके मानस में यही होता था कि यह शाला गोमती, अश्वावती, पयस्वती, घृतवती, ऊर्जस्वती और सुनृतावती बनकर मेरे लिये कल्याणकारी और महान सौभाग्य को प्रदान करने वाली होगी।
शतपथ ब्राह्मण के अनुसार घर के दो भाग होते थे। एक पूर्वार्ध या सदस जहॉं प्राय: पुरुषों का उठना-बैठना रहता था। इस सदस से एक बडा स्तम्भ खडा किया जाता था, जिसे वरसिष्ठ स्थूणाराज कहते थे। घर के पीदे वाले हिस्से में पत्नी सदन याअन्त:पुर बनाया जाता था। इसकी रचना भी पर्याप्त लम्बाई-चौडाई में की जाती थी। जैसे सुन्दर स्त्री वरीयसी और पृथुश्रोणि होती है, उसी प्रकार इस शाला के उत्तरार्ध भाग को भी बनाया जाता था। वास्तुशास्त्रीय सैद्धान्तिक विवेचन तथा निर्माण विधियों के सर्वाधिक प्राचीन अंश अर्थववेद में उपलब्ध होते है। इनमें स्तम्भ रचना विधि, उन स्तम्भों पर आश्रित परस्पर प्रतिस्थापित शहतीरों से उनको जोडने तथा उन पर बॉंस की बल्लियों को छाकर छत बनाने और उसके ऊपर घस-फूस डालकर उसे ढकने का वर्णन है। उसमें भवन की वैदिक गोष्ठी शाला, भण्डार गृह, अन्त:पुर, यज्ञशाला तथा अतिथिगृह जैसे घर महत्त्वपूर्ण भागों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। अत: अथर्ववेद ऐसा सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ है, जिसमें वास्तु शास्त्रीय निर्माण विधि का सैद्धान्तिक उल्लेख मिलता है।
यज्ञ-यागादि विविध धार्मिक अनुष्ठानों के लिये आवश्यक यज्ञवेदियों के विभिन्न रूपों की निर्माण विधियों के विषय में ध्यानाकर्षण सूक्ष्म विवरण प्राप्त होते है। ईटों की लम्बाई-चौडाई भी बताई गई है। इसके अतिरिक्त भी अनेक ग्रन्थों में वास्तु का वर्णन मिलता है। जैसे अथर्ववेद तथा शुल्वसूत्र साहित्य, कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र तथा शुक्राचार्य प्रणीत शुक्रनीति, नाट्यशास्त्र जैसे नाट्यकला प्रतिपादक ग्रन्थ एवं पुराण तथा भुक्ति और मुक्ति का प्रतिपादन करने वाले आगम ग्रन्थ इन ग्रन्थों में वास्तुशास्त्रीय सैद्धान्तिक सामग्री प्रसंगवश मिल जाती है। परन्तु इनके अतिरिक्त वास्तुकला संबंधी तीन प्राचीन परम्परायें है - 1.
शैव, 2. ब्रह्म, 3. माय। यहॉं एक बात ध्यान देने की है कि इन परम्पराओं का उल्लेख करने वाला साहित्य उस युग में लिखा गया था जिस समय ये परम्परायें परस्पर इतनी प्रभावित हो चुकी थी कि उनके भेद सूचक विशेष लक्षण समाप्त हो चुके थे। इन्हीं परम्पराओं के आधार पर वास्तुकला के अत्यन्त विशाल साहित्य की रचना की गई थी।
वास्तुशास्त्रीय ऐतिहासिक महत्त्व के कुछ अवास्तुशास्त्रीय ग्रन्थ है जिनका रचनाकाल निश्चित रूप से ज्ञात है। शुक्रनीति तथा कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र ऐसे ही ग्रन्थ है। अतएव वास्तुकला से संबंधित जो सामग्री इनमें वर्णित है, उसका अपना ऐतिहासिक महत्त्व है। आचार्य शुक्रप्रणीत “शुक्रनीति” में देवमन्दिर एवं राजप्रासाद के समकक्ष अन्य प्रकार के भवनों के निर्माण की विधियों, नियमों तथा उपनियमों का उल्लेख प्राप्त होता है। इनमें दुर्ग रक्षित नगरों एवं दुर्गो के निर्माण की प्रक्रिया का पूर्ण वर्णन है। चाणक्य के समय में वास्तुकला विज्ञान ने अपना विशिष्ट स्थान बना लिया था। वास्तुकला के कुशल वैज्ञानिकों का वर्णन इन्होंने स्वरचित अर्थशास्त्र ग्रन्थ के इक्कीसवें अध्याय में किया है। कौटिल्य ने इस ग्रन्थ में एक राज्य में भूमि विभाजन प्रकार की ग्राम-निवेश एवं पुर-निवेश (नगर-निवेश) के विविध नियमों, उपनियमों तथा विधियों को विसतार से प्रस्तुत किया है।
हडप्पा एवं मोहनजोदडो के पुरातात्विक भग्नावशेषों से यह सिद्ध होता है कि शैव आगम और वास्तुकला में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध था।अत: यह अनुमान तर्क संगत है कि शैवागमों में निरूपित वास्तुकला की निर्माणकला सर्वाधिक प्राचीन है। शैवागमों की संख्या 92 है। सामान्यत: एक शैवागम के चार पाद अथवा भाग होते है। ज्ञानपाद, योगपाद, चर्यापाद, तथा क्रियापाद, क्रियापाद में वास्तुकला का प्रतिपादन किया गया है। पौराणिक साहित्य का अनुशीलन करने से यह ज्ञात होता है कि लगभग बारह पुराणों में वास्तुकला संबंधी वर्णन मिलता है, जिनमें मुख्यत: मत्स्यपुराण के आठ अध्यायों में वास्तुविद्या का वर्णन मिलता है। गरूड पुराण में वास्तुविद्या प्रतिपादक 4 अध्याय है। अग्निपुराण में वास्तुकला का वर्णन तीन अध्यायों में किया गया है। भविष्य पुराण के एक अध्याय में वास्तुकला का वर्णन है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में इस वास्तु विद्या का प्रतिपादन 43 अध्यायों में किया गया है। जिसमें वास्तु की समस्त विद्याओं पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
आदि कवि वाल्मीकि कृत रामायण के किष्किन्धाकाण्ड के 50 वें सर्ग से लेकर 53 वें सर्ग तक भूगर्भ में वर्तमान गिरिदुर्ग का बडा मनोहारी वर्णन है। इसकी रचना मय ने अपने लोकोत्तर शक्तियों से की थी। सुन्दरकाण्ड में आदिकवि ने लिखा है कि लंका के बने हुये रावण के भवनों का सौन्दर्य तथा सर्वांगीण रमणीयता अत्यधिक विलक्षण थी। महाभारत के सभापर्व के प्रथम अध्याय में वास्तुशास्त्र के जनक विश्वकर्मा और मय का वर्णन है। महाभारत में लिख है कि देवताओं में जो प्रतिष्ठा विश्वकर्मा की है असुरों में वही प्रतिष्ठा मय की है। विलक्षण सौन्दर्य से युक्त पाण्डवों के सभा भवन की रचना मय ने की थीजिसमें जल के स्थान पर स्थल और द्वार के स्थान पर दीवार दिखाई देती है।
नाट्यशास्त्र के जनक भरतमुनि ने स्वरचित नाट्यशास्त्र में वास्तु नियमों के अनुसार रंगशाला की रचना विधि के नियमों को स्पष्ट करते हुये उस के महत्त्व को भी प्रदर्शित किया है। भरतमुनि ने आकार के अनुसार रंगशाला को तीन श्रेणियों में रखा है। 1. वर्गाकार, 2. आयताकार, 3. त्रिकोणाकार। पुन: इन तीन आकारों के तीन परिमाण भेद भी बताये है विशाल, मध्यम, लघु। इस प्रकार वास्तुकला सम्बन्धी सामान्य बातों को लेकर गृह भूमि का चुनाव, उसका शोधन, विस्तार के परिमाण निर्धारण, नाट्यशाला का नक्शा, शिलान्यास विधि, भित्ति रचना, द्वारों से युक्त प्रसाधन प्रकोष्ठ, रंगमंच का चबूतरा चार स्तम्भों पर आधारित रंगमंच के पार्श्व भागों में पूरी लम्बाई में बने हुये छज्जे या प्रग्रीव। भरतमुनि ने यह भी निर्देश किया है कि रंगमंच का फर्श कच्छप अथवा मच्छली की पीठ के समान वर्तुलाकार न होकर-दर्पण की भांति समतल होना चाहिये।
पूर्वमध्यकालीन युग में भारतीय ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक सक्रियता निरन्तर बनी रही। विदेशी आक्रमणों की मार से भारतवर्ष को राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से भारी आघात पहुँचा था परन्तु भारतीय संस्कृति के पाये इतने दृढ़ एवं सशक्त थे कि आघात की भीषणता की तुलना में भारतीय चिन्तनधारा एवं भारतीय संस्कृति को कलात्मक दृष्टि से क्षति तो हुई परन्तु सुरक्षात्मक प्रतिरोध की दिशा में भी अनेक प्रयास होने लगे। प्राचीन ग्रन्थों एवं सांस्कृतिक शिष्ट परम्पराओं के संरक्षण का सराहनीय प्रयास हुआ। वास्तु एवं शिल्प शास्त्रीय विवेचन में इस युग में प्रचुर मात्रा में मौलिक ग्रन्थों तथा रचनाओं का प्रणयन हुआ। इस युग के वास्तु विद्या विशारदों ने पूर्वकालिक महनीय परम्पराओं का सम्यक् निर्वहन और संकलन करके नूतन उद्भावनाओं और प्रयोगों के प्रति अपनी मजबूत इच्छाओं तथा दृढ आस्था को अभिव्यक्त किया है।
वस्तुत: वास्तु विद्या की अनूठी युक्तियों सर्वविध सुरक्षा एवं सुविधा के लिये ही थी। और इनमें सामान्यतया उन्हीं अनुभूत परम्पराओं का संकलन था, जो युगो-युगों से भारतीय वास्तु-विशारदों के व्यवहार में थी। इन शास्त्रीय युक्तियों और विधानों से वास्तु विद्या को सामाजिक उत्थान के लिये एक सशक्त माध्यम तथा अत्यधिक व्यवहारोपयोगी बनने में सुविधा मिली। वास्तुकलाविद् स्थपतियों को आदेश था कि वे भवन-निर्माण-विधान में सौन्दर्य भावना की उपेक्षा न करें।