Thursday, 20 October 2016

ज्‍योतिष शब्‍द की व्‍युत्‍पत्ति

Posted by Dr.Nishant Pareek
द्योतते द्युत्‍यते वा इति द्युत् इसुन प्रत्‍यय तथा द का ज करने पर तथा स को मूर्धन्‍य (ष्) आदेश होने पर ज्‍योतिष् शब्‍द निष्‍पन्‍न होता है। इसका अर्थ है- प्रकाश, प्रभा, चमक, दीप्ति आदि। इसी ज्‍योतिष् शब्‍द से अच् प्रत्‍यय होने पर ज्‍योतिष शब्‍द बना, जो प्रकाशक, प्रकाश युक्‍त आदि अर्थो में प्रयुक्‍त होता है। “ज्‍योतिरेव ज्‍योतिषम्” ज्‍योति ही ज्‍योतिष शास्‍त्र स्‍वीकार किया गया है। “ज्‍योतिषी भवं ज्‍योतिषम् शास्‍त्रम्” “ज्‍योतिष शास्‍त्रम् अधीते वेद: वा स: ज्‍यौतिष” यहाँ ज्‍योतिष शब्‍द से “तदधीते तद् वेद” इसी पाणिनी सूत्र से अण् प्रत्‍यय किया गया है। जिसका अर्थ - ज्‍योतिष पढने वाला, जानने वाला ज्‍योतिष है। सूर्य, चन्‍द्र, नक्षत्र,ग्रहादि, ज्‍योति पद वाच्‍य है। अत: इनसे सम्‍बद्ध अध्‍ययन ही इस शास्‍त्र का विषय है।
    ज्‍योतिषां सूर्यादि ग्रहाणां बोधकम् शास्‍त्रम् अर्थात् सूर्य-चन्‍द्र आदि ग्रह तथा काल का बोध कराने वाले शास्‍त्र को ज्‍योतिष शास्‍त्र कहते है। इस शास्‍त्र में प्रमुख रूप से ग्रह, नक्षत्र, धूमकेतु आदि का संचार स्‍वरूप, भ्रमण समय, ग्रहण से जुडी हुई समस्‍त घटनाओं की जानकारी, ग्रह-नक्षत्रों की चाल, स्थिति तथा संचार के अनुसार शुभाभुभ फलों का विचार किया जाता है। कुछ आचार्यों के अनुसार आकाश में स्थित ज्‍योति संबंधी विविध विषयों वाली विद्या को ज्‍योतिर्विद्या कहते है तथा जिस शास्‍त्र में इस विद्या का सम्‍पूर्ण वर्णन होता है, वह ज्‍योतिष शास्‍त्र कहलाता है।
    ज्‍योतिष शास्‍त्र की परिभाषा में मुख्‍य रूप से तीन स्‍कन्‍ध होरा, सिद्धान्‍त, संहिता का समावेश है। परन्‍तु आधुनिक काल में इन तीनों में प्रश्‍न व शकुन का भी समावेश हो गया। फिर ये तीन से पाँच होरा, सिद्धान्‍त, संहिता, प्रश्‍न, शकुन में परिवर्तित हो गये। यदि इन पाँचों स्‍कन्‍धों को परिभाषित किया जाये तो इनमें आधुनिक मनोविज्ञान, जीव विज्ञान, पदार्थ विज्ञान रसायन विज्ञान, चिकित्‍सा विज्ञान भी समाहीत हो जाते हैं। परन्‍तु ज्‍योतिष शास्‍त्र के मुख्‍य रूप से तीन ही स्‍कन्‍ध है।
    1. होरा - अंग्रेजी के घंटावाची शब्‍द का उच्‍चारण उसे आदि अक्षर के अनुच्‍चारित होने के हेतु “अवर” है। परन्‍तु उसका आद्यवर्ण हकार है। (HOUR = हवर)। इसी शब्‍द से “होरा” शब्‍द की उत्‍पत्ति आज मानी जाती है। परन्‍तु वराहमिहिर का कहना है कि “अहोरात्र” शब्‍द के आदि तथा अन्‍त वर्णों के लोप हो जाने से “होरा” निष्‍पन्‍न होता है और इसलिये यह संस्‍कृत शब्‍द है, यूनानी शब्‍द नहीं है। होरा की आधुनिक संज्ञा “जातक” है। ज्‍योतिष की जिस शाखा में प्राणी के जन्‍मकालीन ग्रहों की स्थिति से उसके जीवन में घटने वाली अतीत, भविष्‍य तथा वर्तमान बातें बताई जाती है, वह जातक कहलाता है।( बृहत् संहिता प्रथम भाग - पृ. 66-69 ) होरा के अन्‍तर्गत ही अरबी भाषा से अनुदित ताजिकशास्‍त्र है। ताजिक में किसी मनुष्‍य के वर्ष प्रवेश काल की ग्रह स्थिति के अनुसार वर्ष भर में होने वाले शुभाशुभ का तथा प्रश्‍नकालिक ग्रह स्थिति से फलादेश का विचार किया जाता है। इस शास्‍त्र के समस्‍त पारिभाषिक शब्‍द अरबी भाषा के है।
    2. सिद्धान्‍त - जिस शास्‍त्र में गणना द्वारा ग्रहों की आकाशीय स्थिति का निर्धारण किया जाता है, उसे सिद्धान्‍त कहते है, कालगणना, ग्रहगति गणना, अंकगणित, बीज गणित, रेखागणित, पृथ्‍वी-नक्षत्र ग्रहों की संख्‍या का निरूपण तथा ग्रहवेध के लिये यन्‍त्रों का निर्माण आदि वस्‍तुएँ सिद्धान्‍त के प्रतिपाद्य है। तन्‍त्र तथा करण का भी अन्‍तर्भाव इसी स्‍कन्‍ध में किया गया है। तन्‍त्र में युगादि से कालगणना करके ग्रहों का आनयन किया जाता है। परन्‍तु करण में किसी नियत शकवर्ष से ही ग्रहों का साधन किया जाता है। यथा सूर्य सिद्धान्‍त, सिद्धान्‍त ग्रन्‍थ है, आर्यभट्टीय तन्‍त्र ग्रन्‍थ है तथा केतकी ग्रहगणित, ग्रहलाघव आदि करण ग्रन्‍थ है। 
3. संहिता - ज्‍योतिष की जिस शाखा में ग्रहों की तात्‍कालिक स्थिति से सुभिक्ष, दुर्भिक्ष राष्‍ट्रीय लाभ-हानि आदि पूरे राष्‍ट्र के लिये उपयोगी सार्वभौम शुभाशुभ फलों का निर्देश किया जाता है, उसे “संहिता” कहते है। वराहमिहिर ने संहिता के प्रतिपाद्य विषयों के अन्‍तर्गत अनेक विषयों का विवरण दिया है जिनमें राष्‍ट्र की समृद्धि तथा अकाल सूचक ग्रहचारों के अतिरिक्‍त वास्‍तुविद्या, अंगविद्या, वायसविद्या, प्रासादलक्षण, प्रतिमालक्षण, वृक्षायुर्वेद, दकार्गल (पृथ्‍वी में पानी मिलने का स्‍थान) आदि विचित्र तथा विलक्षण विद्यायें सन्निविष्‍ट मानी गई है। प्राचीन काल में यही स्‍कन्‍ध प्रमुख माना जाता था। इसलिये ही इसके आचार्यों की एक लम्‍बी परम्‍परा चलती आ रही है। इनमें कश्‍यप, गर्ग, देवल पराशर, वृद्धगर्ग, वसिष्‍ठ आदि के नाम ही उपलब्‍ध नहीं होते अपितु भट्टोत्‍पल की व्‍याख्‍या के अनुसार इनके लम्‍बे-लम्‍बे उद्धरण भी मिलते है। यह इस बात का प्रमाण है कि ये ग्रन्‍थ दशम शती के उत्तरार्ध तक उपलब्‍ध होते थे। जब भट्टोत्‍पल ने वराहमिहिर के ग्रन्‍थों पर अपनी विशिष्‍ट विवृतियाँ लिखी। वराहमिहिर की बृहतसंहिता इस स्‍कन्‍ध का प्रमुख ग्रन्‍थ है। जिसके उदय ने प्राचीन संहिताओं को निरस्‍त कर दिया।
    ज्‍योतिषशास्‍त्र की परिभाषा समय के अनुसार बदलती रही है। प्राचीनकाल में नक्षत्र-तारों के स्‍वरूप विज्ञान को ही ज्‍योतिष शास्‍त्र कहा जाता था। उस समय इसमें गणित व सिद्धान्‍त का समावेश नहीं हुआ था। नेत्रों द्वारा ही ग्रह-नक्षत्रों का अवलोकन किया जाता था। प्रारम्भिक काल में सूर्य-चन्‍द्रमा देवता के रूप में पूजे जाते थे। वेद-पुराणों में सूर्य तथा चन्‍द्रमा की स्‍तुति के लिये अनेक स्‍त्रोत पाये जाते है। समय के साथ-साथ ज्ञान में वृद्धि हुई तथा इस शास्‍त्र का विकास हुआ, ग्रहों की गति, स्थिति, अयनांश, पात आदि गणित ज्‍योतिष के अन्‍तर्गत आ गये। शुभाशुभ समय का निर्णय, स्‍थान का निर्णय करना फलित ज्‍योतिष के अन्तर्गत आ गया। पूर्वमध्‍यकाल में जाकर सिद्धान्‍त ज्‍योतिष का विकास हुआ। इसमें खगोलीय निरीक्षण, ग्रहवेध परिवाटी का समावेश हुआ। इस प्रकार ज्‍योतिष शास्‍त्र की परिभाषा तब से लेकर आज तक विकसित होती चली आ रही है।
Powered by Blogger.