kalsarp yog ki paribhasha, tark or uske dushparinaam
कालसर्प योग:-ः परिभाषा, तर्क एवं दुष्परिणाम
यह आश्चर्यजनक बात है कि इस महत्त्वपूर्ण और गंभीर योग के विषय में भरपूर मात्रा में मतभेद है। महर्षि पाराशर एवं वाराहमिहिर द्वारा रचित ग्रंथों में इस विषय में इसी भी प्रकार का उल्लेख नहीं है। परिणामस्वरूप लगभग सभी ज्योतिष ग्रंथों तथा पुस्तकों में से कालसर्पयोग विलुप्त है। डॉ० बी.वी. रमन की प्रख्यात पुस्तक तीन सौ महत्त्वपूर्ण योग में इस योग का बहुत ही सूक्ष्म उल्लेख मिलता है। किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि ज्ञान विज्ञान को समय की सीमा में बांध सकते है। यह अटल सत्य है कि ज्योतिष परम्परा में प्रयोग एवं अनुसंधान का प्रमुख स्थान है। ज्योतिष शास्त्र अनेक चरणों से होता हुआ अनुभव, अनुसंधान, अनुशीलन द्वारा जिज्ञासाओं तक पहुंचा है। यह लेख इसी संदर्भ में प्रस्तुत है। यदि समस्त ग्रह पापी अथवा क्रूर ग्रहों की परिधि में सम्मिलित हो जाएँ तो ग्रहों की नैसर्गिक शुभता, ग्रहण में परिवर्तित हो जाएगी। इससे समस्त जीवन उन्नति अवनति के चक्रव्यूह में फंस जायेगा।
सूर्य एवं चंद्र यदि दो ग्रहों के मध्य में हो, तो उभयचरी व दुरुधरा योग निर्मित होते हैं। किसी भाव के दोनों ओर पाप अथवा शुभ ग्रह संस्थित हों, तो पापकर्तरि अथवा शुभकर्तरि योग सम्पन्न होता है। चंद्रमा दोनों ओर से ग्रहरहित हो, तो केमद्रुम नामक बाधाकारक योग प्रकट होता है। पापग्रहों के मध्य स्थित शुक्र द्विविवाह की संभावना और बृहस्पति सन्तति सुख बाधा का संकेत करते हैं। यदि ये समस्त सातों ग्रह राहु-केतु के समान कू्रर ग्रहों से पीड़ित हो, तो दुष्परिणामों की कल्पना करना भी असंभव है। तर्कों के द्वंद्व का परिणाम यही है कि नभमंडल में और जन्म कुंडली में राहु केतु की स्थिति को नकारा नहीं जा सकता। इससे व्यक्ति की प्रगति, उन्नति, समृद्धि, सन्तति, दाम्पत्य शारीरिक स्थिति प्रभावित हो सकती है।
यद्यपि ज्योतिष के प्राचीन गं्रथों में कालसर्पयोग का विवरण अनुपलब्ध है। परंतु सारावली तथा मानसागरी सदृश ग्रंथों में अन्य घातक योगों (सर्प योग, विष योग, शकट योग, केमद्रुम योग, भैरव योग, महाकाल योग, काल योग, वैदूषण योग) का सविस्तार विवेचन है। कालसर्पयोग इससे भी घातक कोटि का विचारणीय ग्रह योग है। इसकी अवरोधक अथवा बाधामूलक भूमिका सुस्पष्ट करने हेतु एक उदाहरण पर विचार करते है। यदि किसी के पास स्वर्ण मुद्राओं, रत्नों, अमूल्य आभूषणों से संपन्न विशाल कलश हो, किन्तु उसे भयंकर विषधर सर्प ने अपने नियंत्रण में ले लिया हो तो वह स्वर्ण पूरित कलश व्यर्थ है। किसी काम का नहीं हैंै। इसी प्रकार विभिन्न शुभ ग्रह योग सज्जित किन्तु कालसर्पयोग वेष्टित कुंडली के शुभफल तब तक प्राप्त नहीं होते, जब तक कालसर्पयोग का की शांति अथवा शमन नहीं होता। समस्त सकारात्मक, शुभ, उत्साहवर्द्धक शुभफल सर्पग्रस्त हो जाते हैं। अशुभ फल निरंतर वृद्धि को प्राप्त होते हैं। व्यक्ति की समस्त व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक स्थितियाँ नियंत्रण से बाहर हो जाती हैं। कालसर्पयोग योग में उत्पन्न जातक जीवनभर अनेक प्रकार की विपत्तियों को झेलने के लिये विवश हो जाता है।
कालसर्प योग की परिभाषाः-
विभिन्न शास्त्रों में कालसर्प योग की जो परिभाषा प्रतिपादित की गयी है वह यहां प्रतिपादित की जा रही हैः-
अग्रे वा चेत् पृष्ठतोऽप्येक पावें भाना षट्के राहुकेतो न खेटः।
योगप्रोक्तः कालसर्पश्च यस्मिन् जातो जाता वाऽर्थ पुत्रार्तिमीयात् ॥१॥
अर्थ - यदि राहु आगे हो तथा केतु पीछे हो, अथवा केतु आगे हो तथा राहु पीछे हो और सूर्यादि सातों ग्रह राहु से केतु के मध्य अथवा केतु से राहु के मध्य संस्थित हों, तो कालसर्प नामक योग की संरचना होती है। इस योग में जन्म लेने वाला व्यक्ति धन, परिवार सुख आदि से वंचित होता है।
राहवः केतुमध्ये आगच्छन्ति यदा ग्रहाः।
कालसर्पस्त योगोऽयं कथितं पूर्वसूरिभिः।।२।।
अर्थ - राहु से केतु के मध्य में जब सभी ग्रह आ जायें, तो कालसर्प नामक योग की संरचना होती है। ऐसा पूर्व में भी मनीषियों ने कहा है।
अग्रे राहुरथो केतुः सर्वे मध्ये गतागृहाः।
योग कालसर्पाख्य नृपाशस्या विनाशनम् ।।३।।
अर्थ- यदि राहु आगे हो तथा बाद में केतु हो एवं राहु और केतु के मध्य सभी ग्रह स्थित हो, तो उसे कालसर्प नामक योग कहा गया है, जो राजयोग का विनाश करने वाला होता है।
उपरोक्त श्लोकों का शब्दार्थ कालसर्प योग के निर्माण को स्पष्ट रूप परिलक्षित रहा है। राहु आगे हो तथा केतु पीछे हो और सभी ग्रह राहु व केतु के मध्य स्थित हो तो कालसर्प योग की संरचना स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। जन्मांग में कालसर्प की स्थापना होने पर विनाश, अवरोध तथा निरन्तर कष्ट की स्थिति जीवन को आप करती है।
उल्लेखनीय है कि राहु से केतु के मध्य सातों ग्रहों के संस्थित होने पर कालसर्प योग की संरचना होती ही है परन्तु उपरोक्त श्लोकों में स्पष्ट रूप से वर्णित है कि केतु से राहु के मध्य भी सातों ग्रहों के स्थित होने पर कालसर्प योग का निर्माण होता है। अतः यह महत्त्वपूर्ण तथ्य स्पष्ट है कि राहु से केतु के मध्य अथवा केतु से राहु के मध्य शेष सातों ग्रहों की संस्थिति होने पर कालसर्प योग निर्मित होता है। किन स्थितियों में कालसर्प योग प्रभावशाली होता है और किन परिस्थितियों में प्रभावहीन होता है इसका अनुभव सिद्ध विश्लेषण तथा उल्लेख आगे आने वाले लेखों में किया जायेगा।