Chothe bhav me shani ka shubh samanya fal
चौथे भाव में शनि का शुभ अशुभ सामान्य फल
शुभ फल : चतुर्थ भाव के शनि के प्रभाव से जातक प्राय: उदार, शान्त, गम्भीर, उदात्त, धैर्यसम्पन्न, निर्लोभी, न्यायी, व्यसनहीन, अतिथि-सत्कार कर्ता, बड़ी-बड़ी संस्थाओं के लिए सम्पत्ति अर्पण करनेवाला होता है। अत्यन्त उदार होने से उत्तरावस्था में दरिद्र भी हो जाता हैं। किन्तु परोपकार से विमुख नहीं होता। गुणी स्वभाव वाला होता है। चतुर्थ शनि हो तो जातक बहुत धनी प्रचुर धन प्राप्त करता है। जातक को घोड़े या पालकी की सवारी मिलती है। शनि लग्नेश होने से माता दीर्घायु होती है और जातक सुखी होता है। चैथेभाव का शनि जातक के लिए दत्तक पुत्र होने का योग बनाता है। चैथे भाव में शनि के प्रभाव से जातक किसी दूर देशान्तर में प्रगति कर पाता है। आयु के 16।22।24।27।36 वर्ष भाग्यकारक वर्ष है। इन वर्षों में नौकरी, विवाह, सन्तति आदि सम्भवित होते हैं। शनि से पूर्व आयु में 36 वें वर्ष तक कष्ट रहता है, तदनन्तर 56 वें वर्ष तक स्थिति अच्छी रहती है।
चतुर्थभावगत शनि से शत्रुओं से सम्पर्क होकर सुख मिलता है। शनि उच्च या स्वक्षेत्र में होने से दोष नहीं होते। शनि मकर, कुंभ या तुला में शुभ संबंध में होने से पूर्वार्जित इस्टेट अच्छी मिलती है। जमीन, घरबार, खेती, खानो के कारोबार में लाभ होता है। उत्तर वय में अच्छा फायदा होता है। लोभी होता है। मृत्यु समय तक अधिक से अधिक धन प्राप्त करना चाहता है। चतुर्थभावस्थ शनि कन्या, मकर तथा कुम्भ में होने से व्यापार के लिए अच्छा है। इन राशियों के शनि में नौकरी की जावे तो प्रगति नहीं होती-प्रायरू बहुत देरतक एक ही स्थान में पड़े रहना होता है। पैतृक सम्पत्ति भी नहीं मिलती-इकलौता लड़का होते हुए भी उत्तराधिकार से वंचित रहना पड़ता है। व्यापार में भी प्रारम्भ अस्थिर-सा होता है कई प्रकार के भय लगे रहते हैं। चतुर्थभाव वृष, कन्या या मकर में शनि होने से सन्तति मध्यम प्रमाण में होती है। वृष, कन्या, मकर में पश्चिम की ओर प्रगति के लिए अनुकूल होता है।
अशुभ फल : चतुर्थभावस्थ शनि होने से जातक पित्त और बात के प्रकोप से कृशदेही-निर्बल और दुर्बल शरीर होता है। नाखून और रोम बड़े़े होते हैं। चतुर्थभाव में शनि के होने से जातक के शरीर में सुख नहीं होता। जातक कुत्सित-स्वभाववाला, मलिन, आलसी, शीघ्रकोपी, झगडालू, धूर्त, दुराचारी और कपटी होता है। दुष्टों की संगति में रहनेवाला और दुर्जनों से घिरा हुआ रहता है। जातक चिंन्ता से युक्त, मानसिक व्यथावाला होता है। चतुर्थास्थ शनि होने से जातक गृहहीन, मानहीन और मातृहीन होता है। चैथे भाव में स्थित शनि जातक की माता को कष्टप्रद रहता है, अथवा माता से विरोध भाव कराता है। जातक अपने माता-पिता के लिए सन्ताप का कारण होता है। माता पिता को कष्ट देता रहता है। चतुर्थभावस्थ शनि सौतेली मां का अस्तित्व सूचित करता है। द्विभार्या योग होता है। पुरुषराशियों में साधारणतया 48 से 52 वर्ष में पत्नी का देहान्त सम्भावित होता है। द्विभार्यायोग के कई एक अर्थ हैंरू- 1- एक का निर्याण-द्वितीय का आगमन, प्रथमा में सन्तान के अभाव में द्वितीया का परिणय। 2- एक ही समय में जीवित दो स्त्रियों का घर में होना। 3- निर्धन माता-पिता का दो कन्याओं को एक ही वर से विवाहसूत्र से बांध देना। चैथे स्थान का शनि जातक को पिता के धन से वंचित करता है। जिस जातक के लग्न से चतुर्थभाव में शनि हो तो उसे पिता का धन, पिता का घर प्राप्त नहीं होता है।
चतुर्थभाव में शनि होने से उत्तराधिकारी के नाते मिलनेवाली पैतृक सम्पत्ति से वन्चित रहना पड़ता है। जातक को पितृसंचित धन नहीं मिलता है। स्थावर सम्पत्ति में पिता का घर आदि नही मिलता है। अर्थात् चतुर्थभाव के शनि के प्रभाव में उत्पन्न जातक चल-अचल दोनों प्रकार की पैतृक सम्पत्ति से वंन्चित रहता है। चतुर्थभाव में शनि होने से पूर्वार्जित चल सम्पत्ति या स्थावर सम्पत्ति का नाश होता है। चतुर्थभाव में शनि होने से कभी-कभी पूर्वार्जित इस्टेट के नष्ट हो जाने पर ही भाग्योदय होता है। चतुर्थभाव गत शनि के होने बैठने के लिए अच्छा आसन और रहने के लिए अच्छा घर नहीं मिलता है। अपने स्थान से हटना पड़ता है। जातक अपना गांव छोड़कर दूसरे गांव में जाता है वहां पर भी वह दुरूखी ही रहता है। चतुर्थस्थान सुख स्थान है। चतुर्थभावस्थ शनि सुख को नष्ट करता है। जातक सुखरहित होता है। इसलिए दु:खी और चिन्तातुर होता है। चतुर्थभाव में शनि होने से एक यौवन सम्पन्न पुत्र की मृत्यु संभव होती है। जातक चतुर्भभाव में शनि स्थित होने से पित्त और वायु दोष से अस्वस्थ और दुरूखी रहता है। जातक बचपन में रोगी रहता है। चतुर्थस्थ शनि होने से जातक को हृदयरोग से पीड़ा होती है। आयु के 8।18।22।28।40।52 वें वर्ष में शारीरिक कष्ट बहुत होता है। जातक को जीवन में बदनामी और उदासीनता मिलती है। भाई-बन्धुओं से, विरादरी से व्यर्थ का कलंक लगता है। जातक के अपने लोग निन्दा करते हैं और यह मिथ्यापवाद जातक के लिए असह्य मानसिक पीड़ा का कारण होता है। घोड़ा आदि वाहनों में हानियाँ होती हैं। पशुभय होता है। जातक का धन भाई-बंधु चोरी कर ले जाते हैं। जातक का अपने भाई-वंदों से बिरादरी के लोगों से वैर रहता है।
चतुर्थ में शनि शुभ हो या न हो उत्तर आयु में एकांतप्रिय और संन्यासी वृत्ति होती है। जीवन के आखरी दिन बहुत अशुभ होते हैं। अशुभफलों का अनुभव मुख्यत: स्त्री राशियोंमें होता है। चतुर्थभाव का शनि वक्री होने से स्त्री-पुत्र और नौकर का भी नाश कारक होता है।