Tuesday 25 July 2017

देवशयनी एकादशी से शुभ कार्य बंद क्यों ? जानिए क्लिक करके।

Posted by Dr.Nishant Pareek
प्राचीन मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि से  क्षीर सागर में चार मास के लिए शयन करते है। और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि (चार मास ) तक शयन करते है। शयन आरम्भ से दो माह बाद अर्थात भाद्रपद शुक्ल एकादशी को करवट बदलते है। इसलिए इसे परिवर्तिनी एकादशी कहते है। इसी चार मास के समय को चातुर्मास भी कहते है। जिसमें भरपूर भजन कीर्तन, साधना , उपवास आदि किये जाते है। इस समय में शुभ कार्य करना वर्जित माना गया है। ज्योतिष शास्त्र भी इस समय में शुभ कार्य करने के लिए मना करता है।
                                     नवग्रहों , नक्षत्रों , आदि का राजा सूर्य है। और सूर्य का आधार ध्रुव है। ध्रुव का आधार शिशुमार है। तथा शिशुमार के आश्रय भगवान विष्णु है। शिशुमार के हृदय में भगवान विष्णु स्थित है। जो सभी प्राणियों के पालनहार और आदि सनातन पुरुष है। नभमंडल में जो भगवान विष्णु का शिशुमार के समान आकार वाला तारामय स्वरूप देखा जाता है। उसके पूँछ भाग में ध्रुव स्थित है। यहीं ध्रुव खुद घूमता हुआ सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रहों को घूमाता है। उस चलायमान ध्रुव के साथ नक्षत्र भी चक्र के समान भ्रमण करते है। ज्योतिष शास्त्र पूर्ण रूप से भगवान विष्णु से भी संबद्ध है। और इसलिए देव शयन के काल में शुभ महूर्त सम्पन्न नहीं किये जाते।
विष्णु पुराण के अनुसार तथा प्रायोगिक रूप से भी सूर्य आठ मास तक अपनी किरणों से जल को ग्रहण करके उसे आषाढ़ आदि चार मास में धरती पर बरसा देता है। उसी से अन्न पैदा होता है। उस अन्न से ही सभी का पोषण होता है। सूर्य अपनी किरणों से क्षीर सागर का जल खींच कर चंदमा का पोषण करता है। और चन्द्रमा आकाश से वायुमयी नाड़ियों के मार्ग से उसे धूम , अग्नि, और वायुमय मेघों में पहुँचा देता है। चन्द्रमा द्वारा प्राप्त जल बादलों से तुरंत नहीं गिरता। देवशयन आदि काल से पैदा हुए संस्कार से यह जल निर्मल होकर वायु की सहायता से धरती पर बरसने लगता है।


                                    जो जल बादलों से बरसता है वह पृथ्वी पर रहने वाले प्राणियों के लिए जीवन दाता अमृत के समान है। यही ओषधियों का पोषण करता है। क्षीर सागर का जल जब धरती पर बरसता है तब नवग्रहों , नक्षत्रों , और भगवान विष्णु की दृष्टि मंद हो जाती है। यही उनका शयनकाल होता है। इसी समय को चातुर्मास कहते है। जिसमें ऋषि मुनि तपस्वी साधक गृहस्थी आदि एक स्थान पर रहकर चारमास तक साधना करते है। ताकि अमृतमय किरणें ज्यादा से ज्यादा मिल सकें। सूर्य के आर्द्रा नक्षत्र में प्रवेश करने के साथ ही देवशयन काल का आरम्भ होता है। और चित्रा नक्षत्र तक विशेष रूप से माना जाता है। वैसे वर्षा प्रभाव का अधिक संभावित कालखंड स्वाति नक्षत्र तक ही होता है। इसी समय के मध्य भगवान श्री राम ने लक्ष्मण और सीता के साथ वनयात्रा आरम्भ की थी। सूर्य का  दक्षिणायन काल भी इसी समय आता है। बहुत से मांगलिक कार्य उत्तरायण में शुभ माने जाते है। दक्षिणायन में तो देह त्याग भी शुभ नहीं माना जाता। इसलिए ही तो भीष्मपितामह ने उत्तरायण की प्रतीक्षा की थी।
                                     देव शयन के चार माह में विष्णु स्वरूप सत्वगुण की मंदता होती है। साथ ही रजोगुण एवं तमोगुण की वृद्धि इस ऋतु में प्राणियों में होने लगती है। इससे प्राणियों में भोगविलास निद्रा आलस्य अधिक मात्रा में पैदा हो जाते है। मुहूर्त शास्त्र के अनुसार यही चार मास पृथ्वी का रजस्वला काल माना जाता है। इसी कारण गंगा जैसी पवित्र नदियों का जल भी इस काल में सेवन करना वर्जित माना गया है। रजोदर्शन के समय पुरुष का समीप भी निन्दित माना गया है। इसलिए विष्णु भगवान क्षीर सागर में प्रस्थान करते है।
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