Wednesday, 9 July 2025

Aadhunik jyotish ke vidvan Sudhakar Dwivedi/ सुधाकर द्विवेदी

Posted by Dr.Nishant Pareek

सुधाकर द्विवेदी 

 महामहोपाध्याय पण्डित सुधाकर द्विवेदी (अनुमानतः 26 मार्च 1855 -- 28 नवंबर, 1910 ई. (मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी सोमवार संवत् 1967) भारत के आधुनिक काल के महान गणितज्ञ एवं उद्भट ज्योतिर्विद थे। आप हिन्दी साहित्यकार एवं नागरी के प्रबल पक्षधर भी थे। 

जीवनचर्या 

 इनका जन्म वरुणा नदी के तट पर काशी के समीप खजुरी ग्राम में अनुमानतः 26 मार्च सन् 1855 (सोमवार संवत् 1912 विक्रमीय चैत्र शुक्ल चतुर्थी) को हुआ। इनके पिता का नाम कृपालुदत्त द्विवेदी और माता का नाम लाची था। 

आठ वर्ष की आयु में इनके यज्ञोपवीत के दो मास पूर्व, एक शुभ मुहूर्त (फाल्गुन शुक्ल पंचमी) में इनका अक्षरारंभ कराया गया। प्रारंभ से ही इनमें अद्वितीय प्रतिभा देखी गई। कुछ समय में (अर्थात् फाल्गुन शुक्ल दशमी तक) इन्हें हिन्दी मात्राओं का पूर्ण ज्ञान हो गया। जब इनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ तो वे भली-भाँति हिंदी लिखने-पढने लगे थे। संस्कृत का अध्ययन प्रारंभ करने पर वे ‘अमरकोश‘ के लगभग पचास से भी अधिक श्लोक एक दिन में याद कर लेते थे। इन्होंने वाराणसी संस्कृत कालेज के पं. दुर्गादत्त से व्याकरण और पं. देवकृष्ण से गणित एवं ज्योतिष का अध्ययन किया। गणित और ज्योतिष में इनकी अद्भुत प्रतिभा से महामहोपाध्याय बापूदेव शास्त्री बड़े प्रभावित हुए। कई अवसरों पर बापूदेव जी ने एक अवसर पर लिखा, श्री सुधाकर शास्त्री गणिते बृहस्पतिसमः।‘ 

सुधाकर जी ने गणित का गहन अध्ययन किया और भिन्न-भिन्न ग्रंथों पर अपना ‘शोध‘ प्रस्तुत किया। गणित के पाश्चात्य ग्रंथों का भी अध्ययन इन्होंने अंग्रेजी और फ्रेंच भाषाओं को पढ़कर किया। बापूदेव जी ने अपने सिद्धांत शिरोमणि‘ ग्रंथ की टिप्पणी में पाश्चात्य विद्वान डलहोस के सिद्धांत का अनुवाद किया था। द्विवेदी जी ने उक्त सिद्धान्त की अशुद्धि बतलाते हुए बापूदेव जी से उस पर पुनर्विचार के लिए अनुरोध किया। इस प्रकार बाईस वर्ष की ही आयु में सुधाकर जी प्रकांड विद्वान हो गए और उनके निवास स्थान खजुरी में भारत के कोने-कोने से विद्यार्थी पढने आने लगे। सन् 1883 में द्विवेदी जी सरस्वती भवन के पुस्तकालयाध्यक्ष हुए। विश्व के हस्तलिखित पुस्तकालयों में इसका विशिष्ट स्थान है। 16 फरवरी 1887 को महारानी विक्टोरिया की जुबली के अवसर पर इन्हें ‘महामहोपाध्याय‘ की उपाधि से विभूषित किया गया। सन् 1890 में पंडित बापू देव शास्त्री के सेवानिवृत्त होने के बाद वे उनके स्थान पर गणित एवं ज्योतिष के अध्यापक नियुक्त हुए। वे बनारस के क्वीन्स कॉलेज के गणित विभाग के अध्यक्ष थे जहाँ से वे 1905 में सेवानिवृत्त हुए। उनके बाद प्रसिद्ध गणितज्ञ गणेश प्रसाद विभागाध्यक्ष बने। 

 द्विवेदी जी ने ‘ग्रीनविच‘ में प्रकाशित होने वाले ‘नाटिकल ऑल्मैनक‘ में अशुद्धि निकाली। ‘नाटिकल ऑल्मैनक‘ के संपादकों एवं प्रकाशकों ने इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की और इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस घटना से इनका प्रभाव देश-विदेश में बहुत बढ.गया। तत्कालीन राजकीय संस्कृत कालेज (काशी) के प्रिंसिपल डॉ. वेनिस के विरोध करने पर भी गवर्नर ने इन्हें गणित और ज्योतिष विभाग का प्रधानाध्यापक नियुक्त किया। सुधाकर जी गणित के प्रश्नों और सिद्धान्तों पर बराबर मनन किया करते थे। बग्गी पर नगर में घूमते हुए भी वे कागज पेंसिल लेकर गणित के किसी जटिल प्रश्न को हल करने में लगे रहते। 

रचनाएँ 

द्विवेदी जी की गणित और ज्योतिष संबंधी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार है-

इन्होने संस्कृत में अनेक ग्रंथ लिखे हैं जिनमें से अधिकांश ज्योतिषीय विषयों पर हैं। प्रमुख संस्कृत ग्रन्थ हैं- 

दीर्घवृत्तलक्षण गोलीय रेखागणित  

गणकतरंगिणी - इसमें भारतीय ज्योतिषियों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। (1911) 

यूक्लिड के 6वें, 11वें एवं 12वें भागों का संस्कृत में श्लोकबद्ध अनुवाद लीलावती की सोपपत्ति (उपपत्ति सहित) टीका (1879) भास्करीय बीजगणित की सोपपत्ति टीका (1889) 

वाराहमिहिर की पंचसिद्धान्तिका की टीका - ‘पंचसिद्धान्तिका प्रकाश‘ नाम से --यह पुस्तक सन् 1890 में डॉ. थीबॉ का अंग्रेजी टीका एवं भूमिका सहित छपी थी। 

सूर्यसिद्धान्त की टीका - ‘सुधावर्षिणी‘ --इसका दूसरा संस्करण बंगाल की एशियाटिक सोसायटी से सन् 1925 में प्रकाशित हुआ। 

ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त टीका सहित (सन् 1902 में) द्वितीय आर्यभट का महासिद्धान्त टीका सहित (सन् 1910 में) 

संस्कृत में रचित गणित एवं ज्योतिष के ग्रंथ 

(1) वास्तव विचित्र प्रश्नानि, 

(2) वास्तव चंद्रशृंगोन्नतिः, 

(3) दीर्घवृत्तलक्षणम्,

(4) भ्रमरेखानिरूपणम्, 

(5) ग्रहणेछादक निर्णयः, 

(6) यंत्रराज, 

(7) प्रतिभाबोधकः, 

(8) धराभ्रमे प्राचीननवीनयोर्विचारः, 

(9) पिंडप्रभाकर, 

(10) सशल्यबाण निर्णयः, 

(11) वृत्तांतर्गत सप्तदश भुजरचना, 

(12) गणकतरंगिणी 

(13) दिग्मीमांसा, 

(14) धुचरचारः, 

(15) फ्रेंच भाषा से संस्कृत में बनाई चंद्रसारणी तथा भौमादि ग्रहों की सारणी (सात खंडों में),

(16) 1.100000 की लघुरिक्थ की सारणी तथा एक-एक कला की ज्या सारणी, 

(17) समीकरण मीमांसा दो भागों में, 

(18) गणित कौमुदी, 

(19) वराहमिहिरकृत पंचसिद्धांतिका, 

(20) कमलाकर भट्ट विरचित सिद्धांत तत्व विवेकः, 

(21) लल्लाचार्यकृत शिष्यधिवृद्धितंत्रम्, 

(22) करण कुतूहलः वासनाविभूषण सहित 

(23) भास्करीय लीलावती, टिप्पणीसंहिता, 

(24) भास्करीय बीजगणितं टिप्पणीसहितम्, 

(25) वृहत्संहिता भट्टोत्पल टीका संहिता, 

(26) ब्रह्मास्फुट सिद्धांतः स्वकृततिलका (भाष्य) सहित 

(27) ग्रहलाघवः स्वकृत टीकासहित 

(28) पायुष ज्योतिषं सीमाकर भाष्यसहितम्, 

(29) श्रीधराचार्यकृत स्वकृत टीका सहिंताच त्रिशतिका, 

(30) करणप्रकाशः सुधाकरकृत सुधावर्षिणी सहित 

(31) सूर्यसिद्धांतः सुधाकरकृत सुधावर्षिणी सहित 

(32) सूर्यसिद्धांतस्य एका बृहत्सारणी तिथिनक्षत्रयोगकरणानां घटिज्ञापिका आदि। 

हिन्दी में रचित गणित एवं ज्योतिष ग्रंथ 

(1) चलन कलन, 

(2) चलराशिकलन, 

(3) ग्रहण करण, 

(4) गणित का इतिहास, 

(5) पंचांगविचार, 

(6) पंचांगप्रपंच तथा काशी की समय-समय पर की अनेक शास्त्रीय व्यवस्था, 

(7) वर्गचक्र में अंक भरने की रीति, 

(8) गतिविद्या, 

(9) त्रिशतिका 

(10) श्रीपति भट्ट का पाटीगणित (संपादित) 

(11) समीकरण मीमांसा (थीअरी ऑफ इक्वेशन्स) आदि 

हिन्दी साहित्य रचना 

द्विवेदी जी उच्च कोटि के साहित्यिक एवं कवि भी थे। हिंदी और संस्कृत में उनकी साहित्य संबंधी कई रचनाएँ हैं। हिंदी की जितनी सेवा उन्होंने की उतनी किसी गणित, ज्योतिष और संस्कृत के विद्वान ने नहीं की। द्विवेदी जी और भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र में बड़ी मित्रता थी। दोनों हिंदी के अनन्य भक्त थे और हिंदी का उत्थान चाहते थे। द्विवेदी जी आशु रचना में भी पटु थे। काशी स्थित राजघाट के पुल का निर्माण देखने के पश्चात् ही उन्होंने भारतेंदु बाबू को यह दोहा सुनाया 

राजघाट पर बनत पुल, जहँ कुलीन को ढेर। आज गए कल देखिके, आजहि लौटे फेर।। 

भारतेंदु बाबू इस दोहे से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने द्विवेदी जी को जो दो बीड़ा पान घर खाने को दिया उसमें दो स्वर्ण मुद्राएँ रख दीं।। 

द्विवेदी जी ने मलिक मुहम्मद जायसी के महाकाव्य ‘पद्मावत‘ के पच्चीस खंडों की टीका ग्रियर्सन के साथ की। यह ग्रंथ उस समय तक दुरूह माना जाता था, किंतु इस टीका से उसकी सुंदरता में चार चाँद लग गए। ‘पद्मावत‘ की ‘सुधाकरचंद्रिका टीका‘ की भूमिका में द्विवेदी जी ने लिखा हैः 

लखि जननी की गोद बीच, मोद करत रघुराज।

होत मनोरथ सुफल सब, धनि रघुकुल सिरताज॥ 

जनकराज-तनया-सहित, रतन सिंहासन आज। 

राजत कोशलराज लखि, सुफल करहू सब काज।। 

का दुसाधु का साधु जन, का विमान सम्मान। 

लखहू सुधाकर चंद्रिका, करत प्रकाश समान। 

मलिक मुहम्मद मतिलता, कविता कनेक बितान। 

जोरि जोरि सुबरन बरन, धरत सुधाकर सान।। 

द्विवेदी जी राम के अनन्य भक्त थे और उनकी कविताएँ प्रायः रामभक्ति से ओतप्रोत होती थीं। अपनी सभी पुस्तकों के प्रारंभ में उन्होंने राम की स्तुति की है। 

द्विवेदी जी व्यंगात्मक कविताएँ भी यदाकदा लिखते थे। अंग्रेजियत से उन्हें बड़ी अरुचि थी और भारत की गिरी दशा पर बड़ा क्लेश था। राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की हिंदी के प्रति अनुदार नीति और अंग्रेजीपन का अंधानुकरण न तो द्विवेदी जी को पसंद था और न भारतेंदु बाबू को ही। 

नागरी लिपि के प्रबल समर्थक 

द्विवेदी जी के समय में भारत में उर्दू, फारसी एवं अरबी का बोलबाला था। हिंदी भाषा का न तो कोई निश्चित स्वरूप बन सका था और न उसे उचित स्थान प्राप्त था। हिंदी और नागरी लिपि को संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) के न्यायालयों में स्थान दिलाने के लिए नागरी प्रचारिणी सभा ने जो आंदोलन चलाया उसमें द्विवेदी जी का सक्रिय योगदान था। इस संबंध में संयुक्त प्रांत के तत्कालीन अस्थायी राज्यपाल सर जेम्स लाटूश से (1 जुलाई सन् 1898 को) काशी में द्विवेदी जी के साथ नागरीप्रचारिणी सभा के अन्य पाँच सदस्य मिले थे। द्विवेदी जी ने एक उर्दू लिपिक के साथ प्रतियोगिता में स्वयं भाग लेकर और निर्धारित समय से दो मिनट पूर्व ही लेख सुंदर और स्पष्ट नागरी लिपि में लिखकर यह सिद्ध कर दिया कि नागरी लिपि शीघ्रता से लिखी जा सकती है। इस प्रकार हिंदी और नागरी लिपि को भी न्यायालयों में स्थान मिला। 

 द्विवेदी जी का मत था कि हिन्दी को ऐसा रूप दिया जाए कि वह स्वतः व्यापक रूप में जनसाधारण के प्रयोग की भाषा बन जाए और कोई वर्ग यह न समझे कि हिंदी उस पर थोपी जा रही है। उन्होंने पंडिताऊ हिंदी का विरोध किया और उनके प्रभाव से मुहावरेदार सरल हिंदी का प्रयोग पंडितों के भी समाज में होने लगा। उन्होंने अपनी ‘राम कहानी‘ के द्वारा अपील की कि हिंदी उसी प्रकार लिखी जाए जैसे उसे लोग घरों में बोलते हैं। जो विदेशी शब्द हिंदी में अपना एक रूप लेकर प्रचलित हो गए थे, उन्हें बदलने के पक्ष में वे न थे। 

वे नागरीप्रचारिणी ग्रंथमाला के संपादक और बाद में सभा के उपसभापति और सभापति भी रहे। वे कुछ चुनिन्दा व्यक्तियों में से एक थे जिन्होंने वैज्ञानिक विषयों पर हिंदी में सोचने और लिखने का प्रशंसनीय कार्य पिछली शताब्दी में ही बड़ी सफलता से किया। 

भाषा एवं साहित्य सम्बन्धी रचनाएँः-

 भाषा एवं साहित्य संबंधी उनकी रचनाएँ ये हैं-

 (1) भाषाबोधक प्रथम भाग,

 (2) भाषाबोधक द्वितीय भाग, 

 (3) हिंदी भाषा का व्याकरण (पूर्वार्ध) 

(4) तुलसी सुधाकर (तुलसी सतसई पर कुंडलियाँ, 

(5) महाराजा माणधीश श्री रुद्रसिंहकृत रामायण का संपादन, 

(6) जायसी की ‘पद्मावत‘ की टीका (ग्रियर्सन के साथ), 

(7) माधन पंचक, 

(8) राधाकृष्ण रासलीला, 

(9) तुलसीदास की विनय पत्रिका संस्कृतानुवाद, 

(10) तुलसीकृत रामायण बालकांड संस्कृतानुवाद, 

(11) रानी केतकी की कहानी (संपादन), 

(12) रामचरितमानस पत्रिका संपादन, 

(13) रामकहानी, 

(14) भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र की जन्मपत्री, आदि। 

सामाजिक एवं धार्मिक विचारः- 

द्विवेदी जी आधुनिक विचारधारा के उदार व्यक्ति थे। काशी के पंडितों में उस समय जो संकीर्णता व्याप्त थी उसका लेश मात्र भी उनमें न था। उन्होंने सिद्ध किया कि विदेश यात्रा से कोई धर्महानि नहीं। 30 अगस्त 1910 को काशी की एक विराट् सभा का सभापतित्व करते हुए उन्होंने ओजस्वी स्वर में अपील की कि विलायत गमन के कारण जिन्हें जातिच्युत किया गया है उन्हें पुनः जाति में ले लेना चाहिए। अस्पृश्यता, नीच-ऊँच एवं जातिगत भेदभाव से इन्हें बड़ी अरुचि थी। इनका निधन एक साधारण बीमारी से 28 नवम्बर 1910 ई. मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी सोमवार सं. 1967 को हुआ। 

 

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Wednesday, 23 April 2025

Kalyan Varma/ कल्याण वर्मा

Posted by Dr.Nishant Pareek

 Kalyan Varma/ कल्याण वर्मा



यह तो सर्व विदित है कि ज्योतिष शास्त्र वेदांगों में सर्वश्रेष्ठ शास्त्र है। इस शास्त्र के अनुसार ही विश्व का शुभाशुभ ज्ञात हो सकता है। इस शास्त्र के तीन भाग हैं 

होरा, सिद्धान्त (गणित), संहिता। 

इन तीनों भागों से जीवन में होने वाली घटनाओं का सटीक फल कहना सम्भव है। श्री कल्याण वर्मा के द्वारा रचित प्रमुख ज्योतिष ग्रंथ सारावली होरा शास्त्र के रूप में ही है। होरा शास्त्र किसे कहते हैं? - 

होरार्थ शास्त्रम होरा, तामहोराविकल्पमेके वांछन्ति। 

अहश्च रात्रिश्च अहोरात्रो होरा शब्देनोच्यते। 

अहोरात्र के पूर्व वर्ण (अ) तथा पर वर्ण (त्र) का लोप करने से होरा शब्द बनता है। पुनः यह जिज्ञासा होती है कि अहोरात्र शब्द से ही होरा शब्द क्यों बनता हैं, उत्तर बनता है कि एक दिन और एक रात में एक अहोरात्र बनता है और एक अहोरात्र में बारह राशियां नभमंडल में विचरण करती है। इसलिये ही होरा का निर्माण होता है। एक होरा लग्न का रूप बनाता है और जन्म कालीन लग्न के अनुसार ग्रह स्थिति के अनुसार ही उनके नक्षत्रों का विवेचन करने से जातक का फलादेश किया जाता है। सारावली के रचयिता कल्याण वर्मा रीवा जिला के बघेल खण्ड में बघेल राजपूत परिवार में जन्मे थे। कल्याण वर्मा का पूर्व नाम कर्ण देव था और इनका जन्म विक्रमी संवत 1245 के आस पास का माना जाता है। 

सारावली:- कल्याण वर्मा द्वारा रचित सारावली में ज्योतिष का जो रूप प्रस्तुत किया गया है, उसके द्वारा हमें पूर्ण रूप से भूत काल, वर्तमान काल और भविष्य काल का ज्ञान करने में सरलता होती है। ज्योतिष की जानकारी के लिये सारावली में कल्याण वर्मा ने जो कथन अपनी लेखनी से संवत 1245 में (आज से 820 साल पहले) किया था, वह आज भी देश काल और परिस्थिति के अनुसार शत प्रतिशत खरा उतरता है। इनके द्वारा लिखे गये ग्रंथ सारावली में 54 अध्यायों में सम्पूर्ण ज्योतिष शास्त्र समाहित है। भले ही यह सारावली अन्य देश, काल, और परिस्थिति के अनुरूप सही मिले, पर भारतीय परिस्थितियों में यह फलादेश करने पर सही उतरता है। इस ग्रंथ में हर वैदिक ग्रंथ की तरह पहले अध्याय में मंगलाचरण का समावेश किया गया है और दूसरे अध्याय से ज्योतिष की प्रत्येक बात सूक्ष्मता से बताई है। 


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Tuesday, 15 April 2025

Bhaskaracharya / भास्कराचार्य

Posted by Dr.Nishant Pareek

 Bhaskaracharya/ भास्कराचार्य 


भास्कराचार्य या भास्कर द्वितीय (1114 - 1185) प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं ज्योतिषी थे। इनके द्वारा रचित मुख्य ग्रन्थ सिद्धान्त शिरोमणि है। जिसमें लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित तथा गोलाध्याय नामक चार भाग हैं। ये चार भाग क्रमशः अंकगणित, बीजगणित, ग्रहों की गति से सम्बन्धित गणित तथा गोले से सम्बन्धित हैं। 

आधुनिक युग में धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (पदार्थों को अपनी ओर खींचने की शक्ति) की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है। किंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण का रहस्य न्यूटन से भी कई सदियों पहले भास्कराचार्य ने उजागर कर दिया था। भास्कराचार्य ने अपने सिद्धांतशिरोमणि‘ ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि ‘पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस कारण आकाशीय पिण्ड पृथ्वी पर गिरते हैं‘।

 उन्होने करणकौतूहल नामक एक दूसरे ग्रन्थ की भी रचना की थी। ये अपने समय के सुप्रसिद्ध गणितज्ञ थे। कथित रूप से यह उज्जैन की वेधशाला के अध्यक्ष भी थे। उन्हें मध्यकालीन भारत का सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ माना जाता है। 

भास्कराचार्य के जीवन के बारे में विस्तृत जानकारी नहीं मिलती है। कुछ-कुछ जानकारी उनके श्लोकों से मिलती हैं। निम्नलिखित श्लोक के अनुसार भास्कराचार्य का जन्म विज्जडविड नामक गाँव में हुआ था जो सहयाद्रि पहाडियों में स्थित है। 

आसीत साकुलाचलाश्रितपुरे विद्यविद्वज्जने। 

नाना जज्जनधाम्नि विज्जडविडे शाण्डिल्यगोत्रोद्विजः।। 

श्रौतस्मातविचारसारचतुरो निःशेषविद्यानिधि। 

साधुर्नामवधिर्महेश्वरकृती दैवज्ञचूडामणि। 

                        (गोलाध्याये प्रश्नाध्याय, श्लोक 61) 

इस श्लोक के अनुसार भास्कराचार्य शांडिल्य गोत्र के थे और सह्याद्रि क्षेत्र के विज्जडविड नामक स्थान के निवासी थे। लेकिन विद्वान इस विज्जडविड ग्राम की भौगोलिक स्थिति का प्रामाणिक निर्धारण नहीं कर पाए हैं। डॉ. भाऊ दाजी (1822 1874 ई.) ने महाराष्ट के चालीसगाँव से लगभग 16 किलोमीटर दर पाटण गाँव के एक मंदिर में एक शिलालेख की खोज की थी। इस शिलालेख के अनुसार भास्कराचार्य के पिता का नाम महेश्वर था और उन्हीं से उन्होंने गणित, ज्योतिष, वेद, काव्य, व्याकरण आदि की शिक्षा प्राप्त की थी। 

गोलाध्याय के प्रश्नाध्याय, श्लोक 58 में भास्कराचार्य लिखते हैं: 

रसगुणपूर्णमही समशकनृपसमयेऽभवन्मोत्पत्तिः। 

रसगुणवर्षेण मया सिद्धान्तशिरोमणि रचितः।। 

(अर्थ: शक संवत 1036 में मेरा जन्म हुआ और छत्तीस वर्ष की आयु में मैंने सिद्धान्तशिरोमणि की रचना की।) 

अतः उपरोक्त श्लोक से स्पष्ट है कि भास्कराचार्य का जन्म शक संवत 1036, अर्थात ईस्वी संख्या 1114 में हुआ था और उन्होंने 36 वर्ष की आयु में शक संवत 1072, अर्थात ईस्वी संख्या 1150 में लीलावती की रचना की थी। 

 भास्कराचार्य के देहान्त के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। उन्होंने अपने ग्रंथ करण-कुतूहल की रचना 69 वर्ष की आयु में 1183 ई. में की थी। इससे स्पष्ट है कि भास्कराचार्य को लम्बी आयु मिली थी। उन्होंने गोलाध्याय में ऋतुओं का सरस वर्णन किया है जिससे पता चलता है कि वे गणितज्ञ के साथ-साथ एक उच्च कोटि के कवि भी थे। 

कृतियाँ - भास्कर एक मौलिक विचारक भी थे। वह प्रथम गणितज्ञ थे जिन्होनें पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा था कि कोई संख्या जब शून्य से विभक्त की जाती है तो अनंत हो जाती है। किसी संख्या और अनंत का जोड़ भी अंनत होता है। 

खगोलविद् के रूप में भास्कर अपनी तात्कालिक गति की अवधारणा के लिए प्रसिद्ध हैं। इससे खगोल वैज्ञानिकों को ग्रहों की गति का सही-सही पता लगाने में मदद मिलती है। 

बीजगणित में भास्कर ब्रह्मगुप्त को अपना गुरु मानते थे और उन्होंने ज्यादातर उनके काम को ही बढ़ाया। बीजगणित के समीकरण को हल करने में उन्होंने चक्रवाल का तरीका अपनाया। वह उनका एक महत्वपूर्ण योगदान है। छह शताब्दियों के पश्चात् यूरोपियन गणितज्ञों जैसे गेलोयस, यूलर और लगरांज ने इस तरीके की फिर से खोज की और ‘इनवर्स साइक्लिक‘ कह कर पुकारा। किसी गोलार्ध का क्षेत्र और आयतन निश्चित करने के लिए समाकलन गणित द्वारा निकालने का वर्णन भी पहली बार इस पुस्तक में मिलता है। इसमें त्रिकोणमिति के कुछ महत्वपूर्ण सूत्र, प्रमेय तथा क्रमचय और संचय का विवरण मिलता है। 

भास्कर को अवकल गणित का संस्थापक कह सकते हैं। उन्होंने इसकी अवधारणा आइजैक न्यूटन और गोटफ्राइड लैब्नीज से कई शताब्दियों पहले की थी। ये दोनों पश्चिम में इस विषय के संस्थापक माने जाते हैं। जिसे आज अवकल गुणांक और रोल्स का प्रमेय कहते हैं, उसके उदाहरण भी दिए हैं। 

सन् 1150 ई0 में इन्होंने सिद्धान्त शिरोमणि नामक पुस्तक, संस्कृत श्लोकों में, चार भागों में लिखी है, जो क्रम से इस प्रकार हैः 

पाटीगणिताध्याय या लीलावती, बीजगणिताध्याय, ग्रहगणिताध्याय, तथा गोलाध्याय 

इनमें से प्रथम दो स्वतंत्र ग्रंथ हैं और अंतिम दो सिद्धांत शिरोमणि के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसके अलावा करणकुतूहल और वासनाभाष्य (सिद्धान्तशिरोमणि का भाष्य) तथा भास्कर व्यवहार और भास्कर विवाह पटल नामक दो छोटे ज्योतिष ग्रंथ इन्हीं के लिखे हुए हैं। इनके सिद्धांत शिरोमणि से ही भारतीय ज्योतिष शास्त्र का सम्यक् तत्व जाना जा सकता है। सर्वप्रथम इन्होंने ही अंकगणितीय क्रियाओं का अपरिमेय राशियों में प्रयोग किया। गणित को इनकी सर्वोत्तम देन चक्रीय विधि द्वारा आविष्कृत, अनिश्चित एकघातीय और वर्ग समीकरण के व्यापक हल हैं। भास्कराचार्य के ग्रंथ की अन्यान्य नवीनताओं में त्रिप्रश्नाधिकार की नई रीतियाँ, उदयांतर काल का स्पष्ट विवेचन आदि है। 

भास्करचार्य को अनंत तथा कलन के कुछ सूत्रों का भी ज्ञान था। इनके अतिरिक्त इन्होंने किसी फलन के अवकल को तात्कालिक गति का नाम दिया और सिद्ध किया कि -



न्यूटन के जन्म के आठ सौ वर्ष पूर्व ही इन्होंने अपने गोलाध्याय नामक ग्रंथ में ‘माध्यकर्षणतत्व‘ के नाम से गुरुत्वाकर्षण के नियमों की विवेचना की है। ये प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने दशमलव प्रणाली की क्रमिक रूप से व्याख्या की है। इनके ग्रंथों की कई टीकाएँ हो चुकी हैं तथा देशी और विदेशी बहुत सी भाषाओं में इनके अनुवाद हो चुके हैं। 
69 वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी द्वितीय पुस्तक करणकुतूहल लिखी। इस पुस्तक में खगोल विज्ञान की गणना है। यद्यपि यह कृति प्रथम पुस्तक की तरह प्रसिद्ध नहीं है, फिर भी पंचांग आदि बनाने के समय अवश्य देखा जाता है। 


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Monday, 14 April 2025

Jyotish ke prachin vidvan Varahmihir / ज्योतिष के प्राचीन विद्वान् वराहमिहिर

Posted by Dr.Nishant Pareek

ज्योतिष के प्राचीन विद्वान् वराहमिहिर 


Jyotish ke prachin vidvan Varahmihir 


             वराहमिहिर (वरःमिहिर) ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ थे। वराहमिहिर ने ही अपने पंचसिद्धान्तिका में सबसे पहले बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है। 

कापित्थक (उज्जैन) में उनके द्वारा विकसित गणितीय विज्ञान का गुरुकुल सात सौ वर्षों तक प्रसिद्ध रहा। वराहमिहिर बचपन से ही अत्यन्त मेधावी और तेजस्वी थे। अपने पिता आदित्यदास से परम्परागत गणित एवं ज्योतिष सीखकर इन क्षेत्रों में व्यापक शोध कार्य किया। समय मापक घट यन्त्र, इन्द्रप्रस्थ में लौहस्तम्भ के निर्माण और ईरान के शहंशाह नौशेरवाँ के आमन्त्रण पर जुन्दीशापुर नामक स्थान पर वेधशाला की स्थापना - उनके कार्यों की एक झलक देते हैं। 

वराहमिहिर का जन्म 505 ईस्वी में हुआ था। बृहजातक में उन्होंने अपने पिता आदित्यदास का परिचय देते हुए लिखा है कि मैंने कालपी नगर में सूर्य से वर प्राप्त कर अपने पिता आदित्यदास से ज्योतिषशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद वे उज्जयिनी जाकर रहने लगे। यही उन्होंने बृहजातक की रचना की। वो सूर्य के उपासक थे। वराहमिहिर ने लघुजातक, विवाह-पटल, बृहत्संहिता, योगयात्रा और पंचसिद्धान्तिका नामक ग्रंथो की रचना की। वो विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक माने जाते है। 

वराहमिहिर भारतीय, ज्योतिष साहित्य के निर्माता है। उन्होंने अपने पंचसिद्धान्तिका नामक ग्रन्थ से पांच सिद्धांतो की जानकारी दी है जिसमें भारतीय तथा पाश्चात्य ज्योतिष विज्ञान की जानकारी सम्मिलित है। उन्होंने अपनी बृहत्संहिता नामक ज्ञानकोष में तत्कालीन समय की संस्कृति तथा भौगोलिक स्थिति की जानकारी दी है। फलित ज्योतिष की जानकारी उनके ग्रंथो में अधिक है। जन्मकुंडली बनाने की विद्या को जिस होराशास्त्र के नाम से जाना जाता है उनका बृहत्जातक ग्रन्थ इसी शास्त्र पर आधारित है। लघुजातक इसी ग्रन्थ का संक्षिप्त रूप है। योगयात्रा में यात्रा पर निकलते समय शुभ अशुभ आदि संबधी घटनाओं का वर्णन है। पृथ्वी की अयन - चलन नाम की खास गति के कारण ऋतुयें होती है इसका ज्ञान कराया। गणित द्वारा की गयी नई गणनाओं के आधार पर पंचाग का निर्माण किया। वराहमिहिर के अनुसार समय समय पर ज्योतिषीयों को पंचाग सुधार करते रहना चाहिए क्योंकि ग्रह नक्षत्रों तथा ऋतुओं की स्थिति में परिवर्तन होते रहते है। 

 राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के पुत्र की मृत्यु का दिन भी उन्होंने ज्योतिष के आधार पर उन्हें बताया था। उन्होंने यह भी बताया था कि उनके पुत्र की मृत्यु को उस दिन कोई नहीं टाल सकेगा। उसे बनेला जंगली सुअर मारेगा। 

यह सुनकर राजा ने अपने पुत्र के प्राण रक्षा के काफी प्रयत्न किए, किन्तु वे उसकी मृत्यु का ना रोक सके। पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर राजा ने मिहिर को राज दरबार में आमंत्रित किया और कहा आप पूर्ण ज्योतिषज्ञ है, मुझे इसका पूर्ण विश्वास हो गया हैं। यह कह कर राजा ने उनके मगध राज्य का सबसे बड़ा पुरस्कार ‘वराह चिन्ह‘ देकर सम्मानित किया। इसके बाद ही मिहिर को वराह मिहिर कहा जाने लगा था। 

वाराहमिहिर ने आर्यभट्ट प्रथम द्वारा प्रतिपादित ज्या सारणी को और अधिक परिशुद्ध बनाया। उन्होंने शून्य एवं ऋणात्मक संख्याओं के बीजगणितीय गुणों को परिभाषित किया। वराहमिहिर संख्या-सिद्धान्त‘ नामक एक गणित ग्रन्थ के भी रचयिता हैं जिसके बारे में बहुत कम ज्ञात है। इस ग्रन्थ के बारे में पूरी जानकारी नहीं है क्योंकि इसका एक छोटा अंश ही प्राप्त हो पाया है। प्राप्त ग्रन्थ के बारे में पुराविदों का कथन है कि इसमें उन्नत अंकगणित, त्रिकोणमिति के साथ-साथ कुछ अपेक्षाकृत सरल संकल्पनाओं का भी समावेश है। वराहमिहिर ने ही वर्तमान समय में पास्कल त्रिकोण के नाम से प्रसिद्ध संख्याओं की खोज की। इनका उपयोग वे द्विपद गुणाकों की गणना के लिये करते थे। वराहमिहिर का प्रकाशिकी में भी योगदान है। उन्होंने कहा है कि परावर्तन कणों के प्रति-प्रकीर्णन से होता है। उन्होनें अपवर्तन की भी व्याख्या की है। वराहमिहिर की मृत्यु सन् 587 में हुई थी। 

रचनायें 

550 ई. के लगभग इन्होंने तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें बृहज्जातक, बृहत्संहिता और पंचसिद्धांतिका, लिखीं। इन पुस्तकों में त्रिकोणमिति के महत्वपूर्ण सूत्र दिए हुए हैं, जो उनके त्रिकोणमिति ज्ञान के परिचायक हैं। 

पंचसिद्धांतिका में वराहमिहिर से पूर्व प्रचलित पाँच सिद्धांतों का वर्णन है। ये सिद्धांत हैं: पोलिशसिद्धांत, रोमकसिद्धांत, वसिष्ठसिद्धांत, सूर्यसिद्धांत तथा पितामह सिद्धांत। वराहमिहिर ने इन पूर्वप्रचलित सिद्धांतों की महत्वपूर्ण बातें लिखकर अपनी ओर से ‘बीज‘ नामक संस्कार का भी निर्देश किया है, जिससे इन सिद्धांतों द्वारा परिगणित ग्रह दृश्य हो सकें। इन्होंने फलित ज्योतिष के लघुजातक, बृहज्जातक तथा बृहत्संहिता नामक तीन ग्रंथ भी लिखे हैं। बृहत्संहिता में वास्तुविद्या, भवन-निर्माण-कला, वायुमंडल की प्रकृति, वृक्षायुर्वेद आदि विषय सम्मिलित हैं।

 अपनी पुस्तक के बारे में वराहमिहिर कहते हैः- 

ज्योतिष विद्या एक अथाह सागर है और हर कोई इसे आसानी से पार नहीं कर सकता। मेरी पुस्तक एक सुरक्षित नाव है, जो इसे पढेगा वह उसे पार ले जायेगी। 

वास्तव में ज्योतिष जगत में अब इस पुस्तक को ग्रन्थरत्न समझा जाता है। 

कृतियां 

पंचसिद्धान्तिका, बृहज्जातकम्, लघुजातक, बृहत्संहिता, टिकनिकयात्रा, बृहयात्रा या महायात्रा, योगयात्रा या स्वल्पयात्रा, वृहत् विवाहपटल, लघु विवाहपटल, कुतूहलमंजरी, दैवज्ञवल्लभ, लग्नवाराहि। 

मृत्यु 

इस महान् विद्वान् वैज्ञानिक की मृत्यु ईस्वी सन् 587 में हुई। वराह मिहिर की मृत्यु के बाद ज्योतिष गणितज्ञ ब्रह्म गुप्त (ग्रंथ- ब्रह्मस्फुट सिद्धांत, खण्ड खाद्य), लल्ल(लल्ल सिद्धांत), वराह मिहिर के पुत्र पृथुयशा (होराष्ट पंचाशिका) और चतुर्वेद पृथुदक स्वामी, भट्टोत्पन्न, श्रीपति, ब्रह्मदेव आदि ने ज्योतिष शास्त्र के ग्रंथों पर टीका ग्रंथ लिखे। 

 

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Sunday, 13 April 2025

Jyotish shastra ka sampurna parichaya / ज्योतिष शास्त्र का सम्पूर्ण परिचय

Posted by Dr.Nishant Pareek

 ज्योतिष शास्त्र का सम्पूर्ण परिचय 

ज्योतिष शास्त्र 


ब्रह्माण्ड की समष्टि और व्यष्टि से यह संसार और पिण्ड रूपी प्रत्येक मनुष्य का शरीर एकत्व सम्बन्ध युक्त है। इसलिये आर्यशास्त्र में लिखा है कि जो कुछ बाहर ब्रह्माण्ड में है, उन्हीं देवता, भूत समूह, तथा ग्रह नक्षत्र आदि का केन्द्र इस शरीर में स्थित है। शिव संहिता में लिखा है 

देहेऽस्मिनूर्तते मेरुः सप्तद्वीप समन्वितः । 

सरितः सागराः शैलाः क्षेत्राणि क्षेत्रपालकाः।। 

ऋषयः मुनयो सर्वे नक्षत्राणि ग्रहास्तथा। 

पुण्यतीर्थानि पीठानि वर्तन्ते पीठ देवताः।।

इस प्रकार का सिद्धान्त पश्चिमी विद्वानों ने भी किया है। फलस्वरूप मनुष्य अनन्त आकाशव्यापी सौरजगत् की एक क्षुद्र रचना है। सौरजगत् के साथ इस प्रकार एकत्व सम्बन्ध रहने के कारण सौरजगत् के अनुसार उसमें परिवर्तन होना तर्कसंगत है। जिस तरह प्राकृतिक अन्तर्राज्य की मूल शक्ति चेतन और जडरूपी दो भागों में विभक्त है। उसी प्रकार प्रतिकृति की बहिः शक्ति भी सम और विषम रूप दो भागों में विभक्त है। इन्हीं दो प्रकार की सम और विषम शक्तियों द्वारा दो प्रकार के कार्य होते है। एक शक्ति द्वारा आकर्षण तथा दूसरी शक्ति द्वारा विकर्षण की क्रिया होती है। इसका रहस्य यह है कि जिस प्रकार अन्तः करण में इन दो शक्तियों, इनके आकर्षण-विकर्षण, इनकी सहायता से मानासिक प्रवृत्ति में परिवर्तन उत्पन्न होते हैं। तथा मनुष्यों की आन्तरिक वृत्तियों में भी परिवर्तन होते हैं। उसी नियम के अनुसार समष्टि ब्रह्माण्ड की शक्तियों के द्वारा भी इस बाहरी जगत् में सृष्टि स्थिति लयात्मक नाना प्रकार के परिवर्तन हुआ करते है। अपि च मनुष्य के अन्तः करण में जिस प्रकार से ये शक्तियाँ विद्यमान है, उसी प्रकार ग्रह, सूर्य तथा नक्षत्र आदि में विद्यमान है। उनकी इस प्रकार की शक्तियों का प्रभाव जैसे उनके ऊपर रहता है, उसी प्रकार जहाँ तक उनकी शक्ति पहुँच सकती है, वहाँ तक के अन्यान्य ग्रह नक्षत्र तथा ग्रह नक्षत्रवासी जीव समूह पर भी उसी प्रकार प्रभाव पड़ता है। इस वैज्ञानिक सिद्धान्त के अनुसार प्रत्यक्ष सिद्ध गणित ज्योतिष का तादात्म्य सम्बन्ध अप्रत्यक्ष फलित ज्योतिष के साथ रहना युक्ति संगत और विज्ञान सिद्ध है। ज्योतिष शास्त्र में कहा गया है-गणितं फलितश्चैव ज्योतिषं तु द्विधा मतम्। 

    ज्योतिष दो प्रकार का है- गणित और फलित। प्राचीन काल में इस अलौकिक विज्ञान की चरम उन्नति भारतवर्ष में ही हुई थी। अनेक विद्वान् ऋषि-मुनियों ने इसे अपने ज्ञान से पोषित किया। ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तक आचार्यों के नाम इस प्रकार बताये गये है 

सूर्यः पितामह व्यासों वसिष्ठोत्रिपराशराः। 

कश्यपो नारदो गर्गों मरीचिमनुरंगिरा। 

लोमशः पौलिशश्चैव च्यवनो यवनोगुरुः। 

शौनकोऽष्टादशश्चैते ज्योतिः शास्त्रप्रवर्तकाः॥ 

यह शास्त्र अन्य वेदाङ्गों से कहीं ज्यादा विस्तृत तथा बहुत आवश्यक भी है। पूज्य महर्षिगण भी कह गये है-ं 

यथा शिखामयूराणां नागानां मणयो यथा। 

तद्वद्वेदाङ्गशास्त्राणां ज्योतिषं मूर्धनि स्थितम् ।। 

कहा है कि जैसे मयूरों की शिखा और सर्पो की मणि उनके सिर पर रहती है, उसी प्रकार वेदांग शास्त्रों में ज्योतिष सभी अंगों में मुख्य है। 

वेदाहि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः। 

तस्मादिदं कालविधानशास्त्रयो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञम्॥ 

वेद यज्ञों के लिये प्रवृत्त है और यज्ञ काल के भ्रमाणानुसार किये जाते है। ज्योतिष काल निर्णय करने वाला शास्त्र है। इसे जो जानता है, वही यज्ञों को जानकर सम्पादित कर सकता है। 

ज्योतिष शास्त्र का सम्पूर्ण परिचय

 यद्यपि सृष्टि के मूलकारण रूपी कारण ब्रह्म विश्वकर्ता सृष्टि से अतीत है, परन्तु कार्य ब्रह्म रूप यह प्राकृतिक ब्रह्माण्ड देशकाल से परिच्छिन्न है। कर्म के साथ काल की अधीनता प्राचीनकाल से ग्राह्य है। फलस्वरूप कालज्ञान के साथ जो कर्म किया जाता है, उसका ही पूर्ण रूप से सिद्ध होना सम्भव है। ज्योतिष काल के स्वरूप का प्रतिपादक है और उत्तरांग फलित ज्योतिष काल के अन्तर्गत विद्यमान रहस्यों का उद्घाटन करता है। इस कारण वेदों के कर्मकाण्ड का ज्योतिष शास्त्र के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है। क्योंकि कर्म जब काल के अधीन है तो कर्मकाण्ड भी ज्योतिष शास्त्र के अधीन रहकर सम्पादित करना उत्तम होता है। 

आजकल इस ज्योतिष शास्त्र की घोर अवनति भी आर्यजाति के सदाचार और कर्मकाण्ड की हानि का मुख्य कारण है। गणित ज्योतिष द्वारा बाहरी जगत् से जुड़े ग्रह-नक्षत्र समूह के परिवर्तन और काल के विभाग का निर्णय करता है और फलित ज्योतिष द्वारा ग्रह नक्षत्रों की गति की सहायता से इस जगत् के एवं जगत् से जुड़ी - सृष्टि तथा मनुष्यों के आन्तरिक परिवर्तनों का निश्चय किया जाता है। ज्योतिषशास्त्र के दोनों ही अंग मानवगण के लिये बहुत लाभदायक है। ज्योतिष ग्रन्थों में इस शास्त्र की सर्वप्रथम आवश्यकता, सर्वजन हितकारी तथा सर्वशास्त्रों में प्रधानता वर्णित है। 


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Sunday, 6 April 2025

ज्योतिष शास्त्र का अर्थ एवं महत्त्व / jyotish shastra ka arth evm mahatva

Posted by Dr.Nishant Pareek

ज्योतिष शास्त्र का अर्थ एवं महत्त्व / Jyotish shastra ka arth evm mahatva 


रात्रि के समय आकाश में ध्यान पूर्वक देखने पर अनेकानेक तारागण चमकते हुये दिखाई देते हैं। उस समय हृदय में एक उत्कण्ठा उत्पन्न होती है कि ये क्या है? कभी तो ये दृष्ट होते है तथा कभी अदृष्ट हो जाते हैं। सूर्य पूर्व में उदय क्यों होता है तथा पश्चिम में ही क्यों अस्त हो जाता है। 

मानव मन में इस तरह की जिज्ञासा स्वतः ही उठने लग जाती है। यह मानवीय स्वभाव है कि वह उस बात की गहराई में जाकर उस तत्व के प्रत्येक पहलू से अच्छी प्रकार से अवगत होना चाहता है। उसके पश्चात् ही उसे सन्तुष्टि प्राप्त होती है। उन नवीन जिज्ञासाओं का समाधान ही प्राणी के समक्ष नवीन आविष्कारों को प्रकट करती है। ज्योतिष भी उन नवीन आविष्कारों में से एक है। इसी के द्वारा ग्रह, नक्षत्र, राशियों, सौरमण्डल आदि का ज्ञान प्राप्त हुआ। 

व्युत्पत्ति 

“ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रम्‘‘। इसका अर्थ है सूर्यादि ग्रह तथा काल का बोध कराने वाले शास्त्र को ज्योतिष शास्त्र कहा जाता है इसमें प्रमुख रूप से ग्रह, नक्षत्र, धूमकेतु आदि का संचार, स्वरूप, परिभ्रमण काल, ग्रहण सम्बन्धी समस्त घटनायें, ग्रह नक्षत्रों की गति, स्थिति तथा संचार के अनुसार शुभाशुभ कहा जाता है। कुछ आचार्यों के अनुसार आकाश में स्थित ज्योति सम्बन्धी विद्या को ज्योतिर्विद्या कहते है, जिस शास्त्र में इस विद्या का सम्पूर्ण वर्णन रहता है, वह ज्योतिषशास्त्र कहलाता है।

ज्योतिष की परिभाषा में प्राचीन समय से आधुनिक समय तक तीन स्कन्ध प्रचलित रहे- (1) होरा, (2) सिद्धान्त, (3) संहिता। आधुनिकतावश इनमें प्रश्न व शकुन भी समा गयें। तत्पश्चात् ये तीन से पाँच स्कन्ध- (1) होरा, (2) सिद्धान्त, (3) संहिता, (4) प्रश्न, व (5) शकुन में परिवर्तित हो गये। यदि इन पाँचों स्कन्धों को विस्तृत रूप में देखा जाये तो इनमें आधुनिक मनोविज्ञान, जीवविज्ञान, पदार्थ विज्ञान, रसायन विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान का भी समावेश हो गया। इस शास्त्र की परिभाषा में समय के साथ-साथ परिवर्तन होता गया। आरम्भिक काल में ग्रह, नक्षत्र, तारों आदि के स्वरूप विज्ञान को ही ज्योतिष शास्त्र कहा जाता था। उस काल में गणित तथा सिद्धान्त की इस विद्या में गणना नहीं होती थी। नेत्रों से ही ग्रह नक्षत्रों को देखा जाता था। 

आरम्भिक काल में सूर्य, चन्द्रमा देवता के रूप में पूजे जाते थे। वेदों में सूर्य तथा चन्द्रमा की स्तुति के अनेक स्तोत्र पाये जाते है। ब्राह्मण तथा आरण्यक काल में ज्योतिष की परिभाषा में और विकास हुआ। इस काल में ग्रह, नक्षत्रों की आकृति, स्वरूप गण तथा प्रभाव आदि का समावेश इस शास्त्र में हुआ। आदिकाल में लगभग ई. पू. 500 - ई. 500 तक के समय में नक्षत्रों के शुभ-अशुभ फलानुसार कार्यों का वर्णन, ऋतु, अयन दिनमान, लग्न आदि का ज्ञान प्राप्त करना भी इसी ज्ञान में समाहित हो गया। समय के साथ-साथ ज्ञान बढ़ने से राशि तथा ग्रहों के गुण स्वरूप, रंग, दिशा, तत्व, धातु, आदि का भी इस शास्त्र में समावेश हो गया। आदिकाल के समाप्त होने तक ज्योतिष के गणित, सिद्धान्त, फलित तीन भाग प्रचलित हो गये। ग्रहों की गति, स्थिति, अयनांश, पात आदि गणित ज्योतिष के अन्तर्गत समाहित हो गये। शुभाशुभ समय का निर्णय, यज्ञ-हवन, आदि के शुभ समय का निश्चय, स्थान का निश्चय, करना फलित ज्योतिष में आ गया। पूर्व-मध्यकाल लगभग ई 501- ई 1000 तक के काल में सिद्धान्त ज्योतिष का विकास हुआ तथा खगोलीय निरीक्षण ग्रह वेध परिपाटी भी इसमें समा गई। 

ज्योतिष शास्त्र का सम्पूर्ण परिचय 

ज्योतिष शास्त्र के महत्व की चर्चा करना तो इस शास्त्र की विश्वसनियता पर प्रश्न चिह्न लगाने जैसा होता। प्राणी के लगभग सभी कार्य प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से ज्योतिष द्वारा ही सम्पन्न होते है। प्रतिदिन प्रयोग में आने वाले सैकण्ड, मिनट, घण्टा. दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, अयन, ऋतु, वर्ष, व्रत, त्यौहार आदि का ज्ञान इस शास्त्र द्वारा ही किया जाता है। यदि सामाजिक प्राणी को इसका ज्ञान न हो तो सभी धार्मिक उत्सव, सामाजिक त्यौहार, महापुरुषों के जन्म दिवस, आदि किसी भी बात का निश्चित समय ज्ञात नहीं हो सकेगा। शिक्षित व्यक्ति ही क्या अनपढ़ किसान भी यह ज्ञान रखते है कि किस समय, किस माह में बीज बोना चाहिये। जिससे अच्छी फसल हो। यदि किसान ज्योतिष के उपयोगी तत्वों से परिचित न हो तो उसकी अधिकांश मेहनत व्यर्थ ही जायेगी। 

आधुनिक वैज्ञानिक इस विषय में एक तर्क देते हैं कि आधुनिक कृषि वैज्ञानिक बिना समय ही आवश्यकता के अनुसार वर्षा करके अथवा रुकवा कर खेती को सम्पन्न करते है। इसलिये किसानों को ज्योतिष की आवश्यकता नहीं है। परन्तु उन्हें यह स्मरण रखना चाहिये कि प्राचीन ज्योतिष से ही आधुनिक ज्ञान की उत्पत्ति हुई है। ज्योतिष ज्ञान के बिना आधुनिक विज्ञान भी असमय वर्षा नहीं करवा सकता। वास्तविकता यह है कि चन्द्रमा जिस समय जलचर राशि व जलचर नवांशों पर रहता है तब वर्षा होती है। वैज्ञानिक भी इस सिद्धान्त को ध्यान में रखकर वर्षा करवाते है। इस तरह वर्षा का निवारण जलचर चन्द्रमा के जलीय परमाणुओं के विघटन द्वारा सम्पन्न किया जाता है। 

नाव चलाने वाले व्यक्ति को भी ज्योतिष ज्ञान की नित्य आवश्यकता होती है। घडी के अभाव में वे ज्योतिष द्वारा ही नाव की स्थिति का पता लगाते थे कि समुद्र की किस दिशा में नाव चल रही है। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रों के पिण्डों को देखकर ही समय, दिशा आदि का ज्ञान किया जाता था। अन्वेषण कार्य भी ज्योतिष द्वारा ही पूर्ण होता था। एक पाश्चात्य विद्वान ने कहा है कि ग्रह नक्षत्रों के ज्ञान के बिना नवीन राष्ट्र का पता लगाना असम्भव है। बहुत से ऐसे स्थान है, जहाँ आधुनिक वैज्ञानिक यन्त्र कार्य नहीं करते। अधिक गर्मी अथवा सर्दी के कारण वे निष्क्रिय हो जाते है। वहाँ सूर्य-चन्द्रमा आदि के द्वारा दिशा, देश, काल आदि का ज्ञान किया जाता है। किसी पहाड़ की ऊँचाई अथवा किसी नदी की गहराई का ज्ञान भी ज्योतिष शास्त्र द्वारा किया जा सकता है। सामान्य तौर पर यह शंका होती है कि यह कार्य तो रेखा गणित का है। परन्तु यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाये तो ज्ञात होगा कि रेखागणित ज्योतिष शास्त्र का ही अभिन्न अंग है। प्राचीन ज्योतिष विद्वानों ने रेखागणित के प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन ईस्वी सन् 5 वीं तथा 6ठीं शताब्दी में ही कर दिया था। यदि ज्योतिष का ज्ञान नहीं होता तो वेद की सर्व प्राचीनता सिद्ध करना बहुत मुश्किल होता। लोकमान्य तिलक ने वेदों में वर्णित नक्षत्र, अयन, ऋतु आदि के आधार पर ही वेदों का समय निश्चित किया है। 

सृष्टि के रहस्य का ज्ञान भी ज्योतिष द्वारा ही प्राप्त होता है। प्राचीन काल से ही भारत में सृष्टि के रहस्य को प्राप्त करने के लिये ज्योतिष का उपयोग किया जा रहा है। इसी वजह से सिद्धान्त ग्रन्थों में सृष्टि का वर्णन निश्चित रूप से रहता है। प्रकृति के कण कण का रहस्य ज्योतिष में बताया गया है। यदि रोगों के विषय में विचार किया जाये तो बिना ज्योतिष ज्ञान के औषधियों का निर्माण सम्भव नहीं है, क्योंकि उसमें रोगी व दवा के तत्व तथा स्वभाव का सामंजस्य स्थापित करके औषधी का निर्माण करना पडता है। उस तत्व तथा स्वभाव का ज्ञान ज्योतिष द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। संक्षेप में कहा जाये तो इसका महत्व यह है कि ज्योतिष शास्त्र सम्पूर्ण मानव जीवन के प्रत्यक्ष व परोक्ष बातों पर प्रभाव रखता है। जिस तरह से दीपक अंधेरे में रोशनी करके वस्तुओं का दर्शन करवाता है, उसी प्रकार ज्योतिष भी जीवन के सभी तत्वों को स्पष्ट प्रस्तुत करता है। 

 

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Saturday, 5 April 2025

ज्योतिष विज्ञान का आधार ‘वेद‘ । vedo me jyotishiya tattva janiye is lekh

Posted by Dr.Nishant Pareek

ज्योतिष विज्ञान का आधार ‘वेद‘ 



            प्रज्ज्वलित बृह्माण्ड की दिव्य ज्योति ही जीवन है। इस ज्योति का पर्याय ही ज्योतिष है। वेद रूपी ज्योतिष ही ब्रह्म रूपी ज्योतिष है। जिसका दूसरा नाम संवत्सर, ब्रह्म अथवा महाकाल है। ब्रह्म सृष्टि के मूल बीजाक्षरों अथवा मूल अनन्त कलाओं का ज्ञान ही वैदिक दार्शनिक ज्योतिष है। इसका दूसरा स्वरूप लौकिक या व्यक्त ज्योतिष भी है। जिसे खगोलीय अथवा ब्रह्माण्डीय ज्योतिष भी कहते हैं। वेद के छः अंग माने गये है- (1) शिक्षा, (2) कल्प, (3) व्याकरण, (4) निरुक्त, (5) ज्योतिष, (6) छन्दः शास्त्र। 

ज्योतिष शास्त्र को वेद रूपी पुरुष का नेत्र माना गया है। ऋग्वेद आदि प्राचीन ग्रन्थों में ज्योतिष का बहुत उल्लेख प्राप्त होता है। सम्पूर्ण वेदों का सम्बन्ध यज्ञ से है। यज्ञ कर्मों का सम्पादन शुभ समय में ही होता है। इसके लिये शुभ-अशुभ समय का ज्ञान ज्योतिष शास्त्र द्वारा ही प्राप्त किया जाता है। इसलिये वेदांगों में ज्योतिष शास्त्र महत्त्वपूर्ण है। वेद रूपी पुरुष के छः मुख्य अंगों में व्याकरण वेद का मुख, ज्योतिष शास्त्र दोनों नेत्र, निरुक्त दोनों कान, कल्प- शास्त्र दोनों हाथ, शिक्षाशास्त्र वेद की नासिका, तथा छन्द वेद के दोनों पैर कहे गये है। किसी भी व्यक्ति के हाथ, पैर, कान नाक, होने के बाद भी यदि नेत्र नहीं हो तो वह असहाय होता है। इसलिये भी वेदांगों में ज्योतिष शास्त्र महत्त्वपूर्ण है। वेदों में ज्योतिष के निम्न वर्णन प्राप्त होते है-

सूर्य के आकर्षण के बल पर आकाश में नक्षत्रों की स्थित बनती है। सूर्य द्वारा ही दिन-रात होते हैं। सूर्य के आकर्षण द्वारा ही पृथ्वी अपने अक्ष पर स्थिर रहती हैं। भारतीय आचार्यों को आकर्षण का भली-भाँति ज्ञान था। चन्द्रमा स्वयं प्रकाशमान नहीं होता है। यह आकाश में नित्य रूप से गति करता है। चन्द्रमा को पञ्चदश भी कहा गया है, क्योंकि यह प्रत्येक पन्द्रह दिन में क्षीण तथा पन्द्रह दिन में पूर्ण हो जाता है। तैत्तरीय संहिता में ऋतुओं तथा मासों के नाम बताये गये हैं- बसंत के मधु-माधव, ग्रीष्म के शुक्र-शुचि, वर्षा के नभ-नभस्य, शरद् के ईष-ऊर्ज, हेमन्त के सह-सहस्य, तथा शिशिर के तपस-तपस्य बताये गये है। ऋग्वेद में समय के 94 अवयव बताये हैं- इनमें 1 संवत्सर. 2-अयन. 5-ऋतयें. 12 माह. 24 पक्ष.30 अहोरात्र.8 प्रहर तथा 12 आरा मानी गई है। ज्योतिष में वर्ष को दो भागों में बाँटा गया है - उत्तरायण तथा दक्षिणायन। उत्तरायण में सूर्य, उदय बिन्दु से उत्तर की ओर जाता है तथा दक्षिणायन में सूर्य उदय बिन्दु से दक्षिण की तरफ जाता है। तैतरीय संहिता के अनुसार सूर्य 6 मास दक्षिणायन तथा 6 मास उत्तरायण रहता है। 

वैदिक काल में सरलता से दिखाई देने वाले चमकते हुये पिण्डों को ही नक्षत्र कहा जाता है। समयानुसार ज्ञान वृद्धि होने से नक्षत्र तथा तारों में भिन्नता का ज्ञान हुआ। चन्द्रमा की गति तथा मार्ग का ज्ञान हुआ। चैत्र, वैशाख आदि महिनों के नाम वेद, संहिता तथा ब्राह्मण आदि किसी भी ग्रन्थ में प्राप्त नहीं होते। ये नाम 1200 ई. पू. में रचित ग्रन्थ वेदांग ज्योतिष में प्राप्त होते है। वैदिक काल में सप्ताह के स्थान पर पक्ष तथा उसके उप विभाग ही प्राप्त होते है। वैदिक काल में संवत् शब्द से वर्ष की गणना होती थी। (1) संवत्सर, (2) परिवत्सर, (3) इद्वावत्सर (4) अनुवत्सर (5) इद्वत्सर । इसी आधार पर सूर्य सिद्धान्त में काल के नौ विभाग वर्णित है- (1) ब्राह्मवर्ष, (2) दिव्य वर्ष, (3) पितृ वर्ष, (4) प्राजापत्य वर्ष, (5) गौरव वर्ष (6) सौर वर्ष, (7) सावन वर्ष, (8) चान्द्र वर्ष, (9) नाक्षत्र वर्ष। ऐतरेय ब्राह्मण में बताया गया है कि जहाँ चन्द्रमा उदित व अस्त होता है, वह तिथि कहलाती है। वैदिक काल में दिन को चार भागों में बाँटा गया था (1) पूर्वाह्न, (2) मध्याह्न, (3) अपराह्न, (4) सायाह्न। सम्पूर्ण दिन को पन्द्रह भागों में  बाँट कर उनमें से एक को मुहूर्त कहा जाता था। ऋषियों ने चन्द्रमा के एक सम्पूर्ण चक्कर को 27 अथवा 28 भागों में विभक्त करके उन्हें नक्षत्रों का नाम दिया। 

इस तरह उपरोक्त वर्णन प्राचीन वैदिक ग्रन्थों में प्राप्त होता है। परन्तु प्राचीन ज्योतिष तथा आधुनिक ज्योतिष में बहुत अन्तर आ गया है। 


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Thursday, 3 April 2025

ज्योतिषशास्त्र के विभाग व उनके अंग / jyotish shastra ke vibhag or unke ang

Posted by Dr.Nishant Pareek

 ज्योतिषशास्त्र के विभाग व उनके अंग-


                   प्राचीन काल से लेकर आज तक ज्योतिष के तीन विभाग प्रचलित है- (1) होरा, (2) गणित या सिद्धान्त, (3) संहिता । समय के साथ ज्ञान वृद्धि होने से इनमें और भी अनेक तत्वों का समावेश हुआ। परन्तु ज्योतिष शास्त्र का प्रमुख आधार उपरोक्त तीन तत्व ही है। इनमें से किसी एक तत्व के न होने पर यह शास्त्र अधूरा रह जाता है। 

(1) होरा - 

                        इसे जातक शास्त्र भी कहते है। इसकी उत्पत्ति अहोरात्र शब्द से हुई है। प्रथम शब्द अ तथा अन्तिम शब्द त्र का लोप होने से होरा शब्द निर्मित हुआ है। इसमें जन्म के समय के ग्रहों की स्थिति को देखकर शुभ-अशुभ फल कहा जाता है। इसमें जन्म कुण्डली के बारह भावों, उनमें स्थित राशियों तथा ग्रहों को देखकर, ग्रहों की परस्पर दृष्टियों को देखकर फलादेश किया जाता है। प्राणी के सभी प्रकार के कर्म, सुख-दुःख, इष्ट-अनिष्ट, उन्नति-अवनति, भाग्योदय, कार्य क्षेत्र, स्वास्थ्य, धन-सम्पत्ति, बन्धुबान्धव, भवन, वाहन, पत्नी, संतान, विद्या, रोग, यात्रा, लाभ-हानि, आय व्यय, आदि का फल ग्रहों की स्थिति को देखकर किया जाता है। इसमें जन्म नक्षत्र तथा जन्म लग्न आदि-द्वादश भाव, दोनों तरह से फलादेश किया जाता है। समय के साथ-साथ इस शास्त्र में भी अनेक संशोधन व परिवर्तन हुये। इसके प्रधान रचनाकार वराहमिहिर, नारचन्द्र, सिद्धसेन, ढुण्डिराज, केशव आदि है। आचार्य वराहमिहिर ने इस शास्त्र में अनेक नवीन तत्वों का समावेश किया था। नारचन्द्र ने ग्रह, राशियों के स्वरूप भाव तथा ग्रह दृष्टि का समन्वय व कारक, मारक आदि ग्रहों के सम्बन्धों को देखकर फलादेश करने की प्रक्रिया आरम्भ की। श्रीपति एवं श्रीधर आदि नवम, दशम तथा एकादश शताब्दी के होरा शास्त्र आचार्यों ने ग्रहबल, ग्रहवर्ग, विंशोत्तरी आदि दशाओं के फलों को इस शास्त्र में मिश्रित कर लिया था। 

(2) गणित या सिद्धान्त- 

                                       ज्योतिष के इस भाग में त्रुटि से लेकर कल्प काल तक की गणना, सौर, चान्द्रमासों का वर्णन ग्रह-गतियों का वर्णन, व्यक्त-अव्यक्त गणित का प्रयोजन, विविध प्रश्नोत्तर विधि, ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति, अनेक यन्त्रों की निर्माण विधि दिशा, देश काल ज्ञान हेतु गणित विधि, अक्षक्षेत्र सम्बन्धी अक्षज्या, लम्बज्या, धुज्या, कुज्या, समशंकु आदि की गणना का कार्य होता है। प्राचीन काल में इसकी परिभाषा सिद्धान्त गणित के रूप में ही मानी जाती थी। आदिकाल में अंकगणित द्वारा ही अहर्गण मान साधन के द्वारा ग्रहों का आनयन किया जाता था। उत्तर-मध्यकाल लगभग ई 1001-ई. 1600 तक के समय में इस शास्त्र में और विकास हुआ। इसमें अनेक नवीन तत्वों का समावेश हुआ। इस काल में गणित के तीन भेद हो गये। (1) सिद्धान्त, (2) तन्त्र, (3) करण। सिद्धान्त में सृष्टयादि से इष्ट दिन पर्यन्त अहर्गण बनाकर ग्रह सिद्ध किये जाते है। तन्त्र में युगादि से इष्टदिन पर्यन्त अहर्गण बनाकर ग्रहगणित किया जाता है। करण में कल्पित इष्ट वर्ष का युग मानकर उस युग के अन्दर ही किसी अभीष्ट दिन का अहर्गण लाकर ग्रहानयन किया जाता है। 

                  परन्तु उत्तर मध्यकाल के अन्त में इस शास्त्र का विकास अवरुद्ध सा हो गया। उस समय के विद्वानों ने गणित क्रिया करना बन्द कर दिया। तथा उपपत्ति विषयक गणित का ही उपयोग करने लगे। जिससे आकाशीय, खगोलीय, परिवर्तन पर हर समय नजर नहीं रह पाई और यह शास्त्र आगे वृद्धि नहीं कर पाया। आरम्भ में जो सारणियाँ निर्मित की थी। बहुत लम्बे समय तक उन्हीं का उपयोग होता रहा। उनमें समय के साथ कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इस प्रकार इस शास्त्र में अनेक रुकावटे आई, जिससे यह अविकसित रह गया। 

(3) संहिता - 

                       इस शास्त्र में भूशोधन, दिक्शोधन, शल्योद्धार, मेलापक, आयाद्यानयन, गृहोपकरण, इष्टिका द्वार, गेहारम्भ गृहप्रवेश, जलाशय-निर्माण, मांगलिक कार्यों के मुहूर्त, उल्कापात, वृष्टि, ग्रहों के उदय व अस्त का फल, ग्रहचार फल, सूर्य चन्द्र ग्रहण फल, आदि बातों का विस्तृत विवेचन है। नवम शताब्दी में क्रिया काण्ड भी इसमें सम्मिलित हो गया। इस शास्त्र का जन्म आदिकाल में हुआ था। तत्पश्चात् इसमें समय के साथ-साथ और भी विकास हुआ। कुछ विद्वानों ने आयुर्वेद को भी इसमें समाहित कर दिया। 12-13 वीं शताब्दी में इस शास्त्र में और विकास हुआ तथा जीवन के सभी उपयोगी तत्वों का समावेश हो गया। संहिता ग्रन्थों में राष्ट्र विषयक शुभ-अशुभ फल जानने की क्रिया है। यहाँ जातक शास्त्र की तरह व्यक्तिगत फलादेश कम मात्रा में प्राप्त होता है। वाराही संहिता के आरम्भ के 11 अध्यायों में सूर्य, चन्द्रमा, राहु, केतु तथा अन्य ग्रहों के गमन तथा उससे संसार में होने वाले शुभ-अशुभ फलों का वर्णन है। 12 - 13 अध्यायों में अगस्त्य तथा सप्तर्षियों के उदय व अस्त का फल है। 14 वें अध्याय में भारत वर्ष के नौ विभाग मानकर उनके अन्तर्गत आने वाले देशों पर जिन नक्षत्रों का अधिकार है, उनका वर्णन है। 

                      नक्षत्र व्यूह तथा ग्रहों के शत्रु-मित्रता का फल है। वर्षफल का विवरण है। इसके पश्चात् श्रृंगाटक प्रकरण है। इसमें सूर्य अथवा किसी नक्षत्र के पास एक ही समय सभी या कुछ ग्रहों के एकत्रित होने से जो धनुष अथवा श्रृंग के समान आकृतियाँ बनती है। उनके फल बताये गये है। उसके बाद पर्जन्य गर्भलक्षण, गर्भधारण, वर्षा लक्षण, चन्द्रमा से रोहिणी, स्वाती, आषाढ, तथाभाद्रपद के योग के फल, सधोवर्षण, कुसुमफल लक्षण, दिग्दाह, भूकम्प, उल्का, परिवेश, इन्द्रधनुष, गन्धर्वनगर, प्रतिसूर्य, तथा निर्घात आदि का वर्णन है। तत्पश्चात् धान्यादि के मूल्य, इन्द्रध्वज तथा नीराजन वर्णन, खञ्जन नामक पक्षी के दर्शन का फल, दिव्य, भौम, अन्तरिक्ष आदि उत्पातों का वर्णन, मयूर चित्रक प्रकरण, राजोपयोगी पुष्य स्नान, पट्टलक्षण, खड्गलक्षण, वास्तु प्रकरण, भूमि में पानी मिलने का स्थान, वृक्षायुर्वेद, प्रासाद-लक्षण, वज्र लेप प्रकरण, देव प्रतिमाविचार, वास्तु प्रतिष्ठा, दीप लक्षण, दन्त धावन, शकुन विचार, श्वान तथा श्रृंगाल की ध्वनि का फल, तिथि, नक्षत्र, करण तथा गोचर ग्रहों के फल का वर्णन है। 

               ज्योतिष शास्त्र के इन तीन विभागों का उपयोग इसके अनेक अंगों द्वारा होता है। वे अंग जन सामान्य में प्राचीन काल से आधुनिक काल तक प्रचलित है, जो इस प्रकार है- 

1. रमलशास्त्र 

                        रमलशास्त्र बहुत ही सटीक क्रिया है। लेकिन इस विद्या का ज्ञान बहुत ही कम विद्वानों को है। इसलिये यह विद्या लुप्त प्रायः हो गई है। इसमें पासों का प्रयोग होता है। पासों पर कुछ विशेष चिह्न बने होते हैं। उन पासों को हाथ में मसलकर फेंकने पर उन चिह्नों की जो स्थिति बनती है, उस स्थिति के अनुसार ही प्रश्न का उत्तर दिया जाता है। इसे अनेक विद्वान् पाशक विद्या भी कहते है। रमल शब्द अरबी भाषा का शब्द है। इससे यह प्रतीत होता है कि यह विद्या अरब देशों से भारत में आई है। परन्तु ऐसा नहीं है। यह विद्या भारतीयों द्वारा ही उत्पन्न की गई है। जिसका मुस्लिम राजाओं ने अपने समय में अरबी भाषा में अनुवाद करवाया। इसके मूल संस्कृत ग्रन्थ लुप्त हो गये थे। तथा समय बीतने के साथ अरबी भाषा के ग्रन्थों से ही संस्कृत ग्रन्थों की पुनः रचना हुई। रमल शास्त्र पर अनेक ग्रन्थ मिलते है। परन्तु सटीक ग्रन्थ कौनसा है, यह निश्चित करना असम्भव है।  

2. मुहूर्तशास्त्र 

                       इस शास्त्र द्वारा सामाजिक जीवन में होने वाले प्रत्येक शुभ कार्य का समय निश्चित किया जाता है। जिससे वह कार्य शांति पूर्वक शुभ समय पर आरम्भ होकर शुभ समय में ही समाप्त हो सके। मुहूर्त विचार किये बिना कार्य आरम्भ करने से अनेक रूकावटों का सामना करना पड़ता है। समय का प्रभाव प्रत्येक चर अथवा जड वस्तु पर होता है। इसलिये प्राचीन विद्वानों ने विवाह, देव प्रतिष्ठा, यात्रा, गृहारम्भ, गृहप्रवेश, आदि कार्यों के लिये शुभ समय का निर्धारण किया है। जिससे सभी कार्यों को शुभ समय में पूर्ण करके लाभ प्राप्त किया जा सके। मुहूर्त शास्त्र पर अनेक ग्रन्थों की रचना हुई है। प्राचीन विद्वानों ने किसी भी कार्य के मुहूर्त में क्रूरासन्न, दूषित, उत्पात, लता, विद्धपात, राशिवेध, युति, बाणपञ्चक, तथा जामित्र त्यागने योग्य बताया है। सूर्य दग्धा तथा चन्द्रदग्धा तिथियों का वर्णन है। मुहूर्त शास्त्र पर शक् संवत् 1420 में नन्दिग्राम निवासी केशवाचार्य ने मुहूर्त तत्व नामक ग्रन्थ की रचना की।             

               शक संवत् 1413 में नारायण ने मुहूर्त्तमार्तण्ड की रचना की। शक संवत् 1522 में रामभट्ट ने मुहूर्त चिन्तामणि की रचना की। शक संवत् 1549 में विट्ठल दीक्षित ने मुहूर्त कल्पद्रुम की रचना की। इनके आधार पर प्राचीन काल से लेकर आज तक सभी शुभ कार्यों के शुभ समय निश्चित किये जाते है। 

3. निमित्त शास्त्र 

                             इस शास्त्र में बाहरी निमित्तों को देखकर घटित होने वाले शुभाशुभ फलों का वर्णन किया जाता है। हमारे आस-पास के वातावरण में घटित होने वाले सभी प्रकार के शुभ-अशुभ, लाभ-हानि, सुख-दुःख, जीवन-मरण आदि कर्मों पर आधारित है। प्राणी जिस प्रकार के कर्मों को संचित करता है, उसे उन कर्मों के अनुरूप ही फल भोगना पड़ता है। बाहरी निमित्तों से भविष्य में घटने वाली घटनाओं की जानकारी प्राप्त होती है। निमित्त शास्त्र के तीन भेद है (1) पृथ्वी पर दिखाई देने वाले निमित्तों के द्वारा फल का कथन करने वाला निमित्त शास्त्र। (2) आकाश में दिखाई देने वाले निमित्तों से फल कहने वाला निमित्त शास्त्र। (3) श्रवण शब्द मात्र से फल कहने वाला निमित्त शास्त्र। 

                       आकाशीय निमित्तों में सूर्योदय के पहले तथा अस्त होने के बाद चन्द्रमा, नक्षत्र तथा उल्का आदि के गमन व पतन को देखकर शुभाशुभ कहना चाहिये। इस शास्त्र में दिव्य, अन्तरिक्ष तथा भौम उत्पातों का वर्णन विस्तार से किया गया है। 

4. स्वप्नशास्त्र 

                           प्राचीन विद्वानों के अनुसार मानव द्वारा किये हुये संचित कर्मों के अनुसार शुभ-अशुभ फल घटित होते है। इस शास्त्र में स्पष्ट किया है कि कर्म में रत रहने वाले प्राणी के क्रिया कलाप ही उसे भूत व भविष्य काल में होने वाली घटनाओं की सूचना देते है। स्वप्न का कारण मानव का आन्तरिक ज्ञान का आवरण तथा बाहरी दर्शनीय आवरण होता है। जो व्यक्ति हमेशा कर्मों में लगा रहता है, उसके स्वप्न का फल उतना ही सत्य होता है तथा जो कर्म नहीं करते उनके स्वप्न निरर्थक होते है। शयन की अवस्था में इन्द्रियाँ तथा मन शिथिल हो जाते है। परन्तु आत्मा जागृत रहती है। आत्मा के प्रकाश में ही स्वप्न दिखाई देते है। इस प्रकाश में जो दिखाई देता है, उसका सम्बन्ध व्यक्ति के भूत, भविष्य तथा वर्तमान से होता है। प्राचीन स्वप्न शास्त्रों के अनुसार भी स्वप्न मानव को घटने वाली घटनाओं की सूचना देता है। इस शास्त्र में स्वप्न द्वारा शुभ-अशुभ फल बताया जाता है। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने ईश्वर को सृष्टि का निर्माता माना है तथा स्वप्न को ईश्वर से प्रेरित इच्छाओं का फल बताया है। 

स्वप्न सात प्रकार के बताये गये है 

(1) दृष्ट- जो जागृत अवस्था में देखा हो, उसे ही स्वप्न में देखें। 

(2) श्रुत- सोने से पहले किसी से सुना हो, उसे ही स्वप्न में देखें। 

(3)  अनुभूत- जिसका जागृत अवस्था में किसी तरह से अनुभव किया हो तथा उसे ही स्वप्न में देखें। 

(4) प्रार्थित- जिसकी जागृत अवस्था में प्रार्थना की हो, उसे ही स्वप्न में देखें। 

(5) कल्पित- जिसकी जागृत अवस्था में कल्पना की हो तथा उसी को स्वप्न में देखें। 

(6) भाविक- जो न कभी देखा हो और न सुना हो, उसे स्वप्न में देखें। 

(7) वात, पित्त, कफ के विकृत होने पर दिखाई देने वाला स्वप्न। 

इन सात प्रकार के स्वप्नों में भाविक स्वप्न ही अधिकतर फलदायी होता है।  

5. स्वरशास्त्र 

                        ज्योतिष में स्वर शास्त्र का बहुत महत्त्व है। नासिका छिद्रों से लिया जाने वाला श्वास जो वायु के रूप में हमारे शरीर में आवागमन करता है, इसी श्वास को स्वर कहा जाता है। इस स्वर द्वारा फलादेश करना ही स्वर शास्त्र कहलाता है। इसमें फलादेश करने वाला व्यक्ति अपने श्वास के आवागमन से शुभाशुभ फल का विवेचन करता है। इस सिद्धान्त का आधार प्रश्न करने वाले का अदृष्ट होना है। क्योंकि उसके अदृष्ट होने का प्रभाव उस वातावरण पर पड़ता है। इसी से वायु प्रश्न करने वाले के अदृष्टानुकूल बहने लगती है। 

                         नाक के दायें छिद्र से चलने वाला स्वर सूर्य स्वर कहलाता है तथा बांये छिद्र से चलने वाला स्वर चन्द्र स्वर कहलाता है। यदि दोनों छिद्रों से श्वास चले तो वह सुषुम्ना स्वर कहलाता है। सूर्य स्वर को शिव के समान माना है तथा चन्द्र स्वर को देवी के समान माना गया है। सुषुम्ना स्वर को काल के समान माना गया है। स्वर शास्त्र के अनेक लाभ बताये गये है। इसके द्वारा सभी रोगों का नाश होता है। इसके नियमित अभ्यास से व्यक्ति शारीरिक व मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ रहता है। इसमें बताया है कि रात्रि में सोते समय करवट लेकर सोयें। सीधे सोने से सुषुम्ना स्वर चलता है जिससे रात्रि में नींद नहीं आती है। डरावने सपने आते है। भोजन करने के पश्चात आधा घण्टा आराम करना चाहिये। उसमें सर्व प्रथम बांयी करवट लेटें। उसके पश्चात् दायीं करवट लेटें। इस तरह से भोजन का पाचन सुचारू रूप से होता है। भोजन सूर्य स्वर में ही करना चाहिये। भोजन के तुरन्त पश्चात् मूत्र त्याग नहीं करना चाहिये। बांये स्वर में मूत्र त्याग करें तथा दांये स्वर में मल त्याग करना चाहिये । इच्छित संतान की प्राप्ति हेतु भी स्वर के अनुसार भोग क्रिया करने का विधान है। स्वर शास्त्र द्वारा प्राचीन काल से आधुनिक काल तक अनेक लोग लाभान्वित हुये है। परन्तु इसका लाभ निरन्तर-प्रतिदिन अभ्यास करने पर मिलता है। 

6. सामुद्रिक शास्त्र 

                              इस शास्त्र में मानव अंगों के शुभ-अशुभ लक्षणों को देखकर फल कहा जाता है। मानव के अंगों में सर्वश्रेष्ठ अंग हाथ है। जिसके द्वारा मानव नित्य अनेक प्रकार के कार्य करता है। इसलिये इस शास्त्र में मुख्य रूप से हाथ का विचार किया गया है। जन्म कुण्डली के समान हाथ में भी ग्रहों के स्थान होते है। तर्जनी ऊँगली के नीचे बृहस्पति, मध्यमा के नीचे शनि, अनामिका के नीचे सूर्य, कनिष्ठिका के नीचे बुध तथा अंगुठे के नीचे शुक्र ग्रह का स्थान होता है। मंगल ग्रह के दो स्थान होते है -1. तर्जनी ऊँगली के नीचे बृहस्पति ग्रह के नीचे जहाँ से जीवन रेखा आरम्भ होती है, वहाँ से अंगूठे के मूल तक, (2) बुध तथा चन्द्र ग्रह के स्थान के बीच में हृदय रेखा के पास में हाथ में रेखाओं से भी फल कहा जाता है। तर्जनी ऊँगली के नीचे से जीवन रेखा आरम्भ होकर हथेली के मूल में मणिबन्ध तक जाती है। जीवन रेखा के आरम्भिक स्थान से एक रेखा और निकलती है जिसे मस्तिष्क रेखा कहते है। वह चन्द्र ग्रह पर जाती है। बुध ग्रह के नीचे विवाह रेखा होती है। विवाह रेखा के नीचे से हृदय रेखा आरम्भ होती है। जो बृहस्पति ग्रह पर जाती है। हथेली के नीचे मणिबन्ध रेखा होती है। 

                    यहाँ ग्रह तथा रेखाओं के परस्पर सामञ्जस्य को देखकर फलादेश होता है। यथा कोई ग्रह का स्थान ऊपर उठा हुआ है तो वह शुभता का संकेत है। यदि नीचे दबा हुआ हो तो अशुभता का संकेत होता है। रेखाओं के रक्त वर्ण होने पर व्यक्ति आमोद प्रिय, सदाचारी तथा क्रोधी होता है। यदि अंगुलियाँ सटी हुई, उनके बीच में जगह न हों, चिकनी व मांसल हो, रूखी-सूखी न हो, नाखून सुन्दर व चिकने हो, अंगुलियाँ लम्बी व पतली हो तो ऐसा व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। इस प्रकार सामुद्रिक शास्त्र में फलादेश किया जाता है। 

7. प्रश्नशास्त्र 

                       यह ज्योतिषशास्त्र का प्रमुख अंग है। इसमें तुरन्त प्रभाव से प्रश्न का उत्तर दिया जाता है। प्रश्न करने वाले के प्रश्न के अनुसार बिना जन्मपत्री के उसके द्वारा उच्चारित अक्षरों से प्रश्न का फलादेश किया जाता है। इसके अलावा इसमें प्रश्न पूछने के समय की प्रश्न कुण्डली बनाकर भी प्रश्न का उत्तर दिया जाता है। ईस्वी सन् की 5वीं- 6ठीं शताब्दी में सिर्फ प्रश्न करने वाले के द्वारा उच्चारित अक्षरों से ही फलादेश किया जाता था। परन्तु समयानुसार ज्ञानवृद्धि होने से इसमें फलादेश के दो सिद्धान्त उभर कर सामने आयें- (1) प्रश्नाक्षर सिद्धान्त, (2) प्रश्न-लग्न सिद्धान्त। 

(1) प्रश्नाक्षर सिद्धान्त- 

                                 इसमें प्रश्नकर्ता द्वारा उच्चारित अक्षरों से उसके प्रश्न का उत्तर दिया जाता है। इस सिद्धान्त का मूल आधार मनोविज्ञान है। क्योंकि भिन्न भिन्न मानसिक स्थितियों में भिन्न अक्षरों का उच्चारण होता है। उच्चारित प्रश्न अक्षरों से मानसिक स्थिति का पता लगाकर ही इसमें फलादेश किया जाता है।  

(2) प्रश्न लग्न सिद्धान्त- 

                                  इसमें प्रश्न पूछने के समय की कुण्डली बनाकर उसके द्वारा फलादेश किया जाता है। इस सिद्धान्त का मूल आधार शुभाशुभत्व है। इसमें कुण्डली में स्थित ग्रहों की शुभ अशुभ स्थिति को देखकर फलादेश किया जाता है। 

वराहमिहिर के पुत्र पृथुयशा के समय में प्रश्न लग्न सिद्धान्त का बहुत अधिक प्रचार हुआ। 9-11 वीं शताब्दी में इस सिद्धान्त का बहुत विकास हुआ। केवल ज्ञान प्रश्न चूडामणि, चन्द्रोन्मीलन प्रश्न, आयज्ञान तिलक, अर्हच्चूडामणि आदि इसके प्रमुख ग्रन्थ है। 


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Wednesday, 2 April 2025

ज्योतिष शास्त्र के प्राचीन विद्वान् ऋषि पराशर / Jyotish shastra ke prachin vidvan parashar rishi

Posted by Dr.Nishant Pareek

 ज्योतिष शास्त्र के प्राचीन विद्वान् पराशर ऋषि 


                उदयकाल में ज्योतिष का प्रसार मुख द्वारा ही होता था। उस समय ज्ञान को ग्रन्थबद्ध करने की परम्परा नहीं थी। आदिकाल में इस विषय पर स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना होने लगी। इस युग में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष तथा छन्द ये छः भेद वेदांग के प्रस्तुत हो गये। इस समय का प्राणी अपने विचारों को केवल अपने तक ही सीमित नहीं रख पाया और उनको दूसरों तक पहुँचाने की चेष्टा करता। फलस्वरूप ज्योतिष शास्त्र का विकास भी होने लगा। हमारे विद्वानों ने भविष्य का विचार करके अपने ज्ञान को ग्रन्थबद्ध करना आरम्भ कर दिया। ऐसे ही विद्वानों का परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है 

पराशर ऋषि 

नारद तथा वसिष्ठ के पश्चात् ज्योतिष के क्षेत्र में महर्षि पद प्राप्त करने वाले पराशर ऋषि थे। कहते है कि कलियुग में पराशर के समान अन्य महर्षि नहीं हुये। उनके ग्रन्थ ज्योतिष के आधार सिद्ध हुये है। पराशर का समय कौनसा है तथा इन्होंने कहाँ जन्म लिया था, यह ज्ञात नहीं है। पर इनकी रचना बृहत्पाराशरहोराशास्त्र से ज्ञात होता है कि इनका समय वराहमिहिर से पूर्व का है। 

भारतीय संस्कृति में महर्षि पराशर को मन्त्रद्रष्टा, शास्त्रवेत्ता, ब्रह्मज्ञानी तथा स्मृतिकार माना गया है। ये महर्षि वसिष्ठ के पौत्र, गोत्रप्रवर्तक, वैदिक सूक्तों के द्रष्टा और ग्रंथकार भी हैं। ‘पराशर‘ शब्द का अर्थ है - ‘पराशृणाति पापानीति पराशरः‘ 

अर्थात् जो दर्शन-स्मरण करने से ही समस्त पापों का नाश करता है, वहीं पराशर है।  

परासुः स यतस्तेन वशिष्ठः स्थापितो मुनिः।

                       गर्भस्थेन ततो लोके पराशर इति स्मृतः ।।                     

                                                   (महाभारतम् 1-179-3) 

परासोराशासनमवस्थानं येन स पराशरः। 

आंपूर्बबाच्छासतेर्डरन्। इति नीलकण्ठः ॥ 

पराशर के पिता का नाम शक्तिमुनि तथा माता का नाम अद्यश्यन्ती था। शक्तिमुनि वसिष्ठऋषि के पुत्र और वेदव्यास के पितामह थे। इस प्रकार पराशर ऋषि वसिष्ठ के पौत्र हुए। 

ऋषि शक्तिमुनि का विवाह तपस्वी वैश्य चित्रमुख की कन्या अद्यश्यन्ती से हुआ था। माता के गर्भ में रहते हुए पराशर ने पिता के मुख से निकले वचनों से ब्रह्माण्ड पुराण सुना था, कालान्तर में जाकर उन्होंने प्रसिद्ध जितेन्द्रिय मुनि एवं युधिष्ठिर के सभासद जातुकर्णय को उसका उपदेश किया था। पराशर बाष्कल मुनि के शिष्य थे। ऋषि बाष्कल ऋग्वेद के आचार्य थे। याज्ञवल्क्य, पराशर, बोध्य और अग्निमाद्यक इनके शिष्य थे। मुनिबाष्कल ने ऋग्वेद की एक शाखा के चार विभाग करके अपने इन शिष्यों को पढाया था। पराशर याज्ञवल्क्य के भी शिष्य थे। 

पराशर की कृतियाँ 

ऋग्वेद में पराशर की कई रचनाओं का उल्लेख (1, 65-73-9, 97) हैं। विष्णुपुराण, पराशर स्मृति, विदेहराज जनक को उपदिष्ट गीता (पराशर गीता) जो महाभारत के शांतिपर्व का एक भाग है, बृहत्पराशरसंहिता आदि पराशर की रचनाएँ हैं। भीष्माचार्य ने धर्मराज को पराशरोक्त गीता का उपदेश किया है (महाभारत, शांतिपर्व, 291-297)। इनके नाम से संबद्ध अनेक ग्रंथ ज्ञात होते हैं: 

1. बृहत्पराशर होरा शास्त्र, 

2. लघुपाराशरी (ज्यौतिष), 

3 बृहत्पाराशरीय धर्मसंहिता, 

4 पराशरीय धर्मसंहिता (स्मृति), 

5 पराशर संहिता (वैद्यक), 

6. पराशरीय पुराणम् (माधवाचार्य ने उल्लेख किया है),  

7. पराशरौदितं नीतिशास्त्रम् (चाणक्य ने उल्लेख किया है), 

8. पराशरोदितं वास्तुशास्त्रम् (विश्वकर्मा ने उल्लेख किया है)। 

9. पराशर स्मृति 


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Saturday, 23 March 2024

आर्यभट्ट प्रथम का परिचय

Posted by Dr.Nishant Pareek

 आर्यभट्ट प्रथम 

आर्यभट का जन्मः 476 ई. में तथा मृत्युः 550 ई. में हुई थी - ये प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने 23 वर्ष की आयु में ‘आर्यभटीय‘ ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है। वे गुप्त काल के प्रसिद्ध ज्योतिष विद्वान थे। नालन्दा विश्वविद्यालय में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी। उनके इस ग्रंथ को चारों ओर से स्वीकृति मिली थी, जिससे प्रभावित होकर राजा बुद्धगुप्त ने आर्यभट को नालन्दा विश्वविद्यालय का प्रमुख बना दिया। 


प्राचीन भारत के इस महान वैज्ञानिक का सही नाम आर्यभट है न कि आर्यभट्ट। ‘भट‘ शब्द का वास्तविक अर्थ है- योद्धा, सैनिक। और ‘भट्ट‘ का परंपरागत अर्थ है ‘भाट‘ या पंडित (ब्राह्मण)। आर्यभट ब्राह्मण भले ही रहे हों, भाट कभी नहीं थे। वे सही अर्थ में एक वैज्ञानिक योद्धा‘ थे। उन्होंने वेदों और धर्मग्रंथों की गलत मान्यताओं का डटकर विरोध किया। आर्यभट का केवल एक ही ग्रंथ आर्यभटीय वर्तमान में उपलब्ध है। उनका दूसरा ग्रंथ ‘आर्यभट सिद्धांत‘ अभी तक प्राप्त नहीं हुआ। आर्यभट ने अपने नाम और स्थान के बारे में स्वयं जानकारी दी है- आर्यभट इस कुसुमपुर नगर में अतिशय पूजित ज्ञान का वर्णन करता है। आर्यभट ने यहाँ और अन्यत्र कहीं पर भी, यह नहीं कहा कि उनका जन्म कुसुमपुर में हुआ। उन्होंने केवल इतना बताया है कि अपने ज्ञान का प्रतिपादन (ग्रंथ की रचना) कुसुमपुर में कर रहे हैं। 

यह भी निश्चित नहीं कि आर्यभट का कुसुमपुर प्राचीन पाटलिपुत्र (अब पटना) ही हो। प्राचीन भारत में कुसुमपुर नाम के और भी कई नगर थे। कान्यकुब्ज (कन्नौज) को भी कुसुमपुर कहते थे। आर्यभट के दक्षिणात्य होने की ज्यादा संभावना है। उनके प्रमुख भाष्यकार भास्कर-प्रथम (629 ई.) ने उन्हें ‘अश्मक‘, उनके ‘आर्यभटीय‘ ग्रंथ को ‘आश्मकतंत्र‘ व ‘आश्मकीय‘ और उनके अनुयायियों को ‘आश्मकीया‘ कहा है। एक अन्य भाष्यकार नीलकंठ (1300 ई.) ने आर्यभट को ‘अश्मकजनपदजात‘ कहा है। गोदावरी नदी के तट के आसपास का प्रदेश ‘अश्मक जनपद‘ कहलाता था। ज्यादा संभावना यही है कि आर्यभट दक्षिण भारत में पैदा हुए थे और ज्ञानार्जन के लिए उत्तर भारत में कुसुमपुर पहुंचे थे। भारतः इतिहास, संस्कृति और विज्ञान 7 लेखक- गुणाकर मुले 7 पृष्ठ संख्या- 426 । 

आर्यभट की विश्व को देन - भारतीय इतिहास में जिसे ‘गुप्तकाल‘ या ‘स्वर्णयुग‘ के नाम से जाना जाता है, उस काल में भारत ने साहित्य, कला और विज्ञान क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की। उस समय मगध राज्य में स्थित नालन्दा विश्वविद्यालय अध्ययन का प्रमुख और प्रसिद्ध केंद्र था। देश विदेश से विद्यार्थी यहाँ शिक्षा प्राप्ति के लिए आते थे। वहाँ खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। एक प्राचीन मान्यता के अनुसार आर्यभट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे। 

आर्यभट का भारत और विश्व के ज्योतिष सिद्धान्त पर बहुत प्रभाव रहा है। भारत में सबसे अधिक प्रभाव केरल प्रदेश की ज्योतिष परम्परा पर रहा। आर्यभट भारतीय गणितज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन्होंने 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने आर्यभटीय ग्रंथ में लिखा है। कुछ 108 छंद बताते है । इसमें बताया है कि पृथ्वी गोल है और अपनी धुरी पर घूमती है, जिसके कारण रात और दिन होते हैं, इस सिद्धांत को सभी जानते हैं, पर इस वास्तविकता से बहुत लोग परिचित होंगे कि ‘निकोलस कॉपरनिकस‘ के बहुत पहले ही आर्यभट ने यह खोज कर ली थी कि पृथ्वी गोल है और उसकी परिधि अनुमानतः 24835 मील है। कोपर्निकस (1473 से 1543 ई.) ने जो खोज की थी। उसकी खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले कर चुके थे। गोलपाद में आर्यभट ने लिखा है नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब बहाव के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि स्थिर पेड़, पहाड़ आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिरनक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं। इस प्रकार आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। इन्होंने सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को समान माना है। इनके अनुसार एक कल्प में 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 72 महायुग (चतुर्युग) तथा एक चतुर्युग में सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग को समान माना है। 

आर्यभट के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832: 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है। 

ग्रहण की भ्रान्ति का निवारण:- राहु नामक ग्रह सूर्य और चन्द्रमा को निगल जाता है, जिससे सूर्य और चन्द्र ग्रहण होते हैं, हिन्दू धर्म की इस मान्यता को आर्यभट ने गलत सिद्ध किया। चंद्र ग्रहण में चन्द्रमा और सूर्य के बीच पृथ्वी के आ जाने से और उसकी छाया चंद्रमा पर पड़ने से चंद्रग्रहण‘ होता है, यह कारण उन्होंने खोज निकाला। आर्यभट को यह भी पता था कि चन्द्रमा और दूसरे ग्रह स्वयं प्रकाशमान नहीं हैं, बल्कि सूर्य की किरणें उसमें प्रतिबिंबित होती हैं और यह भी कि पृथ्वी तथा अन्य ग्रह सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार घूमते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि ‘चंद्रमा‘ काला है और वह सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होता है। आर्यभट ने यह सिद्ध किया कि वर्ष में 366 दिन नहीं वरन् 365.2951 दिन होते हैं। आर्यभट के ‘बॉलिस सिद्धांत‘ (सूर्य चंद्रमा ग्रहण के सिद्धांत) रोमक सिद्धांत‘ और सूर्य सिद्धांत विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। आर्यभट द्वारा निश्चित किया गया वर्षमान‘ ‘टॉलमी‘ की तुलना में अधिक वैज्ञानिक है। 

गणित शास्त्र में प्रमुख उपलब्धि:- गणित के इतिहास में भी आर्यभट का नाम बहुत सम्मान से लिया जाता है। खगोलशास्त्री होने के साथ साथ गणित के क्षेत्र में भी उनका अपूर्व योगदान है। बीजगणित का सबसे पुराना ग्रंथ आर्यभट का है। उन्होंने सबसे पहले ‘पाई‘ की कीमत निश्चित की और उन्होंने ही सबसे पहले ‘साइन‘ के कोष्टक‘ दिए। गणित के जटिल प्रश्नों को सरलता से हल करने के लिए उन्होंने ही समीकरण बनाये, जो आज भी सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित है । एक के बाद ग्यारह, शून्य जैसी संख्याओं को बोलने के लिए उन्होंने नई पद्धति का आविष्कार किया। बीजगणित में उन्होंने कई संशोधन संवर्धन किए और गणित ज्योतिष का ‘आर्य सिद्धांत‘ प्रचलित किया। 

वृद्धावस्था में आर्यभट ने ‘आर्यभट सिद्धांत‘ नामक ग्रंथ की रचना की। उनके ‘दशगीति सूत्र‘ ग्रंथों को प्रो. कर्ने ने ‘आर्यभटीय‘ नाम से प्रकाशित किया। आर्यभटीय संपूर्ण ग्रंथ है। इस ग्रंथ में रेखागणित, वर्गमूल, घनमूल, जैसी गणित की कई बातों के अलावा खगोल शास्त्र की गणनाएँ और अंतरिक्ष से संबंधित बातों का भी समावेश है। आज भी ‘हिन्दू पंचांग‘ तैयार करने में इस ग्रंथ की मदद ली जाती है। आर्यभट के बाद इसी नाम का एक अन्य खगोलशास्त्री हुआ जिसका नाम लघु आर्यभट‘ था। खगोल और गणितशास्त्र, इन दोनों क्षेत्र में उनके महत्त्वपूर्ण योगदान की वजह से ही भारत के प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट रखा गया था। 

शून्य का आविष्कारः- शून्य (0) की खोज आर्यभट ने की जिससे इनका नाम इतिहास में अमर हो गया । जीरो के बिना गणित करना बहुत मुश्किल है। आर्यभट ने ही सबसे पहले स्थानीय मान पद्धति की व्याख्या की, उन्होंने ही सबसे पहले उदाहरण के साथ स्पष्ट किया कि हमारी पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुए सूरज की परिक्रमा करती है और चंद्रमा पृथ्वी का उपग्रह है जो पृथ्वी की परिक्रमा करता है। उनका मानना था कि सभी ग्रहों की कक्षा दीर्घ वृत्ताकार है। उन्होने बताया कि चंद्रमा का प्रकाश सूरज का ही परावर्तन है। 

स्थान- मूल्य अंक प्रणाली, जिसे सर्वप्रथम तीसरी सदी की बख्शाली पाण्डुलिपि में देखा गया, उनके कार्यों में स्पष्ट रूप से विद्यमान थी। उन्होंने निश्चित रूप से प्रतीक का उपयोग नहीं किया, परन्तु फ्रांसीसी गणितज्ञ जार्ज इफ्रह की दलील है कि रिक्त गुणांक के साथ, दस की घात के लिए एक स्थान धारक के रूप में शून्य का ज्ञान आर्यभट के स्थान-मूल्य अंक प्रणाली में निहित था। 

हालांकि आर्यभट ने ब्राह्मी अंकों का प्रयोग नहीं किया था। वैदिक काल से चली आ रही संस्कृत परंपरा को जारी रखते हुए उन्होंने संख्या को निरूपित करने के लिए वर्णमाला के अक्षरों का उपयोग किया, मात्राओं (जैसे ज्याओं की तालिका) को स्मारक के रूप में व्यक्त करना। 

अपरिमेय और पाई:- आर्यभट ने पाई के सन्निकट पर कार्य किया और शायद उन्हें इस बात का ज्ञान हो गया था कि पाई इर्रेशनल है। आर्यभटीयम (गणितपाद) के दूसरे भाग वह लिखते हैं: 

चतुराधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्त्राणाम्। 

अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्य आसन्नौ वृत्तपरिणाहः।। 

100 में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर 62000 जोड़ें। इस नियम से 20000 परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है। 

(100$़ 4) × 8़$ 62000/20000 = 3.1416 

इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात (4़ $ 100) × 8 $़ 62000) / 20000 = 3.1416 है, जो पाँच महत्वपूर्ण आंकडों तक बिलकुल सटीक है। 

आर्यभट ने आसन्न (निकट पहुंचना), पिछले शब्द के ठीक पहले आने वाला, शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह न केवल एक सन्निकटन है, वरन यह कि मूल्य अतुलनीय (या इर्रेशनल) है। यदि यह सही है, तो यह एक अत्यन्त परिष्कृत दृष्टिकोण है, क्योंकि यूरोप में पाई की तर्कहीनता का सिद्धांत लैम्बर्ट द्वारा केवल 1761 में ही सिद्ध हो पाया था।  

आर्यभटीय के अरबी में अनुवाद के पश्चात् (पूर्व.820 ई.) बीजगणित पर अल ख्वारिज्मी की पुस्तक में इस सन्निकटन का उल्लेख किया गया था। 

क्षेत्रमिति और त्रिकोणमिति:- गणितपाद 6 में, आर्यभट ने त्रिकोण के क्षेत्रफल को इस प्रकार बताया है 

त्रिभुजस्य फलशरीरं समदलकोटि भुजार्धसंवर्गः।

 इसका अनुवाद यह है: किसी त्रिभुज का क्षेत्रफल, लम्ब के साथ भुजा के आधे के (गुणनफल के) परिणाम के बराबर होता है। 

 आर्यभट ने अपने काम में द्विज्या (साइन) के विषय में चर्चा की है और उसको नाम दिया है अर्ध-ज्या। इसका शाब्दिक अर्थ है अर्ध-तंत्री। लोगों ने इसे ज्या कहना शुरू कर दिया। जब अरबी लेखकों द्वारा उनके काम का संस्कृत से अरबी में अनुवाद किया गया, तो उन्होंने इसको जिबा कहा (ध्वन्यात्मक समानता के कारणवश)। चूंकि अरबी लेखन में स्वरों का इस्तेमाल बहुत कम होता है, इसलिए इसका और संक्षिप्त नाम पड़ गया ज्ब। जब बाद के लेखकों को ये समझ में आया कि ज्ब जिबा का ही संक्षिप्त रूप है, तो उन्होंने वापिस जिबा का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। जिबा का अर्थ है खोह या खाई (अरबी भाषा में जिबा का एक तकनीकी शब्द के आलावा कोई अर्थ नहीं है)। बाद में बारहवीं सदी में जब क्रीमोना के घेरार्दो ने इन लेखनों का अरबी से लैटिन भाषा में अनुवाद किया, तब उन्होंने अरबी जिबा की जगह उसके लेटिन समकक्ष साइनस को डाल दिया, जिसका शाब्दिक अर्थ खोह या खाई ही है। और उसके बाद अंग्रेजी में, साइनस ही साइन बन गया। 

अनिश्चित समीकरण को स्पष्ट करना:- प्राचीन काल से भारतीय गणितज्ञों की एक समस्या रही है उन समीकरणों के पूर्णाक हल ज्ञात करना जो ंग ़ इ = बल स्वरूप में होती है, एक विषय जिसे वर्तमान समय में डायोफैंटाइन समीकरण के रूप में जाना जाता है। यहाँ आर्यभटीय पर भास्कर की व्याख्या से एक उदाहरण देते हैंः 

वह संख्या ज्ञात करो जिसे 8 से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में 5 बचता है, 9 से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में 4 बचता है, 7 से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में 1 बचता है। 

   लिए सबसे छोटा मान 85 निकलता है। सामान्य तौर पर, डायोफैंटाइन समीकरण कठिनता के लिए बदनाम थे। इस तरह के समीकरणों की व्यापक रूप से चर्चा प्राचीन वैदिक ग्रन्थ सुल्ब सूत्र में है, जिसके अधिक प्राचीन भाग 800 ई.पू. तक पुराने हो सकते हैं। ऐसी समस्याओं के हल के लिए आर्यभट की विधि को कुट्टक विधि कहा गया है।   कुट्टक का अर्थ है पीसना, अर्थात छोटे छोटे टुकड़ों में तोड़ना और इस विधि में छोटी संख्याओं के रूप में मूल खंडों को लिखने के लिए एक पुनरावर्ती कलनविधि का समावेश था। आज यह कलनविधि, 621 ईसवी पश्चात में भास्कर की व्याख्या के अनुसार, पहले क्रम के डायोफैंटाइन समीकरणों को हल करने के लिए मानक पद्धति है, और इसे अक्सर आर्यभट एल्गोरिद्म के रूप में जाना जाता है। डायोफैंटाइन समीकरणों का इस्तेमाल क्रिप्टोलौजी में होता है और आरएसए सम्मलेन, 2006 ने अपना ध्यान कुट्टक विधि और सुल्वसूत्र के पूर्व के कार्यों पर केन्द्रित किया। 

खगोल विज्ञान:- आर्यभट की खगोल विज्ञान प्रणाली औदायक प्रणाली कहलाती थी, (श्रीलंका, भूमध्य रेखा पर उदय, भोर होने से दिनों की शुरुआत होती थी।) खगोल विज्ञान पर उनके बाद के लेख, जो सतही तौर पर एक द्वितीय मॉडल (अर्ध-रात्रिका, मध्यरात्रि), प्रस्तावित करते हैं, खो गए हैं, परन्तु इन्हें आंशिक रूप से ब्रह्मगुप्त के खण्डखाद्यक में हुई चर्चाओं से पुनः निर्मित किया जा सकता है। कुछ ग्रंथों में वे पृथ्वी के घूर्णन को आकाश की आभासी गति का कारण बताते हैं। 

सौर प्रणाली की गतियाँ - प्रतीत होता है कि आर्यभट यह मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी की परिक्रमा करती है। यह श्रीलंका को सन्दर्भित एक कथन से ज्ञात होता है, जो तारों की गति का पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न आपेक्षिक गति के रूप में वर्णन करता है। 

अनुलोम-गतिस् नौ-स्थस् पश्यति अचलम् विलोम-गम् यद्-वत् । 

अचलानि भानि तद्-वत् सम-पश्चिम-गानि लंकायाम् ॥ 

                                            (आर्यभटीय गोलपाद 9) 

जैसे एक नाव में बैठा आदमी आगे बढ़ते हुए स्थिर वस्तुओं को पीछे की दिशा में जाते देखता है, बिल्कुल उसी तरह श्रीलंका में (अर्थात भूमध्य रेखा पर) लोगों द्वारा स्थिर तारों को ठीक पश्चिम में जाते हुए देखा जाता है। 

अगला छंद तारों और ग्रहों की गति को वास्तविक गति के रूप में वर्णित करता हैः 

 उदय-अस्तमय-निमित्तम् नित्यम् प्रवहेण वायुना क्षिप्तस्। 

लंका-सम-पश्चिम-गस् भ-पंजरस् स-ग्रहस् भ्रमति।। 

                                          (आर्यभटीय गोलपाद 10) 

उनके उदय और अस्त होने का कारण इस तथ्य की वजह से है कि प्रोवेक्टर हवा द्वारा संचालित ग्रह और एस्टेरिसस चक्र श्रीलंका में निरंतर पश्चिम की तरफ चलायमान रहते हैं। 

लंका (श्रीलंका) यहाँ भूमध्य रेखा पर एक सन्दर्भ बिन्दु है, जिसे खगोलीय गणना के लिए मध्याह्न रेखा के सन्दर्भ में समान मान के रूप में ले लिया गया था। 

आर्यभट ने सौर मंडल के एक भूकेंद्रीय मॉडल का वर्णन किया है, जिसमें सूर्य और चन्द्रमा ग्रहचक्र द्वारा गति करते हैं, जो कि पृथ्वी की परिक्रमा करते है। इस मॉडल में, प्रत्येक ग्रहों की गति दो ग्रहचक्रों द्वारा नियंत्रित है, एक छोटा मंद (धीमा) ग्रहचक्र और एक बड़ा शीघ्र (तेज) ग्रहचक्र। पृथ्वी से दूरी के अनुसार ग्रहों का क्रम इस प्रकार है: चंद्रमा, बुध, शुक्र, सूर्य, मंगल, बृहस्पति, शनि और नक्षत्र। 

ग्रहों की स्थिति और अवधि की गणना समान रूप से गति करते हुए बिन्दुओं से सापेक्ष के रूप में की गयी थी, बुध और शुक्र जो कि पृथ्वी के चारों ओर औसत सूर्य के समान गति से घूमते हैं और मंगल, बृहस्पति और शनि जो कि राशिचक्र में पृथ्वी के चारों ओर अपनी विशिष्ट गति से गति करते हैं। खगोल विज्ञान के विद्वानों के अनुसार यह द्वि ग्रहचक्र वाला मॉडल टॉलेमी के पहले के ग्रीक खगोल विज्ञान के तत्वों को प्रदर्शित करता है। आर्यभट के मॉडल के एक अन्य तत्व सिघ्रोका, सूर्य के संबंध में बुनियादी ग्रहों की अवधि को कुछ इतिहासकारों द्वारा एक अंतर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल के चिन्ह के रूप में देखा जाता है। 

ग्रहण के विषय में सही तथ्य:- उन्होंने कहा कि चंद्रमा और ग्रह, सूर्य के परावर्तित प्रकाश से चमकते हैं। मौजूदा ब्रह्माण्डविज्ञान से अलग, जिसमें ग्रहणों का कारक छद्म ग्रह निस्पंद बिन्दु राहू और केतु थे, उन्होंने ग्रहणों को पृथ्वी द्वारा डाली जाने वाली और इस पर गिरने वाली छाया से सम्बद्ध बताया। इस प्रकार चंद्रगहण तब होता है जब चाँद पृथ्वी की छाया में प्रवेश करता है (छंद गोला. 37) और पृथ्वी की इस छाया के आकार और विस्तार की विस्तार से चर्चा की (छंद गोला. 38-48) और फिर ग्रहण के दौरान ग्रहण वाले भाग का आकार और इसकी गणना बाद के भारतीय खगोलविदों ने इन गणनाओं में सुधार किया, लेकिन आर्यभट की विधियों ने प्रमुख सार प्रदान किया था। यह गणनात्मक मिसाल इतनी सटीक थी कि 18 वीं सदी के वैज्ञानिक गुइलौम ले जेंटिल ने पांडिचेरी की अपनी यात्रा के दौरान, पाया कि भारतीयों की गणना के अनुसार 1765-08-30 के चंद्रग्रहण की अवधि 41 सेकंड कम थी, जबकि उसके चार्ट (द्वारा, टोबिअस मेयर. 1752) 68 सेकंड अधिक दर्शाते थे। 

आर्यभट की गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि 39,968.0582 किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान 40,075.0167 किलोमीटर से केवल 0.2 प्रतिशत कम है। यह सन्निकटन यूनानी गणितज्ञ, एराटोसथेनस की संगणना के ऊपर एक उल्लेखनीय सुधार था, (200 ई.) जिनकी गणना का आधुनिक इकाइयों में तो पता नहीं है, परन्तु उनके अनुमान में लगभग 5-10 प्रतिशत की एक त्रुटि अवश्य थीं। 

 नक्षत्रों के आवर्तकालः- समय की आधुनिक अंग्रेजी इकाइयों में जोड़ा जाये तो, आर्यभट की गणना के अनुसार पृथ्वी का आवर्तकाल (स्थिर तारों के सन्दर्भ में पृथ्वी की अवधि) 23 घंटे 56 मिनट और 4.1 सेकंड थी, आधुनिक समय 23ः56ः4.091 है। इसी प्रकार, उनके हिसाब से पृथ्वी के वर्ष की अवधि 365 दिन 6 घंटे 12 मिनट 30 सेकंड, आधुनिक समय की गणना के अनुसार इसमें 3 मिनट 20 सेकंड की त्रुटि है। नक्षत्र समय की धारणा उस समय की अधिकतर अन्य खगोलीय प्रणालियों में ज्ञात थी, परन्तु संभवतः यह संगणना उस समय के हिसाब से सर्वाधिक शुद्ध थी। 

सूर्य केंद्रीयता - आर्यभट का दावा था कि पृथ्वी अपनी ही धुरी पर घूमती है और उनके ग्रह सम्बन्धी ग्रहचक्र मॉडलों के कुछ तत्व उसी गति से घूमते हैं, जिस गति से सूर्य के चारों ओर ग्रह घूमते हैं। इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यभट की संगणनाएँ अन्तर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल पर आधारित थीं, जिसमें ग्रह सूर्य का चक्कर लगाते हैं एक समीक्षा में इस सूर्य केन्द्रित व्याख्या का विस्तृत खंडन है। यह समीक्षा बी.एल. वान डर वार्डेन की एक किताब का वर्णन इस प्रकार करती है “यह किताब भारतीय ग्रह सिद्धांत के विषय में अज्ञात है और यह आर्यभट के प्रत्येक शब्द का सीधे तौर पर विरोध करता है,‘‘ हालाँकि कुछ लोग यह स्वीकार करते हैं कि आर्यभट की प्रणाली पूर्व के एक सूर्य केन्द्रित मॉडल से उपजी थी जिसका ज्ञान उनको नहीं था। यह भी दावा किया गया है कि वे ग्रहों के मार्ग को अंडाकार मानते थे, हालाँकि इसके लिए कोई भी प्राथमिक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया है। हालाँकि सामोस के एरिस्ताचुस (तीसरी शताब्दी ई.पू.) और कभी कभार पोन्टस के हेराक्लिङ्स (चैथी शताब्दी ई.पू ) को सूर्य केन्द्रित सिद्धांत की जानकारी होने का श्रेय दिया जाता है, प्राचीन भारत में ज्ञात ग्रीक खगोलशास्त्र (पौलिसा सिद्धांत - संभवतः अलेक्जन्द्रिया के किसी पॉल द्वारा) सूर्य केन्द्रित सिद्धांत के विषय में कोई चर्चा नहीं करता है। 

आर्यभटीय: 

आर्यभटीय नामक ग्रन्थ की रचना आर्यभट प्रथम (476-550) ने की थी। यह संस्कृत भाषा में आर्या छंद में काव्यरूप में रचित गणित और खगोल शास्त्र का अपूर्वग्रंथ है। इसकी रचनापद्धति बहुत ही वैज्ञानिक और भाषा बहुत ही संक्षिप्त है। इसमें चार अध्यायों में 123 श्लोक हैं। 

इसके चार अध्याय इस प्रकार हैं 

1 दश-गीतिका-पाद 

2. गणित-पादखगोलीय अचर   तथा ज्या सारणी   गणनाओं के लिये आवश्यक गणित 

3 काल-क्रिया-पाद - समय-विभाजन तथा ग्रहों की स्थिति की गणना के लिये नियम 

4 गोल-पाद -त्रिकोनमिति समस्याओं के हल के लिये नियम, ग्रहण की गणना 


गीतिका पादः- गीतिकापाद सबसे छोटा, केवल 13 श्लोकों का है, परंतु इसमें बहुत सी सामग्री भर दी गई है। इसके लिए इन्होंने अक्षरों द्वारा संक्षेप में संख्या लिखने की स्वनिर्मित एक अनोखी रीति का व्यवहार किया है, जिसमें व्यजंनो से सरल संख्याएं और स्वरों से शून्य की गिनती सूचित की जाती थी। 

उदाहरणतः ख्युघृ = 43,20,000 में 2 के लिए ख् लिखा गया है और 30 के लिए य्ा्। दोनों अक्षर मिलाकर लिखे गए हैं और उनमें उ की मात्रा लगी है, जो 10,000 के समान है। इसलिए ख्यु का अर्थ हुआ 3,20,000, घृ के घ् का अर्थ है 4 और ऋ (मात्रा) का 10,00,000, इसलिए घृ का अर्थ हुआ 40,00,000. इस तरह ख्युघृ का उपर्युक्त मान (43,20,000) हुआ। 

 संख्या लिखने की इस रीति में सबसे बड़ा दोष यह है कि यदि अक्षरों में थोड़ा सा भी हेर फेर हो जाय तो बड़ी भारी भूल हो सकती है। दूसरा दोष यह है कि ल् में ऋ की मात्रा लगाई जाय तो इसका रूप वही होता है जो लृ स्वर का, परंतु दोनों के अर्थों में बड़ा अंतर पड़ता है। इन दोषों के होते हुए भी इस प्रणाली के लिए आर्यभट की प्रतिभा की प्रशंसा करनी ही पड़ती है। इसमें उन्होंने थोड़े से श्लोकों में बहुत सी बातें लिख डाली हैं। सचमुच, गागर में सागर भर दिया है। 

आर्यभटीय के प्रथम श्लोक में ब्रह्म और परब्रह्म की वंदना है एवं दूसरे में संख्याओं को अक्षरों से सूचित करने का तरीका। इन दो श्लोकों में कोई क्रमसंख्या नहीं है, क्योंकि ये प्रस्तावना के रूप में हैं। इसके बाद के श्लोक की क्रमसंख्या 1 है जिसमें सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, शनि, गुरु, मंगल, शुक्र और बुध के महायुगीय भगणों की संख्याएं बताई गई हैं। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि आर्यभट ने एक महायुग में पृथ्वी के घूर्णन की संख्या भी दी है, क्योंकि उन्होंने पृथ्वी का दैनिक घूर्णन माना है। इस बात के लिए परवर्ती आचार्य ब्रह्मगुप्त ने इनकी निंदा की है। अगले श्लोक में ग्रहों के उच्च और पात के महायुगीय भगणों की संख्या बताई गई है। तीसरे श्लोक में बताया गया है कि ब्रह्मा के एक दिन (अर्थात एक कल्प) में कितने मन्वंतर और युग होते हैं और वर्तमान कल्प के आरंभ से लेकर महाभारत युद्ध की समाप्तिवाले दिन तक कितने युग और युगपाद बीत चुके थे। आगे के सात श्लोकों में राशि, अंश, कला आदि का संबंध, आकाशकक्षा का विस्तार, पृथ्वी के व्यास तथा सूर्य, चंद्रमा और ग्रहों के बिंबों के व्यास के परिमाण, ग्रहों की क्रांति और विक्षेप, उनके पातों और मंदोच्चों के स्थान, उनकी मंदपरिधियों और शीघ्रपरिधियों के परिमाण तथा 3 अंश 45 कलाओं के अंतर पर ज्याखंडों के मानों की सारणी है, जिसे साइन टेबल कहते है। अंतिम श्लोक में पहले कही हुई बातों के जानने का फल बताया गया है। इस प्रकार प्रतीत होता है कि आर्यभट ने अपनी नवीन संख्या-लेखन-पद्धति से ज्योतिष और त्रिकोणमिति की कितनी ही बातें 13 श्लोकों में भर दी हैं। 


गणितपाद - गणितपाद में 33 श्लोक हैं, जिनमें आर्यभट ने अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित संबंधी कुछ सूत्रों का समावेश किया है। पहले श्लोक में अपना नाम बताया है और लिखा है कि जिस ग्रंथ पर उनका ग्रंथ आधारित है वह (गुप्तसाम्राज्य की राजधानी) कुसुमपुर में मान्य था। दूसरे श्लोक में संख्या लिखने की दशमलव पद्धति की इकाइयों के नाम हैं। इसके आगे के श्लोकों में वर्गक्षेत्र, घन, वर्गमूल, घनमूल, त्रिभुज का क्षेत्रफल, त्रिभुजाकार शंकु का घनफल, वृत्त का क्षेत्रफल, गोले का घनफल, समलंब चतुर्भुज क्षेत्र के कर्णो के संपात से समांतर भुजाओं की दूरी और क्षेत्रफल तथा सब प्रकार के क्षेत्रों की मध्यम लंबाई और चैड़ाई जानकर क्षेत्रफल बताने के साधारण नियम दिए गए हैं। एक जगह बताया गया है कि परिधि के छठे भाग को ज्या उसकी त्रिज्या के समान होती है। श्लोक में बताया गया है कि यदि वृत्त का व्यास 20,000 हो तो उसकी परिधि 62,832 होती है। इससे परिधि और व्यास का संबंध चैथे दशमलव स्थान तक शुद्ध आ जाता है। दो श्लोकों में ज्याखंडों के जानने की विधि बताई गई है, जिससे ज्ञात होता है कि ज्याखंडों की सारणी (टेबुल ऑव साइनडिफरेंसेज) आर्यभट ने कैसे बनाई थी। आगे वृत्त, त्रिभुज और चतुर्भुज खींचने की रीति, समतल धरातल के परखने की रीति, ऊर्धवाधर के परखने की रीत, शंकु और छाया से छायाकर्ण जानने की रीति, किसी ऊँचे स्थान पर रखे हुए दीपक के प्रकाश के कारण बनी हुई शंकु की छाया की लंबाई जानने की रीति, एक ही रेखा पर स्थित दीपक और दो शंकुओं के संबंध के प्रश्न की गणना करने की रीति, समकोण त्रिभुज के कर्ण और अन्य दो भुजाओं के वर्गो का संबंध (जिसे पाइथागोरस का नियम कहते हैं, परंतु जो शुल्वसूत्र में पाइथागोरस से बहुत पहले लिखा गया था), वृत्त की जीवा और शरों का संबंध, दो श्लोकों में श्रेणी गणित के कई नियम, एक श्लोक में एक-एक बढती हुई संख्याओं के वर्गों और घनों का योगफल जानने का नियम, ब्याज की दर जानने का एक नियम जो वर्गसमीकरण का उदाहरण है, त्रैराशिक का नियम, भिन्नों को एकहर करने की रीति, बीजगणित के सरल समीकरण और एक विशेष प्रकार के युगपत् समीकरणों पर आधारित प्रश्नों को हल करने के नियम, दो ग्रहों का युतिकाल जानने का नियम और कुट्टक नियम (सोल्यूशन ऑव इनडिटर्मिनेट इक्केशन ऑव द फस्ट डिग्री) बताए गए हैं। 

काल क्रियापादः- इस अध्याय में 25 श्लोक हैं और यह कालविभाग और काल के आधार पर की गई ज्योतिष संबंधी गणना से संबंध रखता है। पहले दो श्लोकों में काल और कोण की इकाइयों का संबंध बताया गया है। आगे के छह श्लोकों में योग, व्यतीपात, केंद्रभगण और बार्हस्पत्य वर्षों की परिभाषा दी गई है तथा अनेक प्रकार के मासों, वर्षों और युगों का संबंध बताया गया है। नवें श्लोक में बताया गया है कि युग का प्रथमार्ध उत्सर्पिणी और उत्तरार्ध अवसर्पिणी काल है और इनका विचार चंद्रोच्च से किया जाता है। परंतु इसका अर्थ समझ में नहीं आता। किसी टीकाकार ने इसकी संतोष जनक व्याख्या नहीं की है। 10वें श्लोक की चर्चा पहले ही आ चुकी है, जिसमें आर्यभट ने अपने जन्म का समय बताया है। इसके आगे बताया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से युग, वर्ष, मास और दिवस की गणना आरंभ होती है। आगे के 20 श्लोकों में ग्रहों की मध्यम और स्पष्ट गति संबंधी नियम हैं। 

गोलपाद:- यह आर्यभटीय का अंतिम अध्याय है। इसमें 50 श्लोक हैं। पहले श्लोक से प्रकट होता है कि क्रांतिवृत्त के जिस बिंदु को आर्यभट ने मेषादि माना है वह वसंत-संपात-बिंदु था, क्योंकि वह कहते हैं, मेष के आदि से कन्या के अंत तक अपमंडल (क्रांतिवृत्त) उत्तर की ओर हटा रहता है और तुला के आदि से मीन के अंत तक दक्षिण की ओर। आगे के दो श्लोकों में बताया गया है कि ग्रहों के पात और पृथ्वी की छाया का भ्रमण क्रांतिवृत्त पर होता है। चैथे श्लोक में बताया है कि सूर्य से कितने अंतर पर चंद्रमा, मंगल, बुध आदि दृश्य होते हैं। पाँचवाँ श्लोक बताता है कि पृथ्वी, ग्रहों और नक्षत्रों का आधा गोला अपनी ही छाया से प्रकाशित है और आधा सूर्य के सामने होने से प्रकाशित है। नक्षत्रों के संबंध में यह बात ठीक नहीं है। श्लोक छह सात में पृथ्वी की स्थिति, बनावट और आकार का निर्देश किया गया है। आठवें श्लोक में यह विचित्र बात बताई गई है कि ब्रह्मा के दिन में पृथ्वी की त्रिज्या एक योजन बढ.जाती है और ब्रह्मा की रात्रि में एक योजन घट जाती है। श्लोक नौ में बताया गया है कि जैसे चलती हुई नाव पर बैठा हुआ मनुष्य किनारे के स्थिर पेड़ों को विपरीत दिशा में चलता हुआ देखता है वैसे ही लंका (पृथ्वी की विषुवत् देखा पर एक कल्पित स्थान) से स्थिर तारे पश्चिम की ओर घूमते हुए दिखाई पड़ते हैं। परंतु 10वें श्लोक में बताया गया है कि ऐसा प्रतीत होता है, मानो उदय और अस्त करने के बहाने ग्रहयुक्त संपूर्ण नक्षत्रचक्र, प्रवह वायु से प्रेरित होकर, पश्चिम की ओर चल रहा हो। श्लोक 11 में सुमेरु पर्वत (उत्तरी ध्रुव पर स्थित पर्वत) का आकार और श्लोक 12 में सुमेरु और बड़वामुख (दक्षिण धु्रव) की स्थिति बताई गई है। श्लोक 13 में विषुवत् रेखा पर 90-90 अंश की दूरी पर स्थित चार नगरियों का वर्णन है। श्लोक 14 में लंका से उज्जैन का अंतर बताया गया है। श्लोक 15 में बताया गया है कि भूगोल की मोटाई के कारण खगोल आधे भाग से कितना कम दिखाई पड़ता है। 16वें श्लोक में बताया गया है कि देवताओं और असुरों को खगोल कैसे घूमता हुआ दिखाई पड़ता है। श्लोक 17 में देवताओं, असुरों, पितरों और मनुष्यों के दिन रात का परिमाण है। श्लोक 18 से 23 तक खगोल का वर्णन है। श्लोक 24-33 में त्रिप्रश्नाधिकार के प्रधान सूत्रों का कथन है, जिनसे लग्न, काल आदि जाने जाते हैं। श्लोक 34 में लंबन, 35 में आक्षनदृक्कर्म और 36 में आयनदृक्कर्म का वर्णन है। श्लोक 37 से 47 तक सूर्य और चंद्रमा के ग्रहणों की गणना करने की रीति है। श्लोक 48 में बताया गया है कि पृथ्वी और सूर्य के योग से सूर्य के, सूर्य और चंद्रमा के योग से चंद्रमा तथा ग्रहों के योग से सब ग्रहों के मूलांक जाने गए हैं। श्लोक 49 और 50 में आर्यभटीय की प्रशंसा की गई है। 

आर्यभटीय की ख्याति:- आर्यभटीय का प्रचार दक्षिण भारत में विशेष रूप से हुआ। इस ग्रंथ का पठन-पाठन 16वीं 17वीं शताब्दी तक होता रहा, जो इस पर लिखी गई टीकाओं से स्पष्ट है। इस ग्रन्थ की रचना के बाद से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक इसके लगभग 12 भाष्य लिखे गये। लगभग सभी प्रमुख गणितज्ञों ने इस पर भाष्य लिखे, जिसमें भास्कर प्रथम का आर्यभटतंत्रभाष्य (या आर्यभटीयभाष्य) और ब्रह्मगुप्त का भाष्य सम्मिलित है। दक्षिण भारत में इसी के आधार पर बने हुए पंचांग आज भी प्रचलित हैं। खेद है, कि हिंदी में आर्यभटीय की कोई अच्छी टीका नहीं है। अंग्रेजी में इसके दो अनुवाद हैं, एक श्री प्रबोधचंद्र सेनगुप्त का और दूसरा श्री डब्ल्यू.ई. क्लार्क का। पहला 1927 ई. में कलकत्ता और दूसरा 1930 ई. में शिकागों से प्रकाशित हुआ था। 

आर्यभट के दूसरे ग्रंथ का प्रचार उत्तर भारत में विशेष रूप से हुआ, जो इस बात से स्पष्ट है कि आर्यभट के तीव्र आलोचक ब्रह्मगुप्त को वृद्धावस्था में अपने ग्रंथ खंडखाद्यक में आर्यभट के ग्रंथ का अनुकरण करना पड़ा। परंतु अब खंडखाद्यक के व्यापक प्रचार के सामने आर्यभट के ग्रंथ का पठन-पाठन कम हो गया और धीरे-धीरे लुप्त हो गया। 

याकूब इब्न तारीक की पुस्तक तरकीब अल-अफ्लाक में धरती का व्यास 2100 फारसख दिया गया है जो आर्यभट द्वारा दिए गये मान (1050 योजन) से लिया गया लगता है। अल - ख्वारिज्मी ने 820 ई के आसपास आर्यभटीय का अरबी में अनुवाद किया। 

विरासत 

भारतीय खगोलीय परंपरा में आर्यभट के कार्य का बड़ा प्रभाव था और अनुवाद के माध्यम से इसने कई पड़ोसी संस्कृतियों को प्रभावित किया। इस्लामी स्वर्ण युग (ई. 820), के दौरान इसका अरबी अनुवाद विशेष प्रभावशाली था। उनके कुछ परिणामों को अल-ख्वारिज्मी द्वारा उद्धृत किया गया है और 10 वीं सदी के अरबी विद्वान अल बेरुनी द्वारा उन्हें सन्दर्भित किया गया गया है, जिन्होंने अपने वर्णन में लिखा है कि आर्यभट के अनुयायी मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। 

साइन (ज्या), कोसाइन (कोज्या) के साथ ही, वरसाइन (उक्रमाज्या) की उनकी परिभाषा, और विलोम साइन (उत्क्रम ज्या), ने त्रिकोणमिति की उत्पत्ति को प्रभावित किया। वे पहले व्यक्ति भी थे जिन्होंने साइन और वरसाइन (1 - कोसएक्स) तालिकाओं को, 0 डिग्री से 90 डिग्री तक 3.75 ए अंतरालों में, 4 दशमलव स्थानों की सूक्ष्मता तक निर्मित किया। 

वास्तव में साइन और कोसाइन के आधुनिक नाम आर्यभट द्वारा प्रचलित ज्या और कोज्या शब्दों के गलत (अपभ्रंश) उच्चारण हैं। उन्हें अरबी में जिबा और कोजिबा के रूप में उच्चारित किया गया था। फिर एक अरबी ज्यामिति पाठ के लैटिन में अनुवाद के दौरान क्रेमोना के जेरार्ड द्वारा इनकी गलत व्याख्या की गयी उन्होंने जिबा के लिए अरबी शब्द ‘जेब‘ लिया जिसका अर्थ है पोशाक में एक तह, (एल साइनस (सी.1150).24) 

आर्यभट की खगोलीय गणना की विधियां भी बहुत प्रभावशाली थी। त्रिकोणमितिक तालिकाओं के साथ, वे इस्लामी दुनिया में व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाती थी। और अनेक अरबी खगोलीय तालिकाओं (जिज) की गणना के लिए इस्तेमाल की जाती थी। विशेष रूप से, अरबी स्पेन वैज्ञानिक अल-झर्काली (11वीं सदी) के कार्यों में पाई जाने वाली खगोलीय तालिकाओं का लैटिन में तोलेडो की तालिकाओं (12वीं सदी) के रूप में अनुवाद किया गया और ये यूरोप में सदियों तक सर्वाधिक सूक्ष्म पंचांग के रूप में उपयोग में रही। 

आर्यभट और उनके अनुयायियों द्वारा की गयी तिथि गणना पंचांग अथवा हिंदू तिथिपत्र निर्धारण के व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए भारत में निरंतर इस्तेमाल में रही हैं, इन्हें इस्लामी दुनिया को भी प्रेषित किया गया, जहाँ इनसे जलाली तिथिपत्र का आधार तैयार किया गया जिसे 1073 में उमर खय्याम सहित कुछ खगोलविदों ने प्रस्तुत किया, जिसके संस्करण (1925 में संशोधित) आज ईरान और अफगानिस्तान में राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में प्रयोग में हैं। जलाली तिथिपत्र अपनी तिथियों का आंकलन वास्तविक सौर पारगमन के आधार पर करता है, जैसा आर्यभट (और प्रारंभिक सिद्धांत कैलेंडर में था).इस प्रकार के तिथि पत्र में तिथियों की गणना के लिए एक पंचांग की आवश्यकता होती है। यद्यपि तिथियों की गणना करना कठिन था, पर जलाली तिथिपत्र में ग्रेगोरी तिथिपत्र से कम मौसमी त्रुटियां थी। 

भारत के प्रथम उपग्रह आर्यभट, को उनका नाम दिया गया। आर्यभट का नाम उनके सम्मान स्वरुप रखा गया है। खगोल विज्ञान, खगोल भौतिकी और वायुमंडलीय विज्ञान में अनुसंधान के लिए भारत में नैनीताल के निकट एक संस्थान का नाम आर्यभट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान संस्थान (एआरआईएस) रखा गया है। 

अंतस्कूल आर्यभट गणित प्रतियोगिता उनके नाम पर है। बैसिलस आर्यभट, इसरो के वैज्ञानिकों द्वारा 2009 में खोजी गयी एक बैक्टीरिया की प्रजाति का नाम उनके नाम पर रखा गया है। 

प्रमुख तथ्य 

‘आर्यभटीय‘ नामक ग्रंथ की रचना करने वाले आर्यभट अपने समय के सबसे बड़े गणितज्ञ थे। आर्यभट ने दशमलव प्रणाली का विकास किया। आर्यभट के प्रयासों के द्वारा ही खगोल विज्ञान को गणित से अलग किया जा सका। 

आर्यभट ऐसे प्रथम नक्षत्र वैज्ञानिक थे, जिन्होंने यह बताया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती हुई सूर्य के चक्कर लगाती है। इन्होंने सूर्यग्रहण एवं चन्द्रग्रहण होने के वास्तविक कारण पर प्रकाश डाला। 

आर्यभट ने सूर्य सिद्धान्त लिखा। आर्यभट के सिद्धान्त पर ‘भास्कर प्रथम‘ ने टीका लिखी। भास्कर के तीन अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है- ‘महाभास्कर्य‘, ‘लघुभास्कर्य‘ एवं ‘भाष्य‘। 

ब्रह्मगुप्त ने ‘ब्रह्म-सिद्धान्त‘ की रचना कर बताया कि प्रकृति के नियम के अनुसार समस्त वस्तुएं पृथ्वी पर गिरती हैं, क्योंकि पृथ्वी अपने स्वभाव से ही सभी वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। यह न्यूटन के सिद्धान्त के पूर्व की गयी कल्पना है। 

आर्यभट, वराहमिहिर एवं ब्रह्मगुप्त को संसार के सर्वप्रथम नक्षत्र-वैज्ञानिक और गणितज्ञ कहा गया है। 



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